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अष्टावक्र गीता भा० टी० स०
मैं एक ही सारे जगत् को प्रकाश करता हूँ और इस स्थूल देह का भी प्रकाशक हूँ ।
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यह देह अनात्मा है यानी जड़ होने से अप्रकाश जगत् को तरह है ।
जड़ देह और चेतन आत्मा का आध्यासिक सम्बन्ध है, अर्थात् कल्पित तादात्म्य सम्बन्ध है । सत्य और मिथ्या का वास्तविक सम्बन्ध न होने से इन दोनों का पारमार्थिक सम्बन्ध नहीं है । जैसे- शुक्ति और रजत का कल्पित तादात्म्य सम्बन्ध है, वैसे देह और आत्मा का भी कल्पित तादात्म्य सम्बन्ध है । जैसे शुक्ति की सत्ता करके रजत् भी सत्यवत् भान होतो है, वैसे आत्मा की सत्ता करके देह भी सत्यवत् भान होता है । वास्तव में देह मिथ्या है । इसी तरह आत्मा की सत्ता करके ही सारा जगत् सत्यवत् प्रतीत होता है । आत्मा से पृथक् जगत् मिथ्या है, यानी कभी हुआ नहीं है । इसी वार्त्ता को पञ्चदशीकार ने भी कहा है
अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् । आद्यं त्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ २ ॥
अर्थात् "अस्ति" है "भाति" भान होता है "प्रियम्" प्यारा है, रूप और नाम ये पाँच अंश सारे जगत् में व्याप्त करके रहते हैं और इन पाँचों में से अस्ति, भाति, प्रिय ये तीनों अंश ब्रह्म के हैं, सो तीनों अंश सारे जगत् में प्रवेश होकर स्थित हैं । नाम और रूप ये दो अंश जड़ जगत् के हैं । यदि नाम और रूप को निकाल दिया जावे, तब जगत् की कोई वस्तु भी सत्य नहीं रह सकती है । नाम और रूप
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