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पहला प्रकरण ।
अन्वयः।
शब्दार्थ।
मूलम् । एकं सर्वगतं व्योम बहिरन्तर्यथा घटे। नित्यं निरन्तर ब्रह्म सर्वभूतगणे तथा ॥ २० ॥
पदच्छेदः । एकम्, सर्वगतम्, व्योम बहिः अन्तः, यथा, घटे, नित्यम्, निरन्तर, ब्रह्म, सर्वभूतगणे, तथा ।।
___ शब्दार्थ । | अन्वयः। यथा जैसे
अस्ति-स्थित है सर्वगतम्-सर्वगत
तथा वैसे ही एक-एक
नित्यम्=नित्य व्योम-आकाश
निरन्तरम्=निरंतर बहिःबाहर
ब्रह्म-ब्रह्म अन्तःभीतर
सर्वभूतगणे-सब भूतों के शरीर में घटे-घट में
अस्ति-स्थित है ।
भावार्थ । जैसे सर्वगत एक ही आकाश घटपटादिकों में बाहर, भीतर और मध्य में व्यापक है, वैसे ही नित्य, अविनाशी आत्मा भी संपूर्ण भूतों के गणों में बाहर, भीतर और मध्य में व्यापक है।
"एष ते आत्मा सर्वस्यान्तर इति श्रुतेः” ।
यह तेरा ही आत्मा सबके अन्तर व्यापक है, ऐसा जानकर हे जनक ! तू सुखपूर्वक विचर ।। २० ।।
इति श्रीअष्टावक्रगीतायां प्रथम प्रकरणं समाप्तम् ।