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दूसरा प्रकरण ।
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में रजत असत् प्रतीत होता है - वैसे ही अज्ञान करके मेरे स्वप्रकाश आत्मा में असत् जगत् प्रतीत हो रहा है, यही बड़ा भारी आश्चर्य है ॥ ९ ॥
मूलम् ।
मत्तो विनिर्गतं विश्वं मय्येव लयमेष्यति । मृदि कुम्भोजले वीचिः कनके कटकं
पदच्छेदः : ।
मत्तः, विनिर्गतम्, विश्वम्, मयि, एव, लयम्, एष्यति, मृदि, कुम्भ:, जले, वीचिः, कनके, कटकम्, यथा ॥
अन्वयः ।
शब्दार्थ |
अन्वयः ।
मत्तः = मुझ विनिर्गतम् = उत्पन्न हुआ
इदम् = यह विश्वम् = संसार
मयि =मुझमें लयम् = लय को
एष्यति = प्राप्त होगा यथा=जैसे
यथा ॥ १० ॥
मृदि= मिट्टी में
कुम्भ=घड़ा जले= जल में
वाचिः=लहर कनके स्वर्ण में
कटकम् = भूषण
लय
यान्ति
शब्दार्थ |
= लय होते हैं |
भावार्थ |
जैसे घट मृत्तिका का कार्य है अर्थात् मृत्तिका से ही उत्पन्न होता है, और फिर फूटकर मृत्तिका में ही लय हो जाता है - वैसे ही जगत् भी प्रकृति का कार्य है अर्थात् प्रकृति से ही उत्पन्न होता है और प्रकृति में ही लय हो जाता है | चेतन आत्मा से न जगत् उत्पन्न होता है, और न उसमें लय होता है, क्योंकि जगत् जड़ और आत्मा चेतन