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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ। प्रश्न-यह जो द्वैत-प्रपंच का अध्यास है, इसका उपादान कारण कौन है ?
__ उत्तर-जनकजी कहते हैं कि नित्य ज्ञान-स्वरूप जो मैं हूँ, सो मैं ही अज्ञान द्वारा सारे प्रपंच का उपादान कारण हूँ अथवा अज्ञान के सहित जो कल्पित सारा प्रपंच है, उसका अधिष्ठान-रूप होने से मैं ही उपादान कारण हैं। विचार के विना जो सब मिथ्या प्रपंच सत्य की तरह प्रतीत होता था, सो नित्य विचार करने से असत्य भान होने लगा। अब अपने स्वरूप चैतन्य में प्राप्त होकर जीवन्मुक्ति को प्राप्त हुआ हूँ ॥ १७ ॥
मूलम् । अहो मयि स्थितं विश्वं वस्तुतो न मयि स्थितम् । न मे बन्धोऽस्तिमोक्षो वा भ्रान्तिः शान्तानिराश्रया ॥ १८ ॥
पदच्छेदः । अहो, मयि, स्थितम्, विश्वम्, वस्तुतः, न, मयि, स्थितम्, न, मे, बन्धः, अस्ति, मोक्षः, वा, भ्रान्तिः, शान्ता, निराश्रया ।। अन्वयः।
शब्दार्थ । | अन्वयः। मे मेरा
न-नहीं बन्धःम्बन्ध
अस्ति है वा-या
अहो आश्चर्य है कि मोक्षः-मोक्ष
मयि=मेरे में स्थित हुआ
शब्दार्थ