SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ अष्टावक्र-गीता भा० टी० स० भावार्थ। जैसे स्थूल दृष्टि करके तन्तुओं से विलक्षण पट प्रतीत होता है, परन्तु विचार-पूर्वक देखने से तन्तु-रूप ही पट है, तन्तुओं से भिन्न पट कोई वस्तु नहीं है-वैसे ही स्थूल दृष्टि द्वारा देखने पर ब्रह्म से विलक्षण जगत् प्रतीत होता है, परन्तु युक्ति और विचार से आत्म-रूप ही जगत् है। जैसे तन्तु अपनी सत्ता करके पट में अनुगत है, वैसे ही आत्मा भी अपनी सत्ता करके अधिष्ठान भूतरूप होकर सारे जगत् में अनुगत है ।। ५ ॥ मूलम् । यथैवेक्षुरसे क्लुप्ता तेन व्याप्तव शर्करा । तथा विश्वं मयि क्लुप्तं मया व्याप्तं निरन्तरम् ॥ ६ ॥ पदच्छेदः । यथा, एव, इक्षुरसे, क्लुप्ता, तेन, व्याप्ता, एव, शर्करा, तथा, विश्वम्, मयि, क्लुप्तं, मया, व्याप्तम्, निरन्तरम् ।। शब्दार्थ । | अन्वयः । यथा-जैसे तथा एव-वैसे ही एव-निश्चय करके मयि-मुझमें इक्षरसे इक्षु के रस में क्लुप्तम् अध्यस्त हुआ क्लुप्ता=अध्यस्त हुई विश्वम् संसार शर्करा-शक्कर मया मुझ करके तेन-उसी करके निरन्तरम् सदा व्याप्ता एव-व्याप्त है व्याप्तम् व्याप्त है ॥ अन्वयः। शब्दार्थ।
SR No.034087
Book TitleAstavakra Gita
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaibahaddur Babu Jalimsinh
PublisherTejkumar Press
Publication Year1971
Total Pages405
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy