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दूसरा प्रकरण ।
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साथ सम्बन्ध कैसे हो सकता है, पर देखने में आता है और लोक भी कहते हैं कि हम बड़े दुःखी हैं ?
उत्तर - निरञ्जन आत्मा को भी द्वैत भ्रम से दुःख प्रतीत होता है, वास्तव में वह दुःखी नहीं ।
प्रश्न - इस भ्रम रूपी महान् व्याधि की ओषधि क्या है ? उत्तर - जो द्वैत प्रतीत हो रहा है, यह सब मिथ्या है । वास्तव में सत्य नहीं है । वास्तव में सत्यबोध-रूप आत्मा ही है, ऐसा जो ज्ञान है, वही त्रिविध दुःख की निवृत्ति की ओषधि है, और कोई उसकी ओषधि नहीं है ।। १६ ।।
मूलम् । बोधमात्रोऽहमज्ञानादुपाधिः कल्पितो मया ।
एवं विमृश्यतो नित्यं निर्विकल्पे स्थितिर्मम ॥ १७ ॥ पदच्छेदः ।
"
बोधमात्रः, अहम्, अज्ञानात्, उपाधिः कल्पितः, मया, एवम् विमृश्यतः, नित्यम्, निर्विकल्पे, स्थितिः, मम ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ | अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अहम् = मैं बोधमात्रः = बोध-रूप हूँ मया=मुझ करके
अज्ञानात् = अज्ञान से
उपाधिः = उपाधि
कल्पना किया गया है।
कल्पितः= {
एवम् = इस प्रकार नित्यम् = नित्य
विमृश्यतः = विचार करते हुए मम=मेरा
स्थितिः = स्थिति
निर्विकल्पे = निर्विकल्प में है ॥