________________
अन्वयः ।
दूसरा प्रकरण |
शब्दार्थ |
अहो = आश्चर्य है कि
जनसमूहे = जीवों के बीच में
अपि भी
मम=मुझ पश्यतः = देखते हुए का अरण्यम् इव= अरण्यवत् द्वैतम् = द्वैत
अन्वयः ।
६९
शब्दार्थ |
न संवृत्तम् =नहीं वर्तता है
तस्मात् = तब
क्व = कैसे अहम् =मैं
तिम् = मोह को
करवाणि करूँ ||
भावार्थ
पूर्ववाले वाक्य द्वारा जनकजी ने कहा कि स्वर्गादिकों के साथ मेरा कुछ भी प्रयोजन नहीं है । करके कहते हैं कि इस लोक के साथ भी मेरा नहीं है ।
अब इस वाक्य कुछ प्रयोजन
में
जनकजी कहते हैं कि हे प्रभो ! बड़ा आश्चर्य है कि मैं द्वैत को देखता भी हैं, तब भी जनों का जो द्वैत वन की तरह उत्पन्न हुआ है, उसके बीच भी उसके साथ मुझको कोई प्रीति नहीं है, उसको मिथ्या जान लिया है । मिथ्या वस्तु के वान् प्रीति को नहीं करते हैं । अज्ञानी मिथ्या साथ प्रीति करते हैं । इतना ही ज्ञानी और भेद है ।। २१ ।।
समूह - रूपी होता हुआ क्योंकि मैंने साथ ज्ञानपदार्थों के अज्ञानी का
मूलम् ।
1
नाहं देहो न मे देहो जीवो नाहमहं हि चित् अयमेव हि मे बंध आसीद्या जीविते स्पृहा ॥ २२ ॥