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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
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है, वैसे सामान्य चेतन जो सर्वत्र व्यापक है, वह उस अज्ञान का विरोधी अर्थात् बाधक नहीं है, किन्तु अपनी सत्ता करके उसका साधक है, और आत्माकारवृत्त्यवच्छिन्न विशेष चेतन है, वही उस अज्ञान का बाधक अर्थात् नाशक है । यदि स्वरूप चेतन अज्ञान का विरोधी होवे, तब जड़ की सिद्धि भी न होवेगी । यदि आत्मा के प्रकाश का भी अभाव माना जावे, तब जगदान्ध्य प्रसंग हो जावेगा । इस वास्ते आत्मा के स्वरूप प्रकाश करके ही जगत् भी प्रकाशमान हो रहा है, स्वतः जगत् मिथ्या है || ८ ॥
मूलम् ।
अहो विकल्पितं विश्वमज्ञानान्मयि भासते । रूप्यं शुक्तौ फणी रज्जौ वारि सूर्यकरे यथा ॥ ९॥ पदच्छेदः ।
अहो, विकल्पितम्, अज्ञानात्, विश्वम्, मयि, भासते, रूप्यम्, शुक्तौ, फणी, रज्जौ, वारि, सूर्यकरे, यथा ॥ शब्दार्थ | अन्वयः ।
शब्दार्थ
अन्वयः ।
अहो = आश्चर्य है कि विकल्पितम् = कल्पित विश्वम् = संसार अज्ञानात् = अज्ञान से मयि = मेरे में ईदृशम् = ऐसा भासते भासता है। यथा = जैसे
शुक्तौ = शुक्ति में रूप्यम्=चाँदी
रज्जौ = रस्सी में फणी सर्प
सूर्य करे = सूर्य की किरणों में वारि=जल
भासते = भासता है ||
भावार्थ |
जनकजी कहते हैं कि जैसे शुक्ति के अज्ञान जैसे शुक्ति