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तीसरा प्रकरण ।
८१ वैसे ही यह जगत् भी अपनी सत्ता से रहित स्फुरण होता है, पर्व सबका अधिष्ठान आत्मा ज्यों का त्यों मैं हूँ। इस प्रकार जिसने आत्मा का साक्षात्कार कर लिया है, वह दीन की तृष्णा करके व्याकुल हुए की तरह विषयों की तरफ नहीं दौड़ता है ॥ ३ ॥
मूलम् । श्रुत्वाऽऽपि शुद्ध चैतन्यमात्मानमितसुन्दरम् । उपस्थेऽत्यन्तसंसक्तो मालिन्यमधिगच्छति ॥ ४ ॥
__ पदच्छेदः । श्रुत्वा, अपि, शुद्धचैतन्यम्, आत्मानम्, अतिसुन्दरम्, उपस्थे, अत्यन्तसंसक्तः, मालिन्यम्, अधिगच्छति ॥ अन्वयः। शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ। अतिसुंदरम् अत्यन्त सुंदर
अत्यन्त आसक्त शुद्धचैतन्यम् शुद्ध चैतन्य
| अत्यन्त सता हुआ पुरुष आत्मानम् आत्मा को
मालिन्यम्-मूढ़ता को श्रुत्वाअपि-जान करके भी अधिगच्छति प्राप्त होता है ।
त:
उपस्थे-/समीपवर्ती विषय |
उपस्थ- 1 में
भावार्थ। आचार्य ने ऊपरवाले तीनों श्लोकों करके ज्ञानी शिष्य के लिये दृश्यमान विषय-व्यवहार की निन्दा की।
अब सब ज्ञानियों के प्रति विषयक व्यवहार की निन्दा शिष्य की परीक्षा के लिए करते हैं
आत्मवित् गुरु के मुख से और वेदांत-वाक्य से आत्मा