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जगन्नाशे
जगत के नाश
अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
पदच्छेदः । अहो, अहम्, नमः, मह्यम्, विनाशः, यस्य, न, अस्ति, मे, ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तम्, जगन्नाशे, अपि, तिष्ठतः ॥ अन्वयः । शब्दार्थ । । अन्वयः ।
शब्दार्थ। ब्रह्मादिस्तम्ब ] _ [ ब्रह्मा से लेकर | पर्यन्तम् । तृण पर्यन्त
होने पर अपि भी
+अतःएव=इसलिये यस्य मे जिस मेरे
अहम् मैं तिष्ठतः होते हुए का
अहो आश्चर्यरूप हूँ विनाशः नाश
मह्यम् मेरे लिये न अस्ति नहीं है
नमः नमस्कार है ।
भावार्थ । प्रश्न-यदि ब्रह्म को जगत का उपादान कारण मानोगे, तब वह विकारी हो जावेगा और विकारी होने से नाशी भी हो जावेगा ?
उत्तर-ब्रह्म विकारी और नाशी तब होवे, जब हम जगत् को ब्रह्म का परिणामि उपादान कारण माने, सो तो नहीं है, किन्तु जगत् को हम ब्रह्म का विवर्त मानते हैं, इस वास्ते विकारी और नाशी ब्रह्म कदापि नहीं हो सकता है।
जनकजी कहते हैं कि मैं आश्चर्य-रूप हूँ, क्योंकि सारे जगत् का उपादान कारण होने पर भी मेरा नाश कदापि नहीं होता है एवं स्वर्णादिकों के सदश विकारता भी मेरे में नहीं है । अतएव मैं अविकारी हूँ और जगत् मेरा विवर्त्त है, इसी कारण वह विवर्त्त का अधिष्ठान-रूप है । उपादान की सत्ता से कार्य की सत्ता के विषम होने का नाम विवर्त्त है।