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दूसरा प्रकरण।
भावार्थ । प्रश्न-आत्मा के स्वरूप का जबतक अज्ञान बना है, तबतक आत्मा के प्रकाश का भी प्रभाव ही रहता है, तब फिर आत्मा के स्वरूप के प्रकाश का अभाव होने से जगत् का भान कैसे हो सकता है ?
उत्तर-जनकजी कहते हैं कि मेरा जो प्रकाश अर्थात् नित्य-ज्ञान है, वह मेरा स्वाभाविक स्वरूप है, मैं उस प्रकाश से भिन्न नहीं है, इसी वास्ते जिस काल में मुझको विश्व प्रतीत होता है, तब आत्मा के प्रकाश से ही प्रतीत होता है।
प्रश्न-यदि स्वरूप भूतचेतन ही प्रकाशक है, तब फिर अज्ञान कैसे रह सकता है ? क्योंकि ज्ञान और अज्ञान दोनों तम और प्रकाश की तरह परस्पर विरोधी हैं।
उत्तर-दो प्रकार का चेतन है। एक सामान्य चेतन, दूसरा विशेष चेतन । विशेष चेतन अज्ञान का विरोधी है अर्थात् बाधक है । सामान्य चेतन अज्ञान का विरोधी नहीं है, किन्तु साधक है अर्थात् अज्ञान को सिद्ध करता है। जैसे अग्नि दो प्रकार की है। एक सामान्य अग्नि, दूसरी विशेष अग्नि है । सामान्य अग्नि तो सब काष्ठों में व्यापक है, परन्तु काष्ठों के स्वरूप को जलाती नहीं है, किन्तु बनाती है, क्योंकि जितने जगत् के पदार्थ हैं, वे सब भूतों के पञ्चीकरण से बने हैं। जैसे जो लकड़ी पंचतत्त्वों से बनी है, उसको सामान्य तेज अर्थात् अग्नि जो उसके भीतर है, जलाती नहीं है, पर जब दो लकड़ियों के परस्पर रगड़ से जो विशेष अग्नि-रूप तेज उसमें से उत्पन्न होता है, वह तुरंत उस लकड़ी को जला देता है, क्योंकि वह उसका विरोधी