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अन्वयः ।
दूसरा प्रकरण ।
शब्दार्थ |
अहम् = मैं
अहो आश्चर्य - रूप हूँ नमः =नमस्कार है मह्यम् = मुझको
इह = इस संसार में
मत्समः मेरे तुल्य
दक्षः=चतुर न अस्ति = कोई नहीं है
अन्वयः ।
ये क्यों कि
शरीरेण शरीर से
असंस्पृश्य=पृथक्
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शब्दार्थ
मया = मुझ कर के + इदम्=यह
चिरम् = चिरकाल पर्यन्त
विश्वम् = विश्व
धृतम् = धारण किया गया है |
भावार्थ ।
प्रश्न - असंग आत्मा का शरीरादिकों के साथ संसर्ग कैसे हो सकता है ? और जगत् को कैसे धारण कर सकता है ?
उत्तर - जनकजी कहते हैं कि यही तो बड़ा आश्चर्य है कि जो मैं असंग हो करके भी शरीरादिकों को चेष्टा कराता हूँ । जैसे चुम्बक पत्थर आप क्रिया से रहित भी है तथापि लोहे को चेष्टा कराता है । जैसे उसमें एक विलक्षण शक्ति है, वैसे आत्मा में भी एक विलक्षण शक्ति है । वह शरीरादिकों के अन्तर असंग स्थित है, पर क्रिया - रहित है, परन्तु शरीर इन्द्रियादिक सब अपने-अपने काम को करते हैं । जैसे अग्नि घृत के पिण्ड से अलग रह करके भी उसको पिघला देती है, वैसे ही आत्मा भी सबसे असंग रह करके भी और क्रिया से रहित हो करके भी सारे जगत् को क्रियावान् कर देता है । इसी से जनकजी कहते हैं कि मेरे तुल्य कोई चतुर नहीं है, इसी कारण मैं अपने आपको ही नमस्कार करता