________________
५४ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० है। चेतन से जड़ की उत्पत्ति बनतो नहीं है-ऐसी सांख्यशास्त्रवाले की शङ्का है-उसके उत्तर को कहते हैं
सांख्य-शास्त्रवाले परिणामवादी हैं और पूर्ववाली अवस्था से अवस्थान्तरता को प्राप्त होने का नाम ही परिणाम है । जैसे दूध का परिणाम दधि; मत्तिका का घट और सुवर्ण का कुण्डल है-वैसे प्रकृति का परिणाम जगत् हैऐसे सांख्य-शास्त्रवाले मानते हैं ।
नैयायिक आरम्भवादी है। अन्य वस्तु से अन्य वस्तु की उत्पत्ति का नाम आरम्भवाद है। जैसे अन्य तन्तु से अन्य पट की उत्पत्ति होती है। वैसे अन्य परमाणओं से अन्य रूप जगत की भी उत्पत्ति होती है।
वेदान्ती का तो विवर्त्तवाद है । जो एक ही वस्तू अपनी पूर्ववाली अवस्था से अन्य अवस्था करके प्रतीत होवे, उसी का नाम विवर्त्त है। जैसे रज्ज का विवर्त सर्प है, वह रज्ज ही सर्प-रूप करके प्रतीत होती है। यदि जगत ब्रह्म का परिणाम माना जावे, तब तो दोष आवे कि चेतन से जड़ कैसे उत्पन्न होता है ? और कैसे जगत् चेतन में लय हो जाता है ? ये सब दोष वेदान्ती के मत में नहीं आते हैं। क्योंकि जैसे रज्जु के अज्ञान से रज्जु सर्प-रूप प्रतीत होती है, और रज्ज के ज्ञान करने उस सर्प की निवृत्ति हो जाती है-वैसे ब्रह्म, आत्मा के स्वरूप के ज्ञान करके जगत् की निवृत्ति हो जाती है।
सांख्यवाले और नैयायिक के मत में अनेक दोष पड़ते हैं । एक तो वेद में परिणामवाद और आरम्भवाद कहीं भी नहीं लिखा है, अतएव उनका मत वेद-विरुद्ध है। दूसरे