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दूसरा प्रकरण ।
४९ भावार्थ । आत्मा करके सारा जगत् व्याप्त है, इसी में जनकजी दृष्टान्त कहते हैं___जैसे इक्षु जो गन्ना है, सो रस में अध्यस्त है, और उसी मधुर-रस करके गन्ना भी व्याप्त है, वैसे ही मेरे नित्य आनन्द-स्वरूप में यह सारा जगत् अध्यस्त है, औ मेरे नित्य आनन्द-रूप करके बाहर और भीतर से व्याप्त भी है, इस वास्ते यह विश्व भी आत्म-स्वरूप ही है ।। ६ ।।
मूलम्। आत्माऽऽज्ञानाज्जगद्धाति आत्मज्ञानानभासते । रज्ज्वज्ञानादहि ति तज्ज्ञानाद्भासते न हि ॥ ७ ॥
पदच्छेदः । आत्माऽऽज्ञानात्, जगत्, भाति, आत्मज्ञानात्, न, भासते, रज्जवाज्ञानात्, अहिः, भाति, तज्ज्ञानात्, भासते, न, हि ।। शब्दार्थ । | अन्वयः।
शब्दार्थ। आत्माऽऽज्ञानात् आत्मा के अज्ञान से
अहिः सर्प जगत्-संसार
भाति भासता है भाति-भासता है
च और आत्मज्ञानात् आत्मा के ज्ञान से न भासते नहीं भासता है
तज्ज्ञानात् उसके ज्ञान से __ यथा-जैसे
नहि नहीं रज्ज्वज्ञानात रज्जु के अज्ञान से
भासते-भासता है ।
अन्वयः।