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अष्टावक्र-गीता भा० टी० स०
भावार्थ । आत्मा के स्वरूप के अज्ञान करके जगत सत्य प्रतीत होता है और अधिष्ठान-स्वरूप आत्मा के ज्ञान करके असत् होता है । इसमें लोक-प्रसिद्ध दृष्टान्त कहते हैं
रज्जु के स्वरूप के अज्ञान से जैसे सर्प प्रतीत होता है, और रज्ज के स्वरूप के ज्ञान से उसमें सर्प प्रतीत नहीं होता है; वैसे ही आत्मा के स्वरूप के अज्ञान करके जगत् प्रतीत होता है, और आत्मा के स्वरूप के ज्ञान करके जगत् प्रतीत नहीं होता है । ७ ।।
मूलम्। प्रकाशो मे निजं रूपं नातिरिक्तोऽस्म्यहं ततः । यदा प्रकाशते विश्वं तदाऽऽहं भास एव हि ॥८॥
पदच्छेदः । प्रकाशः, मे, निजम, न, अतिरिक्तः, अस्मि, अहम, ततः, यदा, प्रकाशते, विश्वम, तदा, अहम्भासः, एव, हि ।। अन्वयः । शब्दार्थ । | अन्वयः ।
शब्दार्थ । प्रकाश:-प्रकाश
यदा-जब मे मेरा
विश्वम्-संसार निजम्-निज
प्रकाशते-प्रकाशता है रूपम्-रूप है
तदान्तब अहम्-मैं
तत्व ह ततः उससे
अहंभासः मेरे प्रकाश से अतिरिक्तः अलग
एव हिन्ही न अस्मिन्नहीं हूँ
+प्रकाशते-प्रकाशता है।