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दूसरा प्रकरण । मृत्योर्वै मृत्युमाप्नोति य इह नानैव पश्यति ।
वह मृत्यु से भी मृत्यु को प्राप्त होता है, जो ब्रह्म में नानात्व को देखता है अर्थात् नाना आत्मा को देखता है इत्यादि अनेक श्रतिवाक्य है जो द्वैत का निषेध करते हैं। फिर जनकजी कहते हैं कि जितना मन और वाणी का विषय है, वह सब मिथ्या है, उसका मुझ चैतन्य-स्वरूप आत्मा के साथ कोई भी सम्बन्ध नहीं है। इसी वास्ते मैं अपने ही आश्चर्य-रूप आत्मा को नमस्कार करता हूँ ।।१४॥
मूलम् । ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञाता त्रितयं नास्ति वास्तवम् । अज्ञानाद्भाति यत्रेदं सोऽहमस्मि निरञ्जनः ॥१५॥
पदच्छेदः। ज्ञानम्, ज्ञेयम्, तथा, ज्ञाता, त्रितयम्, न, अस्ति, वास्तवम्, अज्ञानात्, भाति, यत्र, इदम्, सः, अहम्, अस्मि, निरञ्जनः ।। __ शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। ज्ञानम्-ज्ञान
अज्ञानात् अज्ञान से ज्ञेयम-ज्ञेय
+ यत्र-जिस विषे तथा और ज्ञाता-ज्ञाता
इदम्-यह तीनों त्रितयम्=तीनों
भाति-भासता है यत्र-जिसे
सः सोई वास्तवम् यथार्थ से
अहम् मैं न अस्ति नहीं है
निरञ्जनः निरञ्जन-रूप + च-और
अस्मिन्हूँ॥
अन्वयः।