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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ। जैसे स्थूल दृष्टि करके तन्तुओं से विलक्षण पट प्रतीत होता है, परन्तु विचार-पूर्वक देखने से तन्तु-रूप ही पट है, तन्तुओं से भिन्न पट कोई वस्तु नहीं है-वैसे ही स्थूल दृष्टि द्वारा देखने पर ब्रह्म से विलक्षण जगत् प्रतीत होता है, परन्तु युक्ति और विचार से आत्म-रूप ही जगत् है। जैसे तन्तु अपनी सत्ता करके पट में अनुगत है, वैसे ही आत्मा भी अपनी सत्ता करके अधिष्ठान भूतरूप होकर सारे जगत् में अनुगत है ।। ५ ॥
मूलम् । यथैवेक्षुरसे क्लुप्ता तेन व्याप्तव शर्करा । तथा विश्वं मयि क्लुप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम् ॥ ६ ॥
पदच्छेदः । यथा, एव, इक्षुरसे, क्लुप्ता, तेन, व्याप्ता, एव, शर्करा, तथा, विश्वम्, मयि, क्लुप्तं, मया, व्याप्तम्, निरन्तरम् ।।
शब्दार्थ । | अन्वयः । यथा-जैसे
तथा एव-वैसे ही एव-निश्चय करके
मयि-मुझमें इक्षरसे इक्षु के रस में
क्लुप्तम् अध्यस्त हुआ क्लुप्ता=अध्यस्त हुई
विश्वम् संसार शर्करा-शक्कर
मया मुझ करके तेन-उसी करके
निरन्तरम् सदा व्याप्ता एव-व्याप्त है
व्याप्तम् व्याप्त है ॥
अन्वयः।
शब्दार्थ।