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अन्वयः ।
अहो आश्चर्य है कि
अनन्तमहा-_ भोध
दूसरा प्रकरण |
शब्दार्थ |
मयि मुझ विषे
चित्तघाते_
समुद्यते
अपार समुद्र
रूप
| चित्त रूपी पवन
{
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
७३
विचित्रैः = अनेक प्रकार के
भुवनकल्लोलैः= { जगलुरूपी तरंगों
मम=मेरी
द्राक्=अत्यन्त
समुत्थितम् = अभिन्नता है |
भावार्थ |
जनकजी कहते हैं कि जैसे वायु चलने से समुद्र में बड़ेछोटे अनेक प्रकार के तरंग उत्पन्न होते हैं, और वायु के स्थित होने से वे तरंग लय हो जाते हैं, तैसे आत्मा रूपी महान् समुद्र में चित्त- रूपी वायु के वेग से अनेक ब्रह्मांड - रूपी तरंग उत्पन्न होते हैं, और चित्त के शान्त होने से वे लय हो जाते हैं और जैसे समुद्र के तरंग समुद्र से ही उत्पन्न होते हैं और समुद्र में ही लय हो जाते हैं, और समुद्र के तरंग जैसे समुद्र से भिन्न नहीं हैं, वैसे ब्रह्मांड - रूपी अनेक तरंग भी मेरे से भिन्न नहीं हैं । मेरे से उत्पन्न होते हैं और मेरे में ही लय होते हैं, क्योंकि सब मेरे में ही कल्पित हैं । कल्पित पदार्थ अधिष्ठान से भिन्न नहीं होता है ।। २३ ।।
मूलम् ।
मय्यनन्तमहाम्भोधौ चित्तवाते प्रशाम्यति । अभाग्याज्जीववणिजो जगत्पोतो विनश्वरः ॥ २४ ॥