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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० में आत्मा सुख दुःखादिवाला पृथक् ही प्रतीत होता है। यदि आत्मा एक होवे, तब एक के सुखी होने से सबको सुखी होना चाहिए तथा एक के दुःखी होने से सबको दुःखी होना चाहिए। एक के चलने से सबको चलना और एक के बैठने से सबका बैठना होना चाहिए ?
उत्तर-जनकजी कहते हैं कि बड़ा आश्चर्य है कि मेरा आत्मा एक ही है, तथापि अनेक देहरूपी उपाधियों के भेद करके अनेक आत्मा प्रतीत हो रहे हैं। जैसे एक ही जल नाना घट-रूपी उपाधियों में नाना रूपवाला प्रतीत होता है । जैसे एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब नाना जलोपाधियों में हिलता-चलता प्रतीत होता है । और जैसे एकही आकाश नाना घटमठादिक उपाधियों में क्रिया आदिकवाला प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में वे क्रिया आदि सब उपाधियों के धर्म हैं, आकाश के नहीं हैं। वैसे सुख दुःख गमनागमनादिक भी सब देहादि उपाधियों के धर्म हैं, आत्मा के नहीं हैं, इसी से एक ही आत्मा गमनादिकों से रहित व्यापक होकर स्थित है ।। १२ ।
मूलम् । अहो अहं नमो मह्यं दक्षो नास्तीह मत्समः । असंस्पृश्य शरीरेण येन विश्वं चिरं धृतम् ॥ १३ ॥
पदच्छेदः । अहो, अहम्, नमः, मह्यम् दक्षः, न, अस्ति, इह, मत्समः, असंस्पृश्य, शरीरेण, येन, विश्वम्, चिरम्, धृतम् ।।