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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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सम्मतियां:
____ सङ्कलन सुन्दर हुआ है, विषय को समझाने की शैली भी मनोरम है।
-उपाध्याय श्री हस्तीमलजी म० सा० पुस्तक विशेषतानो से श्रोतप्रोत है। सग्रहरणीय, पठनीय • एवं पाठ्यक्रमानुकूल है।
___-मुनि श्री फूलचन्द्रजो 'श्रमण' पुस्तक की सामग्री बहुत उपयोगी है। सिद्धान्त का निर्वाह करते हुए विषय को सरल बना दिया गया है। समाज मे पाठावलियाँ तो कई छपी, किन्तु यह सर्वोपरि और अत्यधिक उपयोगी है। विद्यार्थियो को ही नहीं, उन्हें पढ़ाने वाले धर्माध्यापको के लिये भी समझने योग्य है ।
-रतनलालजी डोसी
मम्पादक, 'सम्यग् दर्शन' सैलाना पुस्तक मे जैन धर्म विषयक ठोस व प्रामाणिक सामग्री ऐसे सरल ढग से दी है कि दुरूह तात्विक विषय भी बोधगम्य हो गया है। जैन धर्म का ज्ञान प्राप्त करने के इच्छुक प्रौढ लोगो के लिये यह पुस्तक अत्यन्त उपयोगी है। मुनिजी ने इस पुस्तक को लिखकर एक बडी आवश्यकता की पूर्ति की है।
-रिखबराज कर्णावट
एडवोकेट, सुप्रीमकोर्ट, जोधपुर. पुस्तक को देखकर पूर्ण सन्तोष हा। लेखक को श्रद्धा और समझाने की कला बहुत सुन्दर प्रतीत होती है।
-डॉ० एन० के० गाँधी
राजकोट (सौराष्ट्र) पुस्तक देख कर अति हर्ष हमा। जैन विद्यार्थियों को। धामिक शिक्षण प्रदान करने के लिये यह सुन्दर व उपयोगी है।
- ठाकरसो करसनजो थानगढ (सौराष्ट्र)
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'पढमं ना तो दर्या 發
सुबोध जैन पाठमाला
भाग पहला
1 VIE
फोन : 560283
कन्हैया लाल लोड
2311, पावावा. जोहरी बाजार, जयपुर-302003
सम्पादक व लेखक : पं० २० श्री पारसमुनिजी मe
प्रकाशक :
धींगडमल गिड़िया
मन्त्री, श्री स्थानकवासी जैन शिक्षण शिविर समिति,
जोधपुर
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प्राप्ति-स्थान :
सीरेमल धीगड़मल
सराफा बाजार, जोधपुर.
वसन्त पञ्चमी,
विक्रम सम्वत् २०२० वीर सम्वत् २४९० सन १९६४
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लागत मूल्य :
एक रुपया पचास न०पं०
श्री हीराचन्दजी लच्छोरामजी
लक्ष्मेश्वर,
राणावास ( मारवाड )
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प्रथमावृत्ति
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द्रव्य - सहायक : दानवीर सेठ
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१०००
मुद्रक अजन्ता प्रिण्टर्स त्रिपोलिया बाजार,
जोधपुर.
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प्रस्तावना
तपस्वी १००८ श्री लालचन्द्रजी म. सा. की तपाराधना और संयम-साधना से स्था० जैन समाज परिचित है। इन मुनिराज की शान्त मुख-मुद्रा, अन्तरोन्मुख चेतना दर्शनीय और चन्दनीय है। आपके चिन्तन व अनुमव से युक्त उद्गार संग्रहणीय हैं। आपके प्राज्ञानुवर्ती तरुण तपस्वी श्री मानमुनिजी म० सा० की सरलता उनके मुख पर मुस्कराहट के रूप मे प्रकट होती रहती है। मधुर प्रवचनकार श्री कानमुनिजी म. सा०, मनोहर भाव-भगिमा व मनोवैज्ञानिक ढंग से व्याख्यान की ऐसी छटा उपस्थित करते हैं कि, श्रोतागरण मंत्र मुग्ध हो जाते हैं। पं० पारसमुनिजी म. सा० का अध्ययन, शास्त्रीय ज्ञान, तर्क-बुद्धि और कवित्व से श्रद्धाशील श्रावक-समाज परिचित है। २५ वर्ष की अल्पायु मे ही आपको ऐसी स्थिति देखकर प्रानन्द और आश्चर्य होता है।
सचमुच १००८ श्री लालचन्द्रजी म. सा. के प्राज्ञानुवर्ती मुनिमंडली को आजीवन ब्रह्मचर्य-साधना व सयम-आराधना श्रद्धावनत करने वाली है। इन मुनियों का जीवन वैभव से उतर कर संयम में क्रीडा करता हुआ आत्म-साधना मे सलग्न है।
_ 'सुबोध जैन पाठमाला' का अभिनन्दन करते हुए इसलिए आनन्द का अनुभव हो रहा है कि इसका संयोजन और लेखन पं. पारसमुनिजी म. सा० की विचक्षण दृष्टि प्रोर कुशल कर-कमलों द्वारा हमा।
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सभवतः यह पुस्तक सुयोग्य शिक्षको, जिज्ञासु बालकों श्रीर धर्म-रस-पिपासु सज्जनों के हाथ में नहीं पहुँच पाती - यदि रारणावास ( मारवाड ) मे प्रीष्मावकाश के १८ मई से १७ जून की श्रवधि मे स्था० जैन शिक्षण शिविर की योजना नहीं हो पाती और इन मुनियो के चरणो मे शिविरार्थियों को ज्ञानाराधना का पुनीत अवसर नहीं मिला होता ।
शिक्षण शिविर की योजना धार्मिक शिक्षरण के क्षेत्र में एक सुन्दर प्रयोग है । राणावास मे उक्त मुनिवृन्द के चरणो मे बैठकर विद्यार्थियों ने ज्ञानाराधन के साथ धर्माराधन के क्रियात्मक रूप मे भी एक शानदार मिसाल रखो। शिविर- काल की अल्पावधि मे १५,००० सामायिक, ३०० दयायें, ७५ उपवास, २ वेले, ३ तेले और १ पंचोले श्रादि हुए। गाँव से दूर स्टेशन के पास प्रायः शान्त जगह मे श्री कानमुनिजी म० सा० व पारसमुनिजी म० सा० को सफल धर्माध्यापन शैली ने बालको की धर्म-श्रद्धा को जागृत कर उनको ज्ञान-पिपासा को तोव्रतम बना दिया । कारण कि इन मुनिराजों के ज्ञान और क्रिया के समन्वित रूप ने शिविरार्थियों को यथार्थ सत्य का अनुभव कराया ।
हर ग्रीष्मावकाश मे ऐसे शिविर प्रायोजनों का कार्य सुचारू रूप से चले - इस हेतु शिक्षण शिविर समिति का गठन हुआ तथा समिति ने शिविरोपयोगी पाट्य-क्रम तैयार करने के लिये प० र० श्री पारसमुनिजी म० सा。 से निवेदन किया । म० श्री ने समिति के प्राग्रह को मान देकर पाठ्यक्रम तैयार करना प्रारम्भ किया । पाठ्यक्रम की प्रथम
पुस्तक 'सुवोध जैन पाठमाला' हमारे सामने है |
'सुवोध जैन पाठमाला' 'यथा नाम तथा गुरणं' के अनुसार हमारे समाज मे प्रचलित शिक्षण साहित्य से अपनी कुछ अलग विशेषताएँ रखती है :
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१. सामग्री चयन में बालको को रुचि, अवस्था और क्रम का ध्यान
रखा गया है।
२. विषय को अधिक-से-अधिक सरल रूप मे प्रस्तुत किया गया है
तथा तदनुकूल भाषा की सरलता और सुबोधता भी रखी गई है। ३. विषय को सहज-ग्राह्य बनाने के लिये प्रश्नोत्तरात्मक शैली का
प्रयोग किया गया है। प्रश्नोत्तर शैली उत्सुकता जागृत करने के साथ-साथ चित्त की एकाग्रता को बढाती है।
४. सवादात्मक शैली का उपयोग भी बालको की जिज्ञासा-वृत्ति को
जागृत करने और विषय के मर्म का उद्घाटन करने की दृष्टि से सुन्दर बन पड़ा है।
५. सामायिक के पाठो के प्रस्तुत करने का ढंग भी रोचक बन पडा
है। मूल पाठ देने के बाद उसके शब्दार्थ दिये गये हैं और तदनन्तर प्रत्येक पाठ के सम्बन्ध मे पृथक् रूप से पाठ के रूप मे प्रश्नोत्तरी दी गई है, जो मूल पाठ के शब्दार्य के स्पष्ट ज्ञान होने के बाद भावार्थ का भी सम्यक् बोध कराने में समर्थ हैं ।
६. प्रत्येक कथा की मुख्य-मुख्य घटनामो के शीर्षक कथा मे दिये गये
हैं, इससे विद्यार्थियों को सम्पूर्ण कथा-स्मरण रखने मे सुविधा होगी।
७. 'पच्चीस बोल' के उन्हीं बोलों का समावेश इस पुस्तक मे किया
गया है, जो सामायिक सार्थ के लिये अधिक उपयोगी हैं।
८. पाठ्यक्रम का संयोजन इस कुशलता से किया गया है कि धार्मिक
शिक्षण संस्थानों में भी इसका उपयोग सुगम बन सकेगा।
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६. पाठमाला के विषय-वस्तु मे तात्विक ज्ञान के साथ कथा, काव्य, इतिहास श्रादि का समावेश रोचक वन पडा है ।
१० काव्य - विभाग मे ऐसी रचनाओ का समावेश है, जो केवल शब्दाडम्बर मात्र न होकर श्रात्म-साधना और संयम की सच्ची अनुभूति कराती हैं ।
११ पाठमाला की प्रमुख विशेषता यह है कि इसका अध्ययन शुद्ध स्या० जैन मान्यताश्री की जानकारी के साथ-साथ शुद्ध श्रद्धा को दृढ़ भी करेगा ।
1
अन्त मे मे शिक्षण शिविर प्रवन्ध समिति के अध्यक्ष, दानवीर सेठ हीराचन्दजी सा० कटारिया, संयुक्त मंत्री, कर्मठ समाज सेवी श्री फूलचन्द्रजी सा० कटारिया ( राणावास), पूर्ण श्रद्धावान् विज्ञ सुश्रावक श्री धींगडमलजी गिडिया, जोधपुर, के उत्साह व परिश्रम की सराहना किये बिना नहीं रह सकता, जिन्होंने शिक्षण शिविर को प्रवृत्तियो की प्रगति और प्रचार में अपने उत्तरदायित्व का पूर्ण निर्वहन किया । प्रथम भाग के प्रकाशन में प्रेस कार्यादि के लिये तरुण सुज्ञ श्रावक श्री सपतराजजी डोसी को प्रपित सेवाएँ भी प्रशंसनीय व उल्लेखनीय हैं ।
: ४ :
लक्ष्मीलाल दक एम ए (प्री) 'साहित्यरत्न'
प्रधानाध्यापक, रेल्वे विद्यालय, जोधपुर.
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प्राक्थन
तपस्वी श्री लालचन्दजी म० आदि चार सन्तो का सम्वत् २०१७ में राणावास में चातुर्मास हुआ। उस समय वहाँ छोटेलालजी अजमेरा-प्रचारक, श्री अ०भा० साधुमार्गी जैन सस्कृति रक्षक सघ -आये थे। उन्होंने वहाँ श्री कानमुनिजो को उत्साहपूर्वक बालकों को धार्मिक शिक्षण देते हुए देख कर निवेदन किया कि हमारे स्थानकवासो संघ में आप-जैसे धार्मिक शिक्षण मे रुचि लेने वाले सन्त बहुत कम है। परन्तु यदि ग्रीष्मावकाश मै हम शिक्षण शिविर लगावे और आप वहाँ एकत्रित बालकों को धार्मिक शिक्षण दे, तो अधिक बालकों को लाभ मिले और उन बच्चों का जो अवकाश का समय प्रमाद में जाता है, वह भो सफल बन जाय ।
काल परिपक्व हुआ और राणावास में ही राणावास संघ के आग्रह और अजमेराजी आदि के प्रयास से सम्वत् २०२० में धार्मिक शिक्षण शिविर लगा। उस समय बालको के प्राथमिक तात्कालिक शिक्षण के लिए श्री कानमुनिजो ने विषय संयोजना को और उन्होंने धार्मिक वाचना दी। शिविर समाप्ति पर गठित शिविर समिति के मन्त्री श्री धींगडमलजी गिडिया, जोधपुर व सदस्य श्री सम्पतराजजी डोसी ने मुझे समिति की ओर से यह अनुरोध किया कि 'आप श्री
:
एक .
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कानमुनिजी द्वारा तात्कालिक संयोजित विषय को कुछ समय लगाकर सम्पादित कर दें, जिससे १ शिविरार्थी बालको को सम्पादित ज्ञानशिक्षण मिल सके तथा २ अल्प काल में अधिक शिक्षण मिल सके। इसके अतिरिक्त यदि शिविर में अधिक बालक उपस्थित हो, तो ३ हम भी उस सम्पादित पाठ्यक्रम के आधार पर अध्यापकों द्वारा बालको को शिक्षण दे सके। ४ यदि अन्यत्र कोई ऐसा शिविर लगाना चाहे. तो वहाँ भी उसका उपयोग हो सके। ५ हमारी स्थानकवासी जैन कान्फरेन्स ने जो 'जैन पाठावलियाँ' प्रकाशित की हैं, वह उसे हमारे सघ से विचार और आचार द्वारा बहिष्कृत श्री सन्तबालजी द्वारा लिखवानी पड़ी हैं। यद्यपि उनका हमारे विद्वान् मुनिराजों द्वारा कुछ संशोधन अवश्य हुआ है, पर मूल से विकृत पुस्तको का पूर्ण सशोधन सम्भव नहों। उनके लिए तो नए लेखन को आवश्यकता है। अतः उनके स्थान पर यदि कोई आप द्वारा उन नवलिखित पुस्तकों को पढाना चाहे, तो भी पढा सके।
उनके अत्यन्त आग्रह के कारण वर्तमान में मेरी इस सम्बन्ध में योग्यता, रुचि और समय को कमो होते हुए भी इस 'सुबोध जैन पाठमाला - भाग १' को लिखा। फिर भी इससे 'इच्छित उद्देश्यो को पूर्ति हो सके यह भावना रखते हुए तदनुकूल मुझसे जितना शक्य हो सका, उतना पुरुषार्थ किया है।
इस ग्रंथ मे जो-कुछ अच्छाइयाँ हैं. वे सब १ देव, २ गुरु और ३ धर्म को कृपा का फल है-जिन्हो ने क्रमश १. निर्ग्रन्थ प्रवचन (जैन धर्म) प्रकट किया, मुझे धर्म का साहित्य और शिक्षण
: दो :
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दिया और मेरी मति व बुद्धि कुछ निर्मल तथा विकसित को। प्रत्यक्ष मे विशेषतया श्री वर्धमान श्रमण सघ के उपाध्याय श्री १००८ श्री. हस्तीमलजी म० सा०, जिन्होंने इसका सूत्र विभाग आद्योपान्त पढ़ कर सुझाव व सम्मति दी, २ पूज्यपाद् श्री ज्ञानचन्द्रजी स० सा० की सम्प्रदाय के उपाध्यायकल्प बहुश्रुत श्री १००८ श्री समर्थसलजो म० सा० तथा १ श्री रतनलालजी डोसो जिन्हो ने इसका आद्योपान्त विहगावलोकन कर इसमे संशोधन दिये ५ तथा श्री सम्पतराजजी डोशो, जिन्होने मुख्यतः इसमे सुझाव दिये, वे भो इस ग्रन्थ की अच्छाइण के भागो हैं-एतदर्थ में उनका कृतज्ञ हूँ।
इसको जहाँ तक हो सका, जिन-वचन के अनुकूल बनाने का उपयोग रखने का प्रयास किया है। तथापि इसमे जिन वचन के विरुद्ध यदि कोई वचन लिखने में आया हो, तो तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।'
विद्वान् समालोचकों से प्रार्थना है कि वे इसमे रही त्रुटि और स्खलनाओं के प्रति मेरा व प्रकाशक का ध्यान आकर्षित करें।' जिससे इसमें भविष्य में परिमार्जन हो सके। इति शुभम् ।
शिक्षकों से:
छोटे बालकों को यह दो वर्ष में पढाना चाहिए। प्रथम वर्ष मै १ सूत्र-विभाग के १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९ १४ १५ तथा २५वाँ-ये बारह पाठ पढाने चाहिएँ । शेष सामायिक सूत्र मूल कंठस्थ करना चाहिये । २ तत्व-विभाग में पच्चीस बोल के दिये हुए बोल
. तीन :
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- समझाना और. कंठस्थ कराना चाहिए। ३ कथा विभाग में ।
१ भगवान महावीर ४ गणधर श्री इन्द्रभूति तथा ५ महासतो चन्दनबाला - ये पहली तीन कथाएँ करानी चाहिए तथा काव्य-विभाग में १. परमेष्ठि नमस्कार, २ चतुर्विशतिस्तव, ३. तीर्थकर स्तव, 8 गुरुवन्दनादि तथा-५, स्थानकजी में जाएं- ये पाँच काव्य करवाने चाहिएँ। शेष दूसरे वर्ष में पढाया जा सकता है।
स्व. शतावधानी श्री केवलमनिजी म० का शिष्य :
पारसमुनि
: चार :
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प्रकाशकीय
सम्वत् २ २० के ग्रीष्मावकाश के समय राणावास मे स्थानकवासी जैन धार्मिक शिक्षण शिविर का आयोजन हुना। शिविर-काल मे तपस्वी मुनि १००८ श्री लालचन्द्रजी म० सा०, तरुण तपस्वी श्री मांनमुनिजी म० सा०, प्रसिद्ध व्याख्याता श्री कानमुनिजी म. सा० तथा प० २० श्री पारसमुनिजी म० सा० भी वहीं विराजे। शिविर में विभिन्न क्षेत्रो से ५१ विद्यार्थी सम्मिलित हुए। श्री कानमुनिजी म० सा० वे श्री पारसमुनिजी म. सा० ने अल्प समय मे विद्यार्थियों को बहुत ही सुन्दर ढंग से हृदयस्पर्शी धार्मिक अध्ययन कराया।
शिक्षण शिविर समाप्ति-समारोह के अवसर पर प्रागन्तुक सजनों ने शिविर की सफलता को देखकर इस योजना को दृढ और स्थायी बनाने के लिये शिक्षण शिविर समिति का गठन किया। इस शिक्षण समिति ने प० पारसमुनिजी म. सा० से शिक्षण-शिविर पाठ्य-क्रम को इस रूप में तैयार करने का नम्र प्राग्रह किया कि वह शिविरोपयोगी होने के साथ-साथ शिक्षण संस्थामो मे शिक्षण के लिये भी उपयोगी हो सके।
__शिविरोपरान्त पं. पारसमुनिजी म. सा० ने हमारे निवेदन को क्रियात्मक रूप देने की कृपा की। अापके अथक परिश्रम, निरन्तर अध्यवसाय व हादिक लगन के फलस्वरूप देवगढ़ (राजस्थान) चतुर्मास मे दो पाठमालामो का निर्माण कार्य सम्पन्न हो सका। तदनन्तर प्रवास काल मे भी प्रापको साहित्य साधना चलती रही और तृतीय पाठमाला जोधपुर प्रावास-काल में लगभग सम्पूर्ण की जा सकी।
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आपने अपना मूल्य समय देकर इस पाठ्यक्रम को तैयार किया इसके लिये समिति श्रापका हार्दिक अभिनन्दन करती है और भविष्य मे नो इस प्रकार के श्रागमानुकूल माहित्य सेवा में श्रापके सहयोग की श्राशा रती है ।
'सुबोध जैन पाठमाला - प्रथम भाग' का प्रकाशन प्रापके हाथों में है । द्वितीय और तृतीय नाग का प्रकाशन भी शीघ्र ही होने जा रहा है। चतुर्थ और पश्चम भाग, तोर्नो नागों के प्रकाशन के अनन्तर भविष्य के लिये विचाराधीन रखे गये हैं ।
'सुबोध जैन पाठमाला - प्रथम भाग के लिये द्रव्य- सहायक के रूप में दानवीर सेठ श्रीमान् होराचन्दजी लच्छीरामजी मूथा, राणावास, ने जो पना सहयोग प्रदान किया, वह समान मे शुद्ध धार्मिक शिक्षरप के प्रचार की उनकी हार्दिक रुचि को प्रगट करता है और समाज के धनी-मानी सज्जनों को इस ओर प्रेरित होने को श्रादर्श परम्परा उपस्थित करता है । शिक्षण शिविर समिति उनके सहयोग की साभार नोंध लेती है और पनी कृतज्ञता व्यक्त करती है ।
हीराचन्द कटारिया, राणावास
अध्यक्ष,
श्री स्थानकवासी जैन शिक्षण शिविर समिति, जोधपुर.
धींगड़मल गिड़िया जोधपुर
मन्त्री
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दानवीर द्रव्य-सहायक बन्धुओं का संक्षिप्त परिचयः
श्रीमान् सेठ साहब श्री धूलचन्दजी, हीराचन्दजी, दलीचन्दजी मूथा मारवाड निवासी श्री लच्छीरामजी के पुत्ररत्न है। आपकी जन्मभूमि राणावास ग्राम है । आपने अपने बचपन मे उस समय की रीति-रिवाज के अनुसार सामान्य शिक्षा प्राप्त की। बचपन मे घर की आर्थिक स्थिति सामान्य थी, इसलिये आप दूसरे प्रान्तो मे व्यापार करने के लिये गये। 'व्यापारे वसति लक्ष्मी-व्यापार मे लक्ष्मी का वास है'-इस सिद्धान्त के अनुसार आपका काम-काज पनपने लगा। भाग्य ने अपका साथ दिया और धीरे-धीरे व्यापार चमकने लगा और
आप भी श्रीमन्त लोगो मे गिने जाने लगे । नीतिशास्त्र मे लिखा है कि 'योग्य व्यक्ति को धन प्राप्त होता है। धन से धर्म-कार्य करता है, तब उसे सुख की प्राप्ति होती है।
आपके हाथ मे लक्ष्मो आई और आपने समय-समय पर चचल लक्ष्मी का सदुपयोग शुरू किया। "धन का सबसे अच्छा उपयोग है सत् पात्र मे दान देना ।" आपने राणावास मे दवाखाने के सामने ही एक धर्मशाला अपने नाम से बनवाने का कार्य चालू कर रखा है तथा गांव मे एक कुआ बनवाने हेतु आपने १०,०००) दस हजार रुपये दिये। श्री वर्द्धमान स्था० जैन शिक्षण सघ मे भी आपकी आर्थिक सेवा तथा शुभ सम्पत्ति प्राप्त होती रही है।
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श्रापका व्यापार लखमेश्वर है, जो गा० हीराचन्दजी लन्छीरामजी के नाम की तीन फर्म है। इनके सुपुत्र श्री ताराचन्दजी उनके सम्पूर्ण कार्यो के उत्तराधिकारी हैं, जो सब कार्य अपने पूज्य पिताजी श्री की इच्छानुसार चला रहे है। आप बड़े व्यवसायी ही नहीं, बल्कि धर्म-प्रेमी भी हैं एव प्रागा है कि आगे भी ज्ञान-दान मे, समाज-सेवा में अपने द्रव्य का सदुपयोग करते रहेगे तथा पूर्वजो की कीर्ति को अमर बनाने मे विशेष रूप से अग्रसर रहेगे--ऐसी ही वीर प्रभु से हमारी हार्दिक प्रार्थना है।
निवेदक,
सम्पत जेन रडावास गृहपति, श्री वर्द्धमान स्था० जन छात्रालय, राणावास (मारवाड़)
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८ सम्यक्त्व सूत्र ६ साधु-दर्शन
• १० करेमि मन्ते
• ११ करेमि भते प्रश्नोत्तरी
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१. नमस्कार मन्त्र
२ नमस्कार मंन्त्र प्रश्नोत्तरी ३ तिषखुत्तो वन्दना पाठ
४ तिक्खुतो प्रश्नोतरी
५. नमस्कार क्रम ६. जंन धर्म
७ तीर्थंकर और तीर्थ
•
. १२. एयस्स नवमस्स सामायिक पारने का पाठ • १३
एयस्स नवमस्स' प्रश्नोत्तरी
१४. सामायिक के उपकररण १५ विवेक
१६. इच्छाकारेरणं श्रालोचना का पाठ
• १७. 'इच्छाकारेणं' प्रश्नोत्तरी
.
१८ तस्सउत्तरी : उत्तरीकरण का पाठ
१६. तस्सउत्तरी प्रश्नोत्तरी
२०. लोगस्स : चतुर्विंशतिस्तव का पाठ
• २१ लोगस्स प्रश्नोत्तरी
विषय-सूची
सूत्र - विभाग
•
प्रत्याख्यान का पाठ
•
२२. नमोत्थुरण : शक्रस्तव का पाठ
२३. नमोत्थुरण प्रश्नोत्तरी
२४. सामायिक के ३२ दोष
२५. 'सामायिक' प्रश्नोतरी
2240
19.
2800
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...
8000
....
....
...
444
9000
****
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1000
...
....
9.36
१०००
450.
1
१
२
५
६
१०
१३
१७
२१
२५
३२
३३
४०
४३
४५
५३
६५
६७
७२
७५
७५
८१
८६
६०
६२
६५
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१०० १३२ १४७ १४६ १५०
१५३ १९२ २०४ २१६
२२६
२४१
तत्त्व-विभाग १ पञ्चीस बोल के स्तोक (थोकडे) के कुछ बोल सार्थ ... २. सम्यक्त्व (समकित) के ६७ बोल, सार्थ ३. श्रावकजी के २१ गुरण ४ श्रावकजी के चार विश्राम ५. चार गति के कारण
कथा-विभाग १. भगवान् महावीर २ गणधर श्री इन्द्रभूतिजी (श्री गौतमस्वामीजी) ३. महासती श्री चन्दनबालाजी ४. श्री मेघ कुमार (मुनि) '५ श्री अर्जुनमाली (अनगार) J६. श्री कामदेव श्रावक ७. श्री सुलसा श्राविका 5. श्री सुबाहु कुमार (मुनि) १६. छोटी बहू रोहिणी
काव्य-विभाग १. श्री पंचपरमेष्ठि-स्तवन २ श्री चौवीसी-स्तवन ३ तीर्थकर स्तव ४ अर्हन स्तव '५ महावीर नमन ६ गुरु वन्दनादि ७. वीर व उनके शिष्यो की स्मृति ८. जैनधर्म के १४ गुण ६. पालो हद प्राचार १०. स्थानकजी मे जाएं ११. सामायिक कीजिये
२५० २६० २६६
२७३ २७४ २७५
२७५
२७६
२७७ २७८ २७६ २८० २८१
२८२
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:: रणमो गाणस्स :
पाठ १ पहला
नमस्कार मन्त्र
णमो अरिहंतारणं, णमो सिद्धारणं, रणमो पायरियारणं । गमो उवज्झायारणं, एमो लोए सव्व साहूरणं ॥१॥ एसो पंच नमोकारो, सव्व-पाव-प्परणासरणो। मंगलारणं च सव्वेसि, पढमं हवइ मंगलं ॥२॥
शब्दार्थ :
पाँच पदों को नमस्कार १. रामो-नमस्कार हो । अरिहंतारणं अरिहन्तो को । २ गमो नमस्कार हो। सिद्धार-सिद्धो को। ३ गमो= नमस्कार हो। प्रायरियारण-आचार्यों को। ४. रामोनमस्कार हो। उवज्झायारणं- उपाध्यायो को। ५ एमोनमस्कार हो। लोए-लोक में रहे हुए। सव्व =सब । साहूरणं साधुनो को।
नमस्कार फल एसो=यह। पंच-पाँच। णमोकारो-नमस्कार। सव्व%= सब। पावप्परगासरगो-पापो का नाश करने वाला है। च-और।
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जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
क्यो? सव्वेसि-सव । मंगलारणं-मगलो मे । (सर्वश्रेष्ठ)। मगलं-मगल। हवइ-है।
पढम-प्रथम
पाठ २ दूसरा
.. नमस्कार मन्त्र प्रश्नोत्तरी
प्र० · नमस्कार किसे कहते है ? उ० दोनो हाथो को जोड कर ललाट पर तगाते हुए मस्तक
भुकाना। प्र० . मन्त्र किसे कहते हैं ? उ० · जिसमे अक्षर थोडे हो और भाव बहुत हों। प्र० · अरिहन्त किसे कहते हैं ? उ:: (अ) जिन्होने-१. ज्ञानावरणीय, २. दर्शनावरणीय,
३.मोहनीय और ४. अन्तराय-इन घाति चारो कर्मो को क्षय करके अज्ञान, मोह, राग, द्वेष, अन्तराय आदि आत्मा के 'अरि' अर्थात् गत्रुनो का 'हत' अर्थात नाश किया हो तथा (आ) जो जैन धर्म को प्रकट करते हो,
उन्हें अरिहन्त कहते हैं। प्र. • सिद्ध किसे कहते है ? उ०: १. जिन्होने पाठो कर्मो का क्षय करके अपना आत्म
कल्याण साध लिया हो, तथा २. जो मोक्ष मे पधार गये हो, उन्हे सिद्ध कहते हैं।
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पाठ २-नमस्कार मन्त्र प्रश्नोत्तरी
प्र. आचार्य किसे कहते हैं ? उ० · चतुर्विध सघ के नायक साधुजी, जो स्वय पॉच आचार
पालते हैं तथा साधु सघ मे प्राचार पलवाते है। प्र० : उपाध्याय किसे कहते हैं ? उ०. शास्त्रो के जानकार अग्रगण्य साधुजी, जो स्वय अध्ययन
करते है तथा साधु-साध्वियो को अध्ययन कराते है। प्र० . साधु किसे कहते है ? उ०: १. जो पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति आदि का
पालन करते हो। २. सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चरित्र और सम्यक्तप द्वारा आत्म-कल्याण साधते हो। नमस्कार मत्र मे कितनो को नमस्कार किया है ? पाँच पदो को नमस्कार किया है।
पद किसे कहते है ? उ० योग्यता से मिले हुए या दिए हुए (पूज्य) स्थान को पद
कहते हैं। प्र० • नमस्कार मत्र से क्या लाभ है ? उ० · सब पापो का नाश होता है। - प्र०' नमस्कार मत्र से सब पापो का नाश क्यो होता है ? दुमका 3rd उ०: क्योकि नमस्कार मंत्र सर्वश्रेष्ठ मगल है। प्र० मगल किसे कहते हैं ? उ० · जिससे पापो का नाश हो। प्र० ' क्या नमस्कार मत्र के स्मरण से उसी समय सभी पापो
का नाश हो जाता है ? उ० नही। १ नमस्कार से पहले पाँच पदो के प्रति
विनय जगता है। २ पीछे वैसे ही बनने की भावना
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उ०
४] जन सुवोध पाठमाला-भाग १
जगती है। ३. पीछे हम वैसे ही बनते हैं। १. विनय से थोडे पापो का नाश होता है। २ वैमे । ही बनने की भावना से अधिक पापो का नाश होता है। ३. वैसे ही बनते-बनते और सिद्ध वनने के पहले सभी
पापो का नाश हो जाता है। प्र०, नमस्कार मत्र का स्मरण कौन करता है ? उ०: जो नमस्कार मत्र स्मरण का लाभ जानता है तथा
नमस्कार मंत्र पर श्रद्धा रखता है, वह नमस्कार मत्र
का स्मरण करता है। प्र० - नमस्कार मत्र का स्मरण कहाँ करना चाहिए ?
नमस्कार मत्र का स्मरण कही भी किया जा सकता है। कम-से-कम स्मरण करने वाले को प्राय एकान्त स्थान मे या धर्म के स्थान पौपधशाला आदि मे या मुनि-महासतियों के स्थान मे या स्वधर्मी वन्धु-बहिनो के साथ वाले स्थान
मे नमस्कार मत्र का स्मरण करना चाहिये। प्र०: नमस्कार मत्र का स्मरण कब करना चाहिए ? उ०: जव भी समय मिले। कम-से-कम नित्य प्रातःकाल
उठते समय और रात्रि को सोते समय नमस्कार मत्र का स्मरण अवश्य करना चाहिए। नये कार्य के प्रारम्भ के
समय भी अवश्य स्मरण करना चाहिए। प्र० : नमस्कार मंत्र का स्मरण किन भावो से करना चाहिए ? उ०: १ आप (अरिहतादि) पाँचो नमस्कार करने योग्य हैं।
२. मैं भी आप जैसा कव वनूंगा?
३. मेरे सभी पापों का नाश हो। प्र०: नमस्कार मत्र का स्मरण कितनी वार करना चाहिए ?
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पाठ ३-तिक्खुत्तो : वन्दना पाठ [ ५ उ०: एक, दो, तीन, चार, पाँच आदि जितनी बार बन सके,
उतनी बार करना चाहिए। प्रतिदिन माला के द्वारा १०८ बार या अनुपूर्वी के द्वारा १२० बार नमस्कार
मत्र स्मरण का नियम ग्रहण करना चाहिए। प्र० : क्या नमस्कार मत्र से बढकर कोई मगल है ? उ० · नही। इन पाँच पदो को नमस्कार रूप मगल सबसे
बढ़कर मगल है। प्र०: इस नमस्कार मत्र का दूसरा नाम क्या है ? उ०: परमेष्ठी मत्र। प्र०: परमेष्ठी किसे कहते हैं ? उ: जिन्हे हम धार्मिक दृष्टि से सबसे अधिक चाहते हो और
हम जिनके समान बनना चाहते हो।
पाठ ३ तोसरा
तिक्खुत्तो : वन्दना पाठ
तिक्खुत्तो आयाहिरणं पयाहिरणं करेमि। वंदामि नमंसामि सक्कारेमि सम्माणेमि, कल्लारणं मंगलं
देवयं चेइयं पज्जुवासामि । भत्थएरण वदामि । शब्दार्थ : तिक्खुत्तो-तीन बार। प्रायाहिरणं-दक्षिण अोर से (सीधी ओर से)। पयाहिरणं प्रदक्षिणा। करेमि= करता हूँ।
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६] जैन सुबोव पाठमाला--भाग १ वन्दामि-वन्दना-स्तुति करता हैं। नमसामि नमस्कार करता हूँ। सकारेमि= सत्कार करता हूँ। सम्मारणेमि = सम्मान करता हूँ। कल्लारणं = (आप) कल्याण रूप है। मगलं मगल रूप हैं। देवयं देव रूप है। चेइय-ज्ञान रूप है। पज्जुवासामि= पर्युपासना करता हूँ। मत्थएण-मस्तक से । वन्दामि-वन्दना करता हूँ।
पाठ ४ चौथा तिक्खुत्तो प्रश्नोत्तरी
प्र० • नमस्कार की विशेप विधि क्या है ? उ.. पाँचो अङ्ग झुकाकर नमना। प्र०. पाँच अङ्ग कौन-कौनसे ? ३०: दो घुटने, दो हाथ और एक मस्तक । प्र० : पाँच अङ्ग कैसे झुकाना चाहिए ? उ०: पहले तीन वार प्रदक्षिणा करना चाहिए। पीछे दोनो
घुटनो को भूमि पर झुकाने के लिए दोना हाथो को भूमि पर रखना चाहिए। पीछे दोनो घुटने भूमि पर टिकाना चाहिए। पीछे दोनो हाथ जोडकर ललाट पर लगाते हुए स्तुति आदि करना चाहिए। पीछे जुडे हुए दोनो हाथो सहित मस्तक को भूमि तक झुकाना चाहिए। इस प्रकार पाँचो अङ्ग झुकाना चाहिए।
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पाठ ४-तिक्खुत्तो प्रश्नोत्तरी
प्र. प्रदक्षिणा के कुछ दृष्टान्त दीजिए। उ० १ मन्दिरो मे मूत्ति-पूजा के समय जैसी आरती उतारी
जाती है. इस प्रकार प्रदक्षिणा देनी चाहिए। २ तोल को बताने वाले यन्त्रो के काँटे या गति को बताने वाले (वाहनो मे लगे) यन्त्रो के कॉटे जिस प्रकार घूमते हैं, वैसी प्रदक्षिणा देनी चाहिए। ३ चक्रो मे गोलाकृति वाक्य जैसे लिखे जाते है, वैसी प्रदक्षिणा देनी चाहिए।
कोई-कोई इससे ठीक उल्टी प्रदक्षिणा मानते है। __ प्रदक्षिणा किसे कहते हैं ? उ० पहले दोनो हाथो को गले के पास जोड़ना। फिर उन्हे
वन्दनीय के दाये और अपने बाये कानो की ओर ऊपर ले जाना। पश्चात् शिर पर ले जाना। पश्चात् वन्दनीय के बाये और अपने दायें कानो की ओर नीचे लाना। पश्चात् उन्हे गले तक ले आना। इस प्रकार जुडे हाथो को चक्र के आकार गोल आवर्तन देकर (धुमाकर) मस्तक पर स्थापन करना और जुडे हाथो सहित मस्तक को कुछ झुकाना। प्रदक्षिणा क्यो की जाती है ? जिन्हे हम नमस्कार करते हैं, वे हमारे केन्द्र बने और हमारी प्रात्मा उनकी आज्ञा की परिधि मे रहे- यह
श्रद्धा और भावना प्रकट करने के लिए। प्रा. प्रदक्षिणा तोन बार क्यो की जाती है ? उ० १ अपनी पहली बताई हुई श्रद्धा और भावना की
दृढता प्रकट करने के लिए। २ वन्दनीय मे रहे हुए जान, दर्शन, चारित्र इन तीनो गुणो को वन्दन करने के लिए।
प्र०
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८] जन सुबोध पाठमाला--भाग १ प्र० : वन्दना का अर्थ स्तुति है या नमस्कार ? उ०: वन्दना का प्रसिद्ध अर्थ नमस्कार है, परन्तु यहाँ और
कही-कही वन्दना का अर्थ स्तुति भी होता है। प्र० : सत्कार किसे कहते है ? उ०: (क) अरिहंतादि की स्तुति करना, (ख) उनका
स्वागत करना, (ग) उन्हे पाहार, वस्त्र, पात्र आदि देना। प्र० : सन्मान किसे कहते हैं ? उ०: (क) अरिहतादि को अपने से बडा मानना, (ख) उन्हे
नमस्कार करना, (ग) उनसे अपना आसन नीचा
रखकर अपने से उन्हे ऊँचा स्थान देना। प्र० : तिवखुत्तो की पाटी मे सत्कार-सन्मान कैसे किया गया ? उ०: आप कल्याणरूप, मगलरूप, देवरूप और ज्ञानवान हैं---
यह कहकर स्तुति करते हुए सत्कार किया गया है
तथा पचांग नमस्कार करके सन्मान किया गया है। प्र० : कल्याण और मगल किसे कहते है ? उ०: पुण्य मिलना या सद्गुण प्रकट होना कल्याण है तथा
पाप खपना या दुर्गुण नष्ट होना मगल है। प्र० क्या अरिहत प्रादि भी देवता है ? उ०: हाँ। जैसे प्राणियो मे शरीर आदि की अपेक्षा देवता
वढ़कर है, वैसे ही अरिहत यादि धर्म की अपेक्षा वढकर
है, इसलिए वे धार्मिक देवता हैं। प्र० · पर्युपासना किसे कहते हैं ? उ० . (क) नम्र पासन से हाथ जोडकर अरिहतादि के मुंह के
सामने सुनने की इच्छा सहित वैठना, कायिक पर्यपासना है। (ख) अरिहतादि जो उपदेश करे, उसे सत्य कहना और सत्य मानना, वाचिक पर्युपासना है।
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गठ ४–तिक्खुत्तो प्रश्नोत्तरी [ (ग) उपदेश के प्रति अनुराग रखना और उसे पालने की भावना बनाना मानसिक पर्युपासना है।
वन्दना कहाँ करनी चाहिए? उ० १ यदि अरिहतादि अपने नगर, गाँव आदि मे बिराजे हो,
तो उनकी सेवा मे पहुँचकर वन्दना करने से महा फल होता है। यदि बहुत दूर हो, तो उत्तर या पूर्व दिशा मे दोनो दिशा के बीच ईशानकोण मे मुंह करके तथा अपने मन मे उन्हे अपने सामने कल्पना करके वन्दना करना चाहिए। २. सेवा मे साढे तीन हाथ लगभग दूर रहकर वन्दना करना चाहिए, जिससे अपने द्वारा उनकी आशातना
न हो। प्र० : वन्दना कब करना चाहिए ? उ० . १. नित्य प्रात काल, सायकाल, सेवा मे पहुँचते, सेवा से
लौटते, व्याख्यान सुनने के पहले व पीछे, ज्ञान ग्रहण करने के पहले व पीछे तथा प्रतिक्रमण के पहले व पीछे प्राज्ञादि लेते समय वन्दना करना चाहिए। २. जो हमसे बडे हो, उनके वन्दना कर लेने के पश्चात् अपना अवसर आने पर वन्दना करना चाहिए अथवा अधिक संख्या मे होने पर आज्ञा के अनुसार सब साथ मे मिलकर एक स्वर और एक समय मे वन्दना करना
चाहिए। प्र० · वन्दना कितनी बार करनी चाहिए ? उ० : तीन बार करनी चाहिए। १०८ बार भी की जा
सकती है। भावना की अपेक्षा १००८ बार भी की जा सकती है।
.
K
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जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
१० ]
प्र० : वन्दना से क्या लाभ हैं ?
उ० :
१. ग्ररिहतादि के दर्शन होते है । २ जीवन मे विनय आता है । ३. ज्ञानादि शीघ्र प्राप्त होते हैं । ४. धर्मकार्यो मे स्फूर्ति रहती है । ५. पापो का नाग और पुण्य का लाभ होता है । ६. दुर्गुण नष्ट होते है और सद्गुरण खिलते हैं । ७. एक दिन हम भी वन्दनीय वनते हैं ।
पाठ ५ पाँचवाँ
नमस्कार क्रम
सुमति और विमल दोनो सगे वडे-छोटे भाई थे । उनमे अच्छा प्रेम था । दोनो बुद्धिमान थे । रात्रि मे सोने का समय हुआ । नमस्कार मंत्र गिनने से पहले दोनो मे चर्चा चल पडी । विमल : हमें पहले सिद्धो को नमस्कार करना चाहिए, क्योकि वे मोक्ष मे चले गये है ।
सुमति : नही, भैया ! ग्ररिहतो ने धर्म को प्रकट किया है, इसलिए वे हमारे लिए सिद्धो से अधिक उपकारी है । इसके अतिरिक्त सिद्ध हमे दिखाई भी नही देते, उनकी पहिचान भी रिहत ही कराते हैं । ग्रत अरिहतो को ही पहले नमस्कार करना चाहिए ।
विमल : यदि तुम्हारा कहना उचित है, तो अरिहंत और सिद्धो से भी प्राचार्य आदि को पहले नमस्कार
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पाठ ५-नमस्कार कम करना चाहिए, क्योकि आज वे हमारे लिए अरिहतो.
और सिद्धो से भी विशेष उपकारी हैं। परन्तु दोनों को एक-दूसरे की बात नही जंची। उन्होने दूसरे दिन अपने गांव मे पधारे उपाध्यायश्री से निर्णय करने का निश्चय किया। पीछे जैसा नमस्कार मत्र का पाठ था, वैसा ही स्मरण कर दोनो सो गये।
दूसरे दिन उठकर नमस्कार मंत्र का स्मरण किया। फिर उपाध्यायश्री के दर्शन के लिए गये। तिक्खुत्तो के पाठ से तीन बार वन्दन किया। फिर दोनो पर्युपासना करने लगे। सुमति ने पूछा~मत्थएण वदामि। नमस्कार किनको पहले करना चाहिए?
उपाध्यायश्री ने दोनो के मन की बात ताड ली। उन्होने समझाया-देखो, पाँच पदो मे पहले दो पद देवों के हैं और पिछले तीन पद गुरु के हैं।
देव बडे होते हैं और गुरु छोटे होते हैं, अतः देवो को पहले नमस्कार करना चाहिए और गुरुप्रो को पीछे नमस्कार करना चाहिए। इसीलिए नमस्कार मत्र में पहले दोनो देवो को और पीछे तीनों गुरुयो को नमस्कार किया गया है।
देवों में यह देखा जाता है कि जो देव हमारे विशेष उपकारी हों, उन्हें पहले वन्दना की जाय। अरिहत सिद्धो से विशेप उपकारी हैं, अत नमस्कार मत्र में उनको पहले नमस्कार किया गया है और सिद्धो को पीछे नमस्कार किया गया है ।
देवों के समान गुरुयो में भी जो अधिक उपकारी हों, उन्हे पहले नमस्कार करना चाहिए। सबकी दृष्टि में सामान्य साधुओ से उपाध्याय अधिक उपकारी हैं, क्योकि वे पढाते हैं।
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१२ ] जैन सुबोध पाठमाल-भाग १ उपाध्याय से भी प्राचार्य अधिक उपकारी हैं, क्योंकि वे प्राचार पलवाते है। वे सङ्घ के नायक भी होते है। अतः गुरुयो मे सबसे पहले आचार्यों को, पीछे उपाध्यायों को, अन्त मे सव साधुनो को नमस्कार करना चाहिए।' सुमति : क्या सिद्धो को सदा ही अरिहतों से पीछे ही नमस्कार
करना चाहिए ? उपा० : नहीं। आगे तुम नमस्कार मत्र के समान एक
नमोत्थुरा का पाठ सीखोगे, उसको दो वार बोला जाता है। वहाँ सिद्धों को पहले नमोत्युग से पहले नमस्कार किया जाता है और अरिहतो को दूसरे नमोत्थुरा से पीछे नमस्कार किया जाता है, जिससे यह जानकारी भी हो जाय कि उपकार-दृष्टि से अरिहत
बडे हैं, परन्तु गुण की दृष्टि से सिद्ध ही बड़े हैं। विमल : देव बडे क्यो और गुरु छोटे क्यो ? उपा० : १. देवो ने आत्म-शत्रुयो को जोत लिया है, पर
गुरुयो को जीतना वाकी है। २. देवो मे केवलज्ञान (सम्पूर्ण ज्ञान) आदि प्रकट हो चुके है, पर गुरुयो मे प्रकट होना बाकी है। ३. अरिहतो के उपदेश के कारण ही आज गुरु हैं। यदि अरिहत उपदेश न देते, तो आज हमे गुरु ही नहीं मिलते। ४. गुरु भी देवो को नमस्कार करते हैं और ५ हपे गुरु से
देवो को पहले नमस्कार करना सिखाते है। सुमति : क्या देव से गुरु को सदा ही पोछे नमस्कार किया
जाता है ? उपा० : जो केवल गुरुपद पर ही हो, उन्हे सदा देव से
पीछे ही नमस्कार किया जाता है। परन्तु जो देवपद
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+ - पाठ ६-जैन धर्म
१३ पर भी हो और गुरुपद पर भी हो, उन्हे नमस्कार मन्त्र मे देव से पहले नमस्कार किया जाता है.1, अरिहत देवपद पर तो है ही, उनके अपने हाथ से दीक्षित शिष्यो के लिए वे गुरुपद पर भी है। इस प्रकार दोनों पद वाले अरिहतो को नमस्कार मन्त्र मे सिद्धो
से पहले नमस्कार किया जाता है.। विमल : क्या अरिहत और सिद्ध दोनो एक स्थान पर खड़े
मिल सकते हैं ? उपा० : नही। क्योकि अरिहत इस लोक मे रहते है और
सिद्ध मोक्ष मे पधारे हुए होते है।
अपने प्रश्नो का समाधान हो जाने पर दोनो भाई उपाध्यायश्री को वदनादि करके अपने घर लौट गये ।
पा० ६ छठा जैन धर्म
धर्मनाथ और शान्तिनाय दोनो मित्र-विद्यार्थी थे। दोनो को नमस्कार मत्र और तिक्खुत्तो आता था। वे दोनो जीवअजीव आदि भी जानने लगे थे। एक बार नगर मे आचार्यश्री पधारे। उन्होने उठते ही नमस्कार मत्र का स्मरण किया। प्रातःकाल होने पर प्राचार्यश्री के दर्शन के लिए गये। तिक्खुत्तो के पाठ से वन्दन किया। पीछे पर्युपासना, करते हुए प्रश्न पूछने लगे।
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१४ ]
जैन सुबोध पाठमाला - भाग १
प्र० : भन्ते । ( आचार्य श्री को सम्बोधन ) नमस्कार मंत्र तथा जीव-जीव आदि पर श्रद्धा रखने वाला क्या कहलाता है ?
जैन ।
उ० :
प्र० : जैन किसे कहते है ?
उ० : जो जिन भगवान द्वारा बताये हुए धर्म पर श्रद्धा रखता हो, पालन करता हो ।
प्र० : 'जिन' किन्हे कहते हैं ?
उ० : अज्ञान, निद्रा, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, अन्तराय - ये हमारी आत्मा के 'अरि' = शत्रु है | इन्हे जिन्होंने 'हन्त' = नष्ट कर दिये हैं, वे अहित कहलाते हैं । आत्मा के शत्रु पर विजय पाने के कारण अरिहंत को जिन कहा जाता है ।
प्र० :
धर्म किसे कहते है
उ० : जो जीवो को दुर्गति मे पडते हुए बचावे तथा सुगति मे ले जावे, उसे धर्म कहते है ।
प्र०. धर्म क्या है ?
उ० : १. सम्यग् ज्ञान, २ सम्यग् दर्शन, ३. सम्यक् चारित्र तथा ४ सम्यक् तप ।
प्र० : ज्ञान किसे कहते हैं ?
उ० : भगवान् द्वारा बनाये हुए जीव-ग्रजीव यादि नव तत्वो
का ज्ञान करना ।
प्र० :
उ०
.
प्र० :
उ०
?
दर्शन किसे कहते है
अरिहत द्वारा बताये हुए तत्वो पर श्रद्धा रखना ।
?
चारित्र किसे कहते है ?
महाव्रत या
व्रतादि का पालन करना ।
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पाठ ६-~-जैन धर्म
[ १५ प्र० . तप किसे कहते हैं ? उ०. उपवास आदि करके काया आदि को तपाना तथा
प्रायश्चित आदि करके मन आदि को तपाना। प्र० • जैन कितने प्रकार के होते है ? उ० . तीन प्रकार के होते हैं। १. श्रद्धा रखने वाले, २ श्रद्धा
के साथ थोडा चारित्र (अणुव्रतादि) पालने वाले, ३. श्रद्धा
के साथ पूरा चारित्र (पाँचो महाव्रत) पालने वाले। प्र०: इनके नाम क्या हैं ? उ०. पहले और दूसरे प्रकार के जैन, श्रावक और श्राविका
कहलाते हैं। तीसरे प्रकार के जैन, साधु और साध्वी
कहलाते हैं। प्र०. तो क्या हम भी श्रावक हैं ? उ० : हाँ। प्र०. श्रावक, श्राविका और साधु, साध्वी आपस मे क्या
लगते है ? उ० : स्वधर्मी। प्र० : स्वधर्मी किसे कहते हैं ? उ० . जो हमारे जैन धर्म पर श्रद्धा रखता हो, जैन धर्म का
पालन करता हो। प्र० . जैन धर्म से इस लोक मे क्या लाभ हैं ? उ० : १ ज्ञान से हमारी बुद्धि विकसित होती है। २. श्रद्धा
से हम पर असत्य का चक्र नहीं चलता। ३ अहिंसा से वर-विरोध शात होता है, मंत्री बढती है, समय पर रक्षक मिलते हैं। सत्य से विश्वास बढ़ता है, प्रामाणिकता बढतो है। अचौर्य और ब्रह्मचर्य से सब स्थानो मे
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१६ ]
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
प्रवेश मिलता है । कोई सन्देह नही करता । से शरीर स्वस्थ और वलवान रहता है।
प्र० : उ० :
ब्रह्मचर्य अपरिग्रह से
तन-मन को अधिक विश्राम मिलता है । ४. बाहरी तप
से रोग नष्ट होते है । शरीर निरोग रहता है । भीतरी
し
लोग हमारा प्रादर करते है । हमे निमन्त्रण देते हैइत्यादि जैन धर्म से इस लोक मे कई लाभ है ।
До
जैन धर्म से परलोक मे क्या लाभ है ?
उ० . १ ज्ञान से समझने की शक्तिं, स्मरणशक्ति, तर्कशक्ति, तेज मिलती है । २. श्रद्धा से देवगति, मनुष्य गति मिलती है । ग्रार्यक्षेत्र मिलता है । अच्छा कुल मिलता है । ३. ग्रहिंसा से दीर्घ श्रायुप्य मिलता है, निरोग काया मिलती है । सत्य से मधुर कठ और प्रिय वाणी मिलती है । अचौर्य से चोर का वश नही चलता । ब्रह्मचर्य से पाँचो इन्द्रियाँ मिलती है । इन्द्रियाँ सतेज रहती है । अपरिग्रह से धनवान कुल में जन्म होना है । कही पर भी सम्पत्ति का विनाश नही होता । ४ तप से किसी प्रकार दु.ख या शोक नही होता । एक दिन मोक्ष मिलता है ।
जैन धर्म से तात्कालिक लाभ क्या हैं ?
१ ज्ञान से जीव प्रजीवादि तत्वो का ज्ञान होता है । २. दर्शन से ( अरिहंत की वारणी पर) जीव-ग्रजीवादि तत्वो पर श्रद्धा होती है । ३ चारित्र से कर्म बँधते हुए रुकते हैं । तप से पुराने कर्म क्षय होते है ।
अपने प्रश्नो का समाधान हो जाने पर दोनो मित्र आचार्य श्री को वंदनादि करके अपने घर लौट गये ।
1
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[ १७
पाठ ७-तीर्थकर और तीर्थ
पाठ ७ सातवाँ
तीर्थकर और तीर्थ
जिनदास एक भला शिक्षार्थी था। उसकी स्मरण शक्ति तेज थी। वह कक्षा मे छात्रो से व्यर्थ बातचीत नही करता था । शिक्षक जो सिखाते, उसे वह ध्यान से सुनता और मन लगाकर कठस्थ करता।
वह जैन पाठशाला से घर लौटा। उसकी माँ उसे बहुत चाहती थी, क्योकि उसमे शिक्षार्थी के गुण थे। माता ने उसे दूध पिलाने के पश्चात् पूछा .
वेटा, जिनदास ! कहो, आज क्या सीखे ? पुत्र आज मैं कई नई बाते सीख कर आया हूँ। आज
श्रावकजी ने पहले हमे अरिहन्तदेव का एक नया नाम
वताया-'तीर्थंकर' । माँ : वेटा! तीर्थंकर किसे कहते है ? सुत्र : माँ! जो तिराता है, उसे तीर्थ कहते हैं।
अरिहतो के प्रवचन (धर्म, उपदेश) हमे ससार से तिराते हैं, अत. अरिहतो के प्रवचन को तीर्थ कहते हैं। अरिहत प्रवचन रूप तीर्थ को प्रकट करते है,
इसलिए अरिहंतो को तीर्थंकर कहा जाता है। : बेटा। जानते हो, कितने तीर्थंकर हुए? : हाँ, भूतकाल मे अनंत तीर्थंकर हो चुके है, किन्तु इस अवसर्पिणी काल मे चौबीस तीर्थकर हुए। उनके नाम इस प्रकार हैं:
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१८ ]
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
१ श्री ऋषभनाथजी
२ श्री अजितनाथजी ३ श्री सम्भवनाथजी
४. श्री अभिनन्दनजी
१३. श्री विमलनाथजी १४ श्री अनन्तनाथजी १५. श्री धर्मनाथजी १६. श्री शान्तिनाथजी १७. श्री कुन्थुनाथजी १८. श्री अरनाथजी
१६. श्री मल्लिनाथजी
२०. श्री मुनि सुव्रतजी २१. श्री नमिनाथजी २२. श्री अरिष्टनेमिजी
२३. श्री पार्श्वनाथजी
२४ श्री महावीरस्वामीजी
५. श्री सुमतिनाथजी ६ श्री पद्मप्रभुजी ७. श्री सुपार्श्वनाथजी ८. श्री चन्द्रप्रभुजी ६ श्री सुविधिनाथजी
१० श्री शीतलनाथजी ११. श्री श्रेयासनाथजी १२ श्री वासुपूज्यजी माँ : हम हवे तीर्थंकरजी को श्री पुष्पदतजी और २२वे को श्री नेमिनाथजी कहते है ।
पुत्र : माँ | ये हवे और २२वे तीर्थंकर के दूसरे नाम हैं । माँ : क्या दूसरे तीर्थंकर के भी दूसरे नाम हैं ?
पुत्र : हाँ, जैसे १ श्री ऋषभनाथ को श्री श्रादिनाथजी और २४ भगवान् महावीरस्वामीजी को श्री वर्धमानस्वामीजी भी कहते हैं ।
माँ : वेटा । हम ७वे तीर्थंकर को सुपारसनाथजी और २३वें तीर्थंकर को पारसनाथजी कहते है ।
पुत्र : माँ | श्रावकजी ने हमे कहा कि कुछ लोग ऐसे नाम कहते हैं, किन्तु तुम सुपार्श्वनाथ और पाश्वनाथ ऐसे नाम कठस्थ करो ।
माँ : तोयंकरो के नामो के विषय मे श्रावकजी ने और क्या बताया ?
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पाठ ७--तीर्थंकर और तीर्थ [ १६ पुत्र : कुछ लोग ६ठे तीर्थकरजी को पदमप्रभु, ८वे तीर्थंकरजो
को चन्दाप्रभु और १८वे तीर्थंकरजी को अरहनाथजी
कहते है, वे अशुद्ध हैं। माँ : क्या वर्तमान मे भी तीर्थंकर विद्यमान हैं ? पुत्र : हाँ, महाविदेह क्षेत्र मे वर्तमान मे बीस तीर्थकर विद्यमान
माँ : उनके नाम क्या हैं ? पुत्र : १. सीमधर स्वामीजी ११. व्रजधर स्वामीजी
२ युगमन्दिर स्वामीजी १२. चन्द्रानन स्वामीजी ३ वाहु स्वामीजी १३ चन्द्रबाहु म्वामीजी ४ सुबाहु स्वामीजी १४ भुजग स्वामीजी ५ सुजात स्वामीजी १५. ईश्वर स्वामीजी ६ स्वयप्रभ स्त्रामोजो १६. नेमीश्वर स्वामीजी ७ ऋपभानन स्वामीजी १७ वीरसेन स्वामीजी ८ अनतवीर्य स्वामीजी १८. महाभद्र स्वामीजी है सूरप्रभ स्वामीजी १६ देवयश स्वामीजी
१० विशालधर स्वामीजी २०. अजितवीर्य स्वामीजी माँ : जानते हो बेटा। अपने भगवान् महावीर स्वामीजी के
गणधर कितने हुए? पुत्र : हाँ, माँ । ग्यारह गणधर हुए। उनके नाम इस
प्रकार हैं : १. श्री इन्द्रभूतिजी ७. श्री मौर्यपुत्रजी २ श्री अग्निभूतिजी ८. श्री अकपितजी ३. श्री वायुभूतिजी ९ श्री अचलभ्राताजी ४ श्री व्यक्तभूतिजी १० श्री मैतार्यजी ५ श्री सुधर्मा स्वामीजी ११. श्री प्रभासजी ६. श्री मण्डितजी
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जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
२०
माँ : गरणघर किसे कहते है, बेटा ?
पुत्र : १. जो भगवान् के ( १ ) उत्पाद ( २ ) व्यय और (३) श्रीव्य-इन तीन शब्दो मे सब समझ जाते हैं, २ भगवान् के प्रवचनो को गूंथकर शास्त्र बनाते हैं, ३. तथा साधुग्रो के गरण को धारण करते है, उन्हें गणधर कहते है ।
माँ : वेटा ! श्री इन्द्रभूतिजी के विषय मे और क्या सीखे ? पुत्र : श्री इन्द्रभूतिजी, श्री महावीर स्वामीजी के सबसे पहले
शिष्य हुए। वे सभी साधुग्रो मे वडे थे । उन्हे गौतम गोभ के कारण श्री गौतम स्वामीजी भी कहा जाता है !
माँ : ग्रच्छा वेटा ! ग्रव यह बताओ कि आज हम कितने शास्त्र मानते है और आज किन गणवरजी के बनाये हुए शास्त्र मिलते हैं ?
पुत्र : माँ । हम बत्तीस शास्त्र मानते हैं और ग्राज श्री सुधर्मां स्वामीजी के बनाये हुए गात्र मिलते हैं ।
माँ : हम तो साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका - इन चार को तीर्थ मानते हैं और तुमने भगवान् की वाणी को तीर्थ - बताया - ऐसा क्यो वेटा ?
पुत्र : तिराती तो भगवान् की वारणी ही है, इसलिए तीर्थं वही है । परन्तु वह भगवान् की वाणी साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका के कारण टिकती है । वे स्वय सीखते हैं और दूसरो को सिखाते है, इसलिए इन चारो को भी तीर्थं कहते है ।
माँ : वहुत प्रच्छा वेटा ! ये सब सीखी हुई बाते स्मरण
रखना ।
पुत्र: हाँ, माँ ।
मैं नित्य उठते ही नमस्कार मन्त्र स्मरण
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। पाठ ८-सम्यक्त्व सूत्र
कर अब चौबीस तीर्थंकरों के नाम और गणधरो के नाम भी स्मरण किया करूँगा। तीर्थकरो ने तिरने का मार्ग बताया। गणधरों ने उसे शास्त्र बनाकर हमारे लिए उपकार किया। उन्हे हम कैसे भूले । मैं चतुर्विध संघ से प्रेम रखंगा, क्योकि वे भी तीर्थ के समान है। उनसे मुझे तिरने मे बहुत सहायता मिलेगी। जो हमारे सहायक है, उन्हे सदा ही हृदय मे रखूगा।
पाठ ८ पाठवा
सम्यवाद सूत्र
एक नगर मे कुछ मुनिराज पधारे। बहुत-से लोग उनके दर्शन के लिए गये।
उस नगर मे नेमिचन्द्र आदि लडके परस्पर अच्छी मित्रता रखते थे। एक लडके को जब मुनिराज के समाचार मिले, तब उसने घर-घर घूमकर सभी लड़को को इकट्ठा किया।
इकट्ठे होकर वे सभी मुनिराज के दर्शन के लिए चले। मार्ग मे सबने निश्चय किया कि मुनि-दर्शन का लाभ हमे तव अधिक होगा, जब हम कुछ उनसे सीखे और कण्ठस्थ करे।
मुनियो के स्थान पर पहुँचकर सबने छोटे-बड़े मुनियो को क्रम से तिक्खुत्तो के पाठ से वंदना की। पीछे सबने मिलकर प्रार्थना की कि मुनिराज आप हमे कुछ सिखावे ।
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२२ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ ___ मुनिराज ने आगे लिखा सूत्र सिखलाया, उसका शब्दार्थ सिखलाया और विवेचन करके समझाया।
सम्यक्त्व सूत्र १ अरिहन्तो' मह-देवो, २जावज्जीवं 'सुसाहुणो' गुरुणो। ३'जिरण-पण्णत्तं' तत्तं, इन 'सम्मत्तं' मए गहियं ।। जावल्ली-जब तक जीवन है। मह-मेरे। अरिहन्तोअरिहत । देवो देव है। और सु-सच्चे । साहरणोसाधु । गुरुपो-गुरु है। और जिन-अरिहत द्वारा । परपत्तं- कहा हुआ। तत्तं-धर्म है। इस-इस प्रकार । मए= मैंने। सम्मत्तं-सम्यक्त्व। गहियं = ग्रहण की है।
जब बालको ने सम्यक्त्व सूत्र और उसका अर्थ कण्ठस्थ करके सुनाया, तब मुनिराज ने समझाये हुए विवेचन के आधार पर पूछा · बतायो, आपके देव कौन है ? बालक : अरिहत ही हमारे देव हैं। मुनि : क्यो? वालक : १ अरिहत देव ने अज्ञान, निद्रा, मिथ्यात्व,राग, द्वेष,
अन्तराय आदि आत्मा के सभी प्रान्तरिक शत्रयो को जीत लिया है, इसलिए वे सच्चे देव हैं। जो अरिहत नही है, जिन्होने अब तक अरियो का हनन नही किया है, जो शत्रु सहित है, जो अज्ञानी है, निद्रा लेते है, मिथ्यात्वी हैं, रागी हैं, द्वेषी हैं, दुर्वल हैं, वे सच्चे देव
नही हो सकते। मुनि : आपके गुरु कौन हैं ? बालक : जैन साधु ही हमारे गुरु है !
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पाठ ८-सम्यक्त्व सूत्र [ २३ मुनि : क्यो? बालक : 'जिन' ने आत्मा के सभी शत्रुओ को जोता है,
इसलिए उनका कहा हुआ धर्म, पूर्ण धर्म है और सत्य धर्म है। जैन साधु उस धर्म पर पूरी श्रद्धा रखते है और उसका पूरा पालन करते है, अत वे ही सच्चे साधु है। जो 'जिन' के द्वारा कहे गये धर्म का विश्वास नही करते, उसका पालन नहीं करते, ऐसे साधु अजैन साधु है। वे सच्चे साधु नही हो सकते। जन साधु की क्रिया और अजैन साधु की क्रिया देखने से भी यह प्रकट हो जाता है कि कौन सच्चे है ? एक अहिंसा को ही ले। जैन साधु छहो काय की दया करते है। सचित्त जोवसहित मिट्टी पर पैर भी नही धरते, सचित्त पानी नहीं पीते, प्राग नही तपते, दिया नही जलाते (विजली, बैटरी आदि से चलने वाले दीपक, रेडियो, ध्वनि-प्रसारक आदि का भी उपयोग नही करते ), वायु के लिए पखा आदि नही करते। मुंह पर मुखवस्त्रिका बाँधते है, जिससे मुंह से निकली वेग वाली वायु से सचित्त वायु की हिंसा नही हो। कोई दूसरा वनस्पति को छू जाय, तो उसे अशुद्ध (असूझता) मानकर भिक्षा भी नही लेते। त्रसकाय की रक्षा के लिए जूते नही पहनते, रजोहरण रखते हैं, रात को पहले उससे आगे की भूमि शुद्ध करके फिर पैर रखते है। रात्रि को विहार नहीं करते। वाहन पर भी नही बैठते। ऐसी अहिंसा दूसरे साधुप्रो मे कहाँ है ?
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२४ ]
जैन सुबोध पाठमाला भाग १ ब्रह्मचर्य के लिए जैन साधु स्त्री को छुने तक नही तथा
फूटी कौड़ी भी सम्पत्ति के नाम पर नही रखते। मुनि : आपका धर्म कौनसा है ? बालक : जैन धर्म ही हमारा धर्म है। मुनि : क्यो? बालक : 'जिन' का कहा हुआ धर्म जैन धर्म है। वह धर्म
पूर्ण धर्म है और सत्य धर्म है। हम उसी पर विश्वास करते है और शक्ति के अनुसार पालन करते है, इसलिए जैन धर्म ही हमारा धर्म है। अन्य धर्म पूर्ण धर्म नही है, क्योकि किसी मे केवल जान मे धर्म माना है, चारित्र मे नही। किसी मे केवल चारित्र मे धर्म माना है, ज्ञान में नही। कोई केवल भक्ति मानते हैं और अन्य को आवश्यक नही समझते।
अन्य धर्म सत्य धर्म नहीं है, क्योकि उनके शास्त्रो मे कही अहिंसा को परम धर्म बताया और कही हिसा करने मे महा लाभ बताया है। कही ब्रह्मचारी को भगवान् बताया है और कही 'विना पुत्र सुगति नही मिलती' ऐसा कहा है।
इसलिए हम उन धर्मों पर विश्वास नही करते। मुनि : दृष्टि किसे कहते है ? बालक : श्रद्धा (मत, विचार )को दृष्टि कहते है। मुनि : सम्यग्दृष्टि किसे कहते है ?
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पाठ ६—साधु-दर्शन [ २५ बालक : जो अरिहंत को सुदेव, जैन साधुओ को सुगुरु और जैन
धर्म को सुधर्म माने, वह सम्यग्दृष्टि है। क्योकि
उसीकी दृष्टि (अर्थात् श्रद्धा) सम्यक् (अर्थात् सबी) है। मुनि : मिथ्यादृष्टि किसे कहते हैं ? बालक : जो अरिहत को सुदेव, जैन साधुनो को सुगुरु और
जैन धर्म को सुधर्म न माने, वह मिथ्यादृष्टि है। क्योकि उसकी दृष्टि (अर्थात् श्रद्धा) मिथ्या (अर्थात्
सच्ची नही) है। मुनि : मिश्रदृष्टि किसे कहते हैं ? बालक : जो सभी देवो को सुदेव, सभी साधुओ को सुगुरु और
सभी धर्मों को सुधर्म माने, वह मिश्रदृष्टि है। क्योकि उसकी दृष्टि अर्थात् श्रद्धा मिश्र अर्थात् मिलावट
वाली है। मुनि : मोक्ष पाने के लिए कौनसी दृष्टि आवश्यक है ? बालक : सम्यग्दृष्टि ।
पाठ 8 नवमां
साधु-दर्शन
श्री उत्तमचन्द्रजी कुछ वर्षों से मद्रास प्रान्त के किसी छोटे-से गाँव मे रह रहे थे। उनके दोनो 'पुत्र दयाचन्द्र और मगलचन्द्र का जन्म वही हुआ। वे बडे भी वही हुए। उन्हे कभी साधु-दर्शन नहीं हुए थे। इसलिए वे नही जानते थे कि
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२६ 7
जन सुबोध पाठमाला--भाग १
साधुओ के दर्शन करते समय हमे क्या करना चाहिए और साधु उस समय हमारे लिए क्या करते है ?'
एक वार श्री उत्तमचन्द्रजी अपने पुत्रों को साधु दर्शन कराने के लिए और 'सम्यक्त्व सूत्र' दिलाने के लिए राजस्थान के अपने नगर मे लाये। वहाँ उस समय पाचार्यश्री विराजते थे। दर्शन कराने के लिए जाते समय श्री उत्तमचन्द्रजी ने पुत्रो से कहा-देखो, साधु-दर्शन के समय 'अभिगमन' का पालन करना चाहिए। दया : 'अभिगमन' का अर्थ क्या है ? पिता : दर्शन के लिए अरिहतादि के सामने जाते समय पालने
योग्य नियमो को 'अभिगमन' कहते है। मंगल : 'अभिगमन' कितने है ? पिता : पाँच हैं। पहला है 'सचित्त का त्याग' । दया : इसका अर्थ क्या है ? पिता : दर्शन के समय पास रही हुई छोडने योग्य सचित्त
(जीव सहित) वस्तुप्रो को छोड़ना। जैसे दर्शन के समय पैरो मे मिट्टी आदि लगी नही रहनी चाहिए (पृथ्वीकाय का त्याग) पानो या वर्षी की बूंदे लगी नही रहनी चाहिएँ। हाथ मे कच्चा पानी का लोटा आदि नही रहना चाहिए (अपकाय का त्याग)। मुंह मे धूम्रपान आदि नही चलना चाहिए, हाथ मे बेटरी अादि जलती हुई या मशाल आदि नही होनी चाहिए (तेजस्काय का त्याग)। पखा झलते हुए नही रहना चाहिए (वायुकाय का त्याग)। मुंह मे पान चबाते हुए या कोई सचित्त वस्तु खाते हुए नही रहना चाहिए। केश आदि मे फूल आदि लगे नहीं रहना
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पाठ ६-साधु दर्शन
[ २७ चाहिए। थैली मे शाक-सव्जी, धान्य या सचित्त मेवा
आदि नही रहना चाहिए (वनस्पति का त्याग)। __ मंगल . यदि काँख मे वालक हो, तो ? पिता : उसे हटाना आवश्यक नहीं। सचित्त मिट्टी आदि
साथ मे रहने से उनकी हिंसा होती है। मुनिराज के सामने हिंसापूर्वक जाना ठीक नही, इसलिए उन्हे छोडना पडता है। बालक साथ मे रहने से उसकी कोई हिंसा नही होती। बालको को तो साथ रखना ही चाहिए। इससे वे भी वन्दना-नमस्कार आदि
करना सीखते है। दया : दूसरा अभिगमन क्या है ? पिता : 'अचित्त का विवेक ।' दया : इसका अथ क्या है ? पिता : दर्शन के समय अचित्त (जीवरहित) वस्तुएँ छोडना
आवश्यक नहीं है। अतः उन्हे न छोडते हुए, जिस प्रकार रखना चाहिए, उस प्रकार रखना। जैसे वस्त्र, अलकार आदि पहने हुए रक्खे जा सकते हैं, पर मानसूचक जूते, मुकुट आदि पहने हुए नही रहना चाहिए। छत्र (छाता) लगा हुआ नहीं रहना चाहिए। चँवर ढुलते हुए नहीं रहना चाहिए। साइकल ग्रादि वाहनो पर बैठे हुए नही रहना चाहिए,
उनसे उतर जाना चाहिए। दया : तीसरा अभिगमन क्या है ? पिता : 'एक शाटिक उत्तरासग करना।' दया : इसका अर्थ क्या है ?
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२८ ] जैन सुबोध पाठमाला~भाग १ पिता : 'मुंह पर बिना सिला एक दुपट्टा लगाना'। मह
वोलते हुए वायुकाय की हिंसा न हो, इसलिए इसे मुंह पर लगाया जाता है। दुपट्टा लम्बा करके मुंह के चारो ओर तिरछा गोल भली भाँति लपेट लेना चाहिए, ताकि प्रदक्षिणा देते समय उसे हाथ से पकडे
रहना न पडे तथा वह बार-बार नीचे न गिरे। दया : शेष दो अभिगमन कौनसे है ? पिता : चौथा है अरिहत आदि दिखाई देते ही हाथ जोडकर
'अञ्जलि वाँधना' तथा पाँचवाँ है मन को सव ओर से हटाकर जिनका दर्शन करना है, उन अरिहन्तादि मे 'मन को जोडना'।
पिता और दोनो पुत्र अभिगमन सहित आचार्यश्री की सेवा मे गये। वन्दना की। दोनो पुत्रो को प्राचार्यश्री ने सम्यक्त्व सूत्र दिया। पीछे मागलिक सुनाई। पिता अपने पूत्रो के साथ दुवारा प्राचार्यश्री को वन्दना करके घर लौट पाये।
घर पर आकर दयाचन्द्र ने पिता से पूछा-पिताजी ! वन्दना करने पर साधुजी 'दया पालो' कहते हैं, उसका क्या अर्थ है ? पिता : बेटा । यह प्रश्न तुमने वही आचार्यश्री से क्यो नही
पूछा ?
दया : मुझे सकोच हो रहा था। पिता : बेटा । प्राचार्यश्री के सामने क्या सकोच ? वे तो
हमारे तारक हैं। उन्होने सम्यक्त्व सूत्र के लिए
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पाठ ६--साधु-दर्शन [ २६ तुम्हे कितना सुन्दर समझाया। ऐसे पुरुषो से प्रश्न पूछने मे कभी सकोच नहीं करना चाहिए। उन्हे प्रश्न पूछने से वे अधिक प्रसन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त वे जितना सुन्दर समाधान (उत्तर) दे सकते है, उतना हम लोग उत्तर नही दे सकते। अत उनकी कृपा पाने के लिए तथा अपनी विशेष ज्ञानवृद्धि के लिए उन से ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। हाँ, तो लो, अब 'दया पालो' का अर्थ, जैसा मुझे पाता है, वैसा बताता हूँ। 'दया' का अर्थ है 'अहिंसा' और 'पालो' का अर्थ है 'पालन करो'। अहिंसा हमारे सम्पूर्ण शास्त्रो का सार है। जब हम गुरुदेव को वन्दना करते हुए कहते हैं कि 'मैं आपकी पर्युपासना करता हूँ, अर्थात् कुछ सुनना चाहता हूँ', तो वे हमे थोडे मे जो सम्पूर्ण शास्त्रो का सार अहिंसा है, उसे पालन करने की शिक्षा
देते हैं।
दया : मुनिराज हमे 'दया पालो' ही क्यो कहते हैं ? पिता : जब थोड़े शब्दो मे किसी को उपदेश देना हो, तो उसे
सारभूत शिक्षा ही देनी चाहिए। मंगल : बहुत अच्छा पिताजी ! अब आप आचार्यश्री ने हमे
अन्त मे जो पाठ सुनाया, उसका नाम बताइये और
वह पाठ सिखाइये। पिता : मगल । तुमने आचार्यश्री से सीखने में सकोच किया,
यह अच्छा नहीं किया। भविष्य मे कभी उनकी सेवा मे सकोच-लज्जा मत रखना। हाँ, उन्होने जो पाठ
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नमो।
३० ] जैन सुवोध पाठमाल-भाग १
सुनाया, उसका नाम 'मागलिक' है। उसका मूल पाठ इस प्रकार है : चत्तारि मगलं। १. अरिहता मंगल २ सिद्धा मंगलं ३ साहू मगलं ४ केवलि पण्णत्तो धम्मो मगलं । चत्तारि लोगुत्तमा । १ अरिहता लोगुत्तमा २ सिद्धा लोगुत्तमा ३. साहू लोगुत्तना। केवलि पपणत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरण पवज्जामि। . अरिहतो सरण पवज्जामि २ सिद्धे सरण पवज्जानि ३ साहू सरग पज्जामि ४. केलि परगत धम्म सरणं
पवज्जामि। दया : उसके शव्दार्थ वताइए। पिता : शब्दार्थ इस प्रकार है
चत्तारि-चार। मंगल = मगल हैं। १. अरिहंता=सभी अरिहत। मगलं-मगल है। २. सिद्धा-सभो सिद्ध। मंगलं मगल है। ३. साहू = सभी (प्राचार्य, उपाध्याय और) साधु । मंगलं = मगल है। ४ केवलि = केवली (अरिहत)। पररणत्तो-प्ररुपित (द्वारा कहा हुया)। धम्मो धर्म (जैन धर्म)। मंगलं मगल है।
क्योकि चत्तारि-चार। लोगृत्तमा लोकोत्तम हैं। १ अरिहता=सभी अरिहत। लोगुत्तमा%= लोकोत्तम है। २ सिद्धा=सभी सिद्ध। लोगुत्तमा लोकोत्तम हैं। ३ साहू =सभी (प्राचार्य, उपाध्याय
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पाठ 8-साधु-दर्शन
[३१
और) साधु । लोगुत्तमा = लोकोत्तम हैं । ४ केवलि = केवली। पण्णत्तो-प्ररुपित । धम्मोधर्म। लोगुत्तमो-लोकोत्तम है।
इसलिए चत्तारिचार। सरणं शरण । पवज्जामिग्रहण करता हूँ। १ अरिहंते सरणं पवज्जामि-सभी अरिहतो, की शरण लेता हूँ। २ सिद्धे सरणं पवज्जामि - सभी सिद्धो की शरण लेता हैं। ३ साह सरणं पवज्जामि-सभी (आचार्य, उपाध्याय और) साधुनो की शरण लेता हूँ। ४. केवलि पण्णत्तं धम्म सरगं पवज्जामि केवलि प्ररुपित धम की शरण लेता हूँ।
मंगल : इसका भावार्थ बताइए। पिता : भावार्थ इस प्रकार है
१ अरिहत २ सिद्ध ३. साधु और ४ धर्म-ये चारो मगल हैं, क्योकि सब पापो का नाश करते है। १ अरिहत लोकोत्तम अर्थात् सभी धर्म-प्रवर्तको से उत्तम है, क्योकि वे १८ दोषरहित तीर्थकर हैं। २. सिद्ध लोकोत्तम अर्थात् सभी मत-मान्य सिद्धो से उत्तम है, क्योकि वे आठो कर्म क्षय करके मोक्ष मे पधार गये है। ३. जैन साधु लोकोत्तम अर्थात् सब साधुओ से उत्तम हैं, क्योकि वे ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप के धारक हैं। ४ केवलि प्ररुपित धर्म लोकोत्तम अर्थात् सभी धर्मों से उत्तम है, क्योकि वह सत्य और पूर्ण है।
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३२]
जैन सुवोध पाठमाला--भाग १
१. अरिहत, २. सिद्ध, ३. साधु और ४. केवलि प्ररूपित धर्म-ये चार मगल हैं तथा लोकोत्तम हैं। अत. इनकी शरण लेनी चाहिए। इसलिए मैं इनकी शरण लेता हूँ।
पाठ १० दसवाँ करेमि भन्ने : प्रत्याख्यान का पाठ
करेमि भन्ते ! सामाइयं। सावज्ज-जोग पञ्चक्खामि, जाव नियमं पज्जुवासामि दुविहं तिविहेणं न करेमि न कारवेमि, मरणमा, वयसा, कायसा। तस्स भते पडिक्कमामि, निदामि, गरिहामि, अप्पारणं वोसिरामि । शव्दार्थ :
प्रतिज्ञा भन्ते ! हे भगवन् । सामाइयं सामायिक । करेमि= करता हूँ।
द्रव्य से सावज्ज-सावद्य। जोगंजोग का। पच्चवखामि-प्रत्याख्यान करता हूँ।
क्षेत्र से सम्पूर्ण लोक प्रमाण प्रत्याख्यान करता
stica
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पाठ ११ - करेमि भते प्रश्नोत्तरी
काल से
जाव = जव तक । नियमं = इस नियम का । पज्जुवासामि पालन करता हूँ, तब तक ।
भाव से
दुविहं = दो प्रकार के करण से । योग से । न करेमि = सावद्य योग को नही करूँगा ।
वेमि =न दूसरे से कराऊँगा । कायसा = काया से ।
मरसा = मन से |
वचन से ।
A
[ ३३
=
तिविहे = तीन प्रकार के
न कार
वयसा =
पाठ ११ ग्यारहवाँ
करेमि भंते प्रश्नोत्तरी
पहले किये हुए पाप के विषय में
भन्ते = हे भगवन् । 1 तस्स = उसका ( इस सामायिक करने के पहले किये हुए पाप का ) । पडिक्कमामि = प्रतिक्रमण
करता हूँ । निन्दामि = निन्दा करता हूँ ।
गरिहामि = गर्हा करता हूँ | अप्पाणं = ( अपनी पापी) आत्मा को । वोसिरामि =
वोसिराता हूँ ।
प्र०
भगवान् किसे कहते हैं ?
उ० : साधारणतया अरिहत तथा सिद्ध को भगवान् कहा जाता है, परन्तु यहाँ प्राचार्य आदि गुरु को भी भगवान् कहा गया है ।
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___३४ ] जन मुबोध पाठमाला-भाग १
प्र० सामायिक किसे कहते हैं ? उ० जिसके द्वारा समभाव की प्राप्ति हो-ऐसी क्रिया को तथा
समभाव की प्राप्ति को सामायिक कहते है । प्र० : समभाव की प्राप्ति कैसे होती है ? उ० . विषम भाव को छोड़ने से । प्र० । विषम भाव किसे कहते हैं ? उ० · सावध योग को। प्र० सावध योग किसे कहते है ? उ० अट्ठारह पाप तथा अट्ठारह पाप के व्यापार को। प्र० : अट्ठारह पाप विपम भाव क्यो है ? उ० : १ यात्मा के स्वभाव को समभाव कहते हैं तथा
२. पात्मा का स्वभाव जिससे प्राप्त हो, उसे भी 'समभाव' कहते है। १ जिससे आत्मा का स्वभाव ढंके तथा २. जिससे समभाव की प्राप्ति मे विघ्न हो, उसे 'विपमभाव कहते है । १ सभी प्रात्माएँ सिद्ध के समान हैं। इसलिए जो सिद्धो का स्वभाव है, वही आत्मा का स्वभाव है। परन्तु हिंसा आदि करना, क्रोधादि करना, क्लेशादि करना कुदेवादि पर श्रद्धा करना प्रात्मा का स्वभाव नही है। इन अट्ठारह पापो ने आत्मा के स्वभाव को ढंका है इसलिए अट्ठारह पाप विपमभाव है। २ यात्मा के स्वभाव को पाने का अर्थात् सिद्ध वनने का उपाय है धर्म। पाप से धर्म मे विघ्न पडता है और धर्म मे विघ्न पड़ने पर मोक्ष-प्राप्ति मे विघ्न पड़ता है। इसलिए अट्ठारह पाप 'विपमभाव' हैं।
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पाठ ११---फरेमि भते प्रश्नोत्तरी [ ३५ प्र० : सामायिक में अट्ठारह पाप (सावध योग) न करने का
नियम कब तक पालना पडता है ? उ० : जितने भी महूर्त और उसके उपरात का नियम लिया
जाय, उतने समय तक नियम पालना पड़ता है। जैसे, एक मुहूर्त, दो मूहूर्त या तीन मुहूर्त और उसके उपरात जब तक सामायिक न पारले तब तक नियम पालना
पडता है। प्र० मुहर्त किसे कहते हैं ? उ० : एक दिन-रात के ३०वे भाग को अर्थात् ४८ मिनिट को
मुहर्त कहते हैं। प्र० : करण किसे कहते हैं ? उ० . योगो की क्रिया को। १. करना, २ कराना और
३. करते हुए का अनुमोदन करना, अर्थात् भला जानना
-ये-तीन 'करण' हैं। ___ प्र० · योग किसे कहते है ? उ० . करण के साधन को। १ मन, २. वचन और
३ काया-ये तीन 'योग' हैं । प्र० . क्या सामायिक का नियम जीवन भर तक के लिए और
तीन करण तीन योग से नही किया जा सकता ? उ० . किया जा सकता है। इस प्रकार नियम लेने को दीक्षा " कहा जाता है।
प्र० : दीक्षा मे और सामायिक मे क्या अन्तर है ? । उ० . अट्ठारह पाप इन नव प्रकारों से होता है
१ मन से करना, २ कराना और ३ अनुमोदन करना, ४ वचन से करना, ५ कराना और ६ अनुमोदन करना. ७ काया से करना, ८ कराना और
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जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
६. अनुमोदन करना। इन नव प्रकारों को 'नवकोटि' कहते है। दीक्षा मे १८ पापो का नवकोटि से प्रत्याख्यान करना पड़ता है और सामायिक मे छह कोटि या आठ कोटि से प्रत्याख्यान करना पडता है। छह कोटि मे तीसरी, छठी और नवमी-ये तीन कोटियाँ खुलो रहती हैं तथा आठ कोटि मे मन से अनुमोदन की एक तीसरी कोटि खुली रहती है।। *दीक्षा जीवन भर के लिए ही होती है, जबकि सामायिक
इच्छानुसार 'एक मुहर्त उपरात' आदि के लिए होती है। प्र० • प्रतिक्रमण किसे कहते है ? उ० : अतिचार से या पाप से लौटना, पुनः धर्म मे आना। प्र० निन्दा किसे कहते हैं ? उ० . १. अल्प रूप से निन्दा करना, २. अट्ठारह पापो की एक
साथ निन्दा करना, ३ एक बार निन्दा करना,
४. आत्मसाक्षी से निन्दा करना। प्र० : गर्दा किसे कहते हैं ? उ० : १. विशेप रूप से निन्दा करना, २. एक-एक पाप की
भिन्न-भिन्न निन्दा करना, ३. बारवार निन्दा करना, ४ देव या गुरु साक्षी से निन्दा करना।
*दीक्षापाठ फरेमि भंते ! सामाइयं ॥१॥ सव्वं सावज्जं जोगं पचखामि ॥२॥ जावज्जीवाए ॥३॥ तिविह तिविहेणं मणेरण वायाए काएरणं न फरेमि न फारवेमि फरतपि अण्णं न समणुजारणामि ॥४॥ तस्स भते ! पटिकमामि निदामि गरिहामि अप्पारणं वोसिरामि ॥५॥
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पाठ १ --करेमि भते प्रश्नोत्तरी [ ३७ प्र० : वोसिराने का अर्थ क्या है ? उ० छोडना, त्यागना । प्र० पापी आत्मा और धर्मी आत्मा-इस प्रकार क्या एक ही
जीव की दो प्रात्माएँ होती है ? उ० . प्रत्येक की यात्मा एक ही होती है, परन्तु जब आत्मा
पाप की भावना और पाप की क्रिया करती है, तब वह पापी आत्मा कहलाती है और जब आत्मा धर्म की भावना और धर्म की क्रिया करता है, तव वही आत्मा धर्मी आत्मा कहलाती है। पापी आत्मा को वोसिराने
का अर्थ है -पाप-भावना और पाप-क्रिया छोडना । प्र० क्या घर, व्यापार, समाज, राज्य आदि सवका कार्य
करते हुए सामायिक नही हो सकती? उ० . सामायिक मे केवल अनुमोदन की ही कोटि खुली रहती
है, शेष रही कोटियो से हिंसा आदि सभी पापो को पूर्ण रूप से त्यागना पडता है। घर, व्यापार, समाज आदि के काम करते हए मोटीमोटी हिसा आदि पाप ही छूट पाते है, परन्तु सम्पूर्ण हिंसा आदि पाप नही छूट पाते। अत उस समय सामायिक नही हो सकती। हाँ, उस समय मोटी हिंसा आदि पापो से छूटने के लिए अहिंसा आदि पॉच अणुव्रत तथा दिग्व्रत आदि तीन गुरगवत धारण करने चाहिएं। उनसे सामायिक की अपेक्षा कम, किन्तु खुले की अपेक्षा बहुत समभाव की
प्राप्ति होती है। प्र० : सामायिक के लिए प्रत्याख्यान (प्रतिज्ञा) आवश्यक
क्यो है ?
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३८ ]
उ० . प्रत्येक व्रत को प्रत्याख्यानपूर्वक लेने से १. किये जाने वाले व्रत का नाम स्पष्ट होता है । २. उसका स्वरूप समझ मे आता है । ३-४ व्रत के क्षेत्र और काल की मर्यादा निश्चित होती है । ५. व्रत के पालन को कोटि (विधि) का ज्ञान होना है । ६ प्रत्याख्यान में पूर्व के पापो की निन्दा, गर्हा आदि की जाती है, जिससे प्रत्याख्यान- पालन मे दृढता आती है, इत्यादि, प्रत्याख्यानपूर्वक व्रत लेने मे कई लाभ हैं ।
प्र०
उ०
प्र०
उ०
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
-
प्र०
सामायिक करने मे ग्राज्ञा ग्रावश्यक क्यो है ? प्रत्येक व्रतादि कार्य मे प्राज्ञा लेने से १. अनुशासन का पालन होता है । २ आत्मा मे विनय गुण बढता है । ३ गुरुदेव को हमारी पात्रता का ज्ञान होता है । ४ 'मैं सब कुछ कर सकता हूँ' - ऐसा अहकार उत्पन्न नही होता । ५. गुरुदेव अवसर आदि के जानकार होते है, वे इस समय यह करना या अन्य कार्य करना - इसका विवेक करा सकते हैं । इत्यादि, श्राज्ञा लेने मे कई लाभ हैं ?
गुरु महाराज के न होने पर सामायिक की आज्ञा किन से ली जाय
?
यदि साधु, साध्वी का योग न हो, तो जानकार या बडे श्रावक, श्राविका की प्राज्ञा लेनी चाहिए। किसी का भी योग न होने पर उत्तर दिशा, पूर्व दिशा या ईशान कोण मे वन्दना-विधि करके भगवान् महावीर स्वामीजी से प्राज्ञा लेनी चाहिए
4
क्या सामायिक लेने के लिए केवल यह प्रत्याख्यान का पाठ पढना पडता है ?
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पाठ ११-करेमि भते प्रश्नोत्तरी [ ३६ उ० • नही। इसके अतिरिक्त और भी विधि करनी पड़ती है।
वह अगले पाठो मे बताई जायगी। जब तक अन्य पाठ कठस्थ न हो और विधि की जानकारी न हो, तब तक केवल इस पाठ को पढकर ही कई सामायिक व्रत ग्रहण करते हैं।
सामायिक पालने की विधि क्या है ? उ० : वह भी अगले पाठो मे वताई जायगी।
जब तक उसके लिए आवश्यक पाठ कठस्थ न हो और विधि न जाने, तब तक ली हुई सामायिक तीन नमस्कार मन्त्र गिनकर या केवल सामायिक पारने का पाठ पढ
कर ही कई सामायिक व्रत पालते है। प्र० . सामायिक से क्या लाभ हैं ? उ० • १ अट्ठारह पाप छूटते है। २ समभाव की प्राप्ति होती
है। ३. एक घडी साधु-सा जीवन बनता है। ४. जैसे खुले समय मे बडे पशु, पक्षी, मनुप्य आदि की दया और रक्षा की भावना होती है, वैसे ही सामायिक मे छोटे-सेछोटे जीवो की भी दया और रक्षा करना चाहिए-ऐसो भावना उत्पन्न होती है और दृढ बनती है। ५ ससार के कार्य करते हुए अरिहतो की वाणी सुनने-वाचने का अवसर कठिन रहता है, सामायिक करने से वह अरिहतो की वाणी सुनने-वाचने का अवसर मिलता है। ६. सामायिक, पौषध आदि व्रत · मे रहे हुए श्रावकश्राविको की सेवा का लाभ मिलता है। इत्यादि सामायिक से वहुत-से लाभ हैं।
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Tठमाला
४० ] जैन सुबोध पाठमाला -भाग १
पाठ १२ बारहवाँ रायस्स नवमस्स : सामायिक पारने का पाठ
१. एयस्स नवमस्स सामाइय-वयस्स पंच अइयारा जारिणयव्वा, न समायरियवा। तं जहा-मरणदुप्पणिहाणे, वयदुप्परिणहाणे, कायदुप्परिणहाणे सामाइयस्स सइ-अकरण्या, सामाइयस्स अगवट्टियस्स करणया। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
२. सामाइयं सम्म काएरणं न फासियं न पालियं न तीरियं न किट्टियं न सोहियं न पाराहियं। प्रारणाए अणुपालियं न भवइ। तस्स मिच्छा मि दुक्कडं ।
हिन्दी पाठ ३. दस मन के, दस वचन के और बारह काया के-इन सामायिक के बत्तीस दोष में से किसी दोष का सेवन किया हो, तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं' ।
४. स्त्री-कथा, भात-कथा, देश-कथा और राजकथा-इन चारों में से कोई विकथा को हो, तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
५. आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रह संज्ञा-इनमें से कोई संज्ञा की हो, तो तस्त मिच्छामि दुक्कडं।
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पाठ १२–एयस्स नवमस्स : सामायिक पारने का पाठ [ ४१
शब्दार्थ :
एयस्स = इस 1 वयस्स व्रत के । जारिणयव्वा = जानने योग्य हैं । करने योग्य । न = नहीं है ।
तंजहा = वे इस प्रकार है :
मरण = मन का ।
वय =
वचन का । दुपरिहारपे= दुष्प्रणिधान । काय = काया का | दुप्परिपहाणे = दुष्प्रणिधान । सामइयस्स = सामायिक की । सइ = स्मृति । प्रकरराया = न करना ( न रखना) 1 सामाइयस्स = सामायिक को अनवस्थित | कररणया = करना |
नवमस्स = नववें |
पंच = पाँच |
मि=मेरा | ( निरफल) हो ।
सामाइय = सामायिक | श्रइयारा = अतिचार | सनायरियव्वा = आचरण
दुष्परिणहारणे - दुष्प्ररिणघान ।
=
यदि ये प्रतिचार लगे हो, तो
दुष्कृत = दुष्कृत (पाप) 1
मिच्छा = मिथ्या
सम्म : = सम्यक रूप में 1 कारणं = काया से 1 सामाइयं = सामायिक का । १. फासियं = ( प्रारंभ मे प्रत्याख्यान का पाठ न पढने से स्पर्श । न=न किया हो । २. पालियं = ( मध्य में सावद्ययोग न छोड़ने से ) पालन | न = न किया हो । ३. तीरियं = ( सामायिक को अन्त मे पाँच मिनट अधिक न बढ़ाने से ) तीर पर । न=न पहुँचाई हो । ४. किट्टियं = ( सामायिक समाप्त होने पर सामायिक के गुणो आदि का ) कीर्त्तन । न=न किया हो । ५. सोहियं = ( सामायिक में लगे अतिचारो की आलोचना प्रतिक्रमण करके सामायिक को ) शुद्ध । नन बनाई हो । राहिय = ( इस प्रकार सामायिक की ) आराधना | न=न
|
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४२ ]
जैन सुबोध पाठमाला - भाग १
की हो। श्रारणाए =(अरिहंत भगवान् की आज्ञानुसार सामायिक की) अनुपालना। नन। भवई हुई हो।
तस्स-उसका। मि मेरा। दुक्कडं दुष्कृत (पाप)। मिच्छा = मिथ्या (निष्फल) हो। विकथा = सामायिक (सयम) की बिराधना करने वाली कथा। १. खोकथा-स्त्री की, (क) जाति की, (ख) कुल की, (ग) रूप की, (घ) वेग
को आदि की निन्दा या प्रगसा-रूप कथा करना। '२ भक्तकया=(क) भोजन में इतना घे आदि लगा, (ख) इतने
पकवान बने, (ग) इतनी वनस्पति लगी, (व) इतने रुपये व्यय “ हुए आदि या निन्दा-प्रशसा-रूप कथा करना। ३ देशकथा = (क) अमुक देश में उस लडकी से लग्न किया जाता है, (ख) वैसा भोजन जिमाया जाता है, (ग) वैसे मकान बनाये जाते हैं, (घ) स्त्री-पुरुप वेसे वेग पहनते हैं - इत्यादि निन्दा या प्रशंसा-रूप कथा करना। ४. राजकथा-(क) अमुक राजा घूमने आदि के लिए राजधानी से ऐसे ठाटबाट से निकला, (ख) उसने विजय प्रादि करके इस प्रकार राजधानी में प्रवेश किया, (ग) अमुक राजा के पास या राज्य में इतनी, सेना, शस्त्र आदि है, (घ) इतने धन-धान्य आदि के कोष, कोष्ठागार हैं-ग्रादि निन्दा या प्रासा-रूप कथा करना। सज्ञा =अभिलापा। १. पाहार-संज्ञा सामायिक में भोजन आदि की अभिलापा। २. भय-सज्ञा-भयंकर देव, हिंस्र पशु आदि से डरना। ३. मथुन-संज्ञा स्त्री आदि के कामभोग की अभिलाषा। ४. परिग्रह-संज्ञा-धर्मोपकरण के अतिरिक्त सम्पत्ति की अभिलाषा तथा धर्मोपकरण पर मूर्छा।
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[ ४३'
पाठ १३–एयस्स नवमस्स प्रश्नोत्तरी
पाठ १३ तेरहवा 'एयरस नवमस्स' प्रश्नोतरी
॥प्र०: अतिचार किसे कहते है ? उ०: व्रत के तीसरे दोष को। व्रत भग करने का विचार
होना १. 'अतिकम' है। साधनो को जुटा लेना २. 'व्यतिक्रम' है। व्रत को कुछ भग करना । ३. 'अतिचार' है तथा व्रत को सवथा भग कर देना
४. 'अनाचार' है। ये व्रत के सब चार दोष हैं। . प्र० : 'दुष्प्रणिधान' किसे कहते हैं ? उ० : मन, वचन या काया के योग को अशुभ प्रवृत्ति
मे लगाना तथा अशुभ प्रवृत्ति मे एकाग्र बनाना
'दुष्प्रणिधान' है। प्र० : सुप्रणिधान किसे कहते है ? उ० : मन, वचन या काया के योग को शुभ प्रवृत्ति मे लगाना
तथा शुभ प्रवृत्ति मे एकाग्र बनाना 'सुप्रणिधान' है। 'प्र० : सामायिक की स्मृति न रखने का क्या भाव है ? उ० : १. सामायिक का प्रत्याख्यान लेना ही भूल जाना।
२ 'अभी मैं सामायिक मे हूँ'-यह भूल जाना। ३. 'मैंने सामायिक कब ली', ४ 'कितनी ली'-यह भूल जाना। ५ 'वर्ष मे या महीने मे इतनी सामायिक करूंगा'---इस प्रकार लिए हुए प्रत्याख्यान को भूल
जाना। इत्यादि। प्र० : सामायिक को अनवस्थित करने का क्या भाव है ? उ० : १. सामायिक विधि से न लेना । । २. विधि से न
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जैन सुवोध पाठमाला~भाग १
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पारना। ३. सामायिक का काल पूरा होने से पहले पारना। ४. सामायिक से उबना ५. सामायिक कब पूरी होगी इस प्रकार विचार करना, बार-बार घड़ी की ओर देखते रहना। ६ वर्ष मे या महीने मे जितनी सामायिके करने का प्रत्याख्यान किया हो, उतनी सामायिकें न करना। ७. सामायिक जिस समय, प्रात , सध्या, पक्षी, (पक्खी) प्रादि को करने का नियम लिया हो, उस समय न करना। इत्यादि ।
प्र० : अनाचार के समान अतिक्रमादि तोन का 'मिच्छा मि
र दुक्कड' क्यो नही ? उ० : अतिक्रम और व्यतिक्रम से अतिचार बड़ा है, अत.
अतिचार के मिच्छामि दुक्कड से अतिक्रम व्यतिक्रम का भी 'मिच्छा मि दुक्कड' समझ लेना चाहिये। अनाचार से सामायिक पूरी भग हो जाती है, इसलिए अनाचार के लिए तो फिर से सामायिक करनी पड़ती है।
प्र० : सामायिक के गुणादि का कीर्तन कैसे करना चाहिए? उ० : १. सामायिक के लाभ पहले वताए जा चुके हैं। उनका
कीर्तन करना। २. सामायिक को बताने वाले अरिहत देव तथा गुरु का कीर्तन करना-जैसे 'धन्य है, अरिहतों को तथा गुरुदेवो को, जिन्होने सामायिक जैसी महान् फलवाली क्रिया वतलाई। ३. सामायिक करके अपने को धन्य मानना-जैसे 'आज का दिन धन्य है कि मैं सामायिक कर सका' । ४. सामायिक की भावना करना-जैसे 'ऐसी सामायिक मुझे प्रतिदिन होती रहे। इत्यादि।
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पाठ १४-सामायिक के उपकरण [ ४५ प्र० : विराधना किसे कहते हैं ? उ० . स्पर्श आदि पाँच बोल मे से एक भी बोल व्रत को साधना
मे कम होना।
प्र० · आराधना किसे कहते हैं ? उ० . स्पर्श आदि पाँच बोल सहित व्रत की साधना करना।
पाठ १४ चौदहवाँ सामायिक के उपकरण
विजयकुमार एक छोटे गॉव का विद्यार्थी था। वह शिक्षण के लिए बडे नगर मे आया। वहाँ उसने लौकिक शिक्षा के साथ जैनशाला मे धार्मिक शिक्षा भी पाई।
जब वह घर लौटा, तो अपने छोटे भाई जयन्त के लिए 'दूसरी-दूसरी वस्तुप्रो के साथ सामायिक के उपकरण भी खरीद कर ले गया।
उस छोटे गाँव मे साधुनो का पधारना नही हो पाता था। न वहाँ कोई जैनशाला थी। जैन के नाम पर उस गाँव मे अकेले उसी का घर था। धर्मशीला माता का स्वर्गवास हो गया था। पिता खेती-बाडी करते थे। उनकी धर्म मे कोई रुचि न थी, इसलिए जयन्त को कोई धार्मिक सस्कार नही मिल सके थे।
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जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ विजय की इच्छा थी-मै जयन्त को भी धार्मिक बनाऊँ, क्योकि धर्म वहत लाभकारी है। यदि मैं उसको भी धार्मिक बना सका, तो वह मेरे लिए इस छोटे गाँव मे धर्म का साथी बन जायगा।
घर पहुँचने पर छोटे भाई जयन्त ने विजय का बहुत स्वागत किया। भोजन-पान आदि हो जाने पर विजय ने जयन्त को अन्य सब वस्तुएँ देने के साथ सामायिक के उपकरण भी दिये। जयन्त : ये सब क्या हैं ? विजयं : धर्म के उपकरण हैं। जयन्त : उपकरण किसे कहते है ? विजय : धर्म की करणी मे सहायक साधनो को। जयन्त : (आसन को देखकर) भय्या | यह कपड़े का जाडा
टुकडा क्या है ? यह किस काम मे आता है ? विजय : इसका नाम 'पासन' है। यह धर्म-क्रिया करते समय
वैठने के काम में आता है। यह लगभग हाथ भर लम्बा-चौडा है, अत: इस पर सुविधा से बैठ सकते हैं। सामायिक नामक ' जो धर्म-क्रिया है, उसमे पैरो को
लम्बा नही किया जाता, अत यह इतना छोटा है। जयन्त : क्या सामायिक गद्दी, गद्देदार कुर्सी, पलग आदि पर
वैठकर नही की जा सकती? विजय : नही । क्योकि उसमे १ अाराम बढ़ता है, २. आलस्य
• बढता है, ३ अहकार वढता है। सामायिक मे
१. परीषह (कष्ट) सहना चाहिए, २. आलस्य नही करना चाहिए व ३ अहकार दूर करना चाहिए।
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पाठ १४-सामायिक के उपकरण एक बात यह भी है-उनमे बिनौले आदि हो सकते हैं, वे जीव सहित होते हैं। उन पर बैठने पर उनके ४. जीवों की हिंसा होती है। साथ ही यदि उनमे कोई कोडी आदि छोटे जीव घुस जायँ, तो उनकी रक्षा के लिए उन्हे वहाँ देखना और
निकालना कठिन हो जाता है। जयन्त : (धोती देखकर) भय्या | तुम तो पेण्ट, चड्डी,
पायजामा आदि पहनने वाले हो, इसलिए इसकी क्या
आवश्यकता है? विजय : सामायिक मे पेण्ट, चड्डो, पायजामा, कुरता, बनियान
आदि धर्म-अयोग्य वेश नही पहने जाते। सामायिक मे धर्म के योग्य वेश धोती, दुपट्टा आदि पहने या श्रोढे जाते हैं। इसलिए धाती के साथ यह दुपट्टा
भी है। जयन्त : सामायिक मे धर्म-अयोग्य वेश क्यो नही पहना जाता?
धर्म-योग्य वेश क्यो पहना जाता है ? विजय : १. धर्म-अयोग्य वेश मे कोई छोटे कीडी आदि जीव
घुम जायँ, तो उनकी रक्षा के लिए उन्हे देखना और निकालना कठिन हो जाता है। २ धर्म-अयोग्य वेश पलटकर धर्म-योग्य वेश पहनने से सासारिक भावनाओ के परिवर्तन मे सहायता मिलती है। जैसे सैनिक वेश पहनने से कायरता की भावना मिटकर वीरता की भावना जगती है। ३. धर्म-अयोग्य सासारिक वेश पलटने मे यह लाभ भी है कि दूसरे लोग समझ जाते हैं कि 'यह धर्म-क्रिया
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• ४८
जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ कर रहा है।' इससे वे हमे कोई सासारिक वात नही कहते या हमारे सामने कोई सासारिक वात
नही करते। जयन्त : (मुख-वचिका देखकर) यह क्या है? क्या यह
टुकडा पसीना पोछने के लिए है ? परन्तु यह कुछ जाडा है, पसीना पोछने के लिए पतला कपडा अच्छा रहता है। यह कपडा चौकोर भी नहीं और
इस कपडे के ऊपर डोरी क्यो है ? विजय : इस कपडे को 'मुख-वस्त्रिका' कहते है। यह अपने
अपने हाथ से सोलह अगुल चौडा और इक्कीस अगुल लम्बा होता है। पहले इसको चौडाई को पड़ी करके प्राधी की जाती है। पीछे लम्बाई को दो वार घड़ी करके पाव की जाती है। तब यह कपडा पाठ अंगुल चौड़ा और लगभग पाँच अगुल लम्वा रह जाता है और आठ पट वाला बन जाता है। चार पट ऊपर और चार पट नीचे करके इसके बीच यह डोरी डाली जाती है और फिर (मुंह पर बाँध
कर दिखाते हुए) इस प्रकार मुंह पर बाँधी जाती है। जयन्त : इसे ऐसी बना कर मुंह पर क्यो बाँधी जाती है ? विजय : १. हमारे मुंह से बोलते समय जो वेगवान् वायु
निकलने लगती है, उससे वाहरी वायु के जीव टकरा कर मर जाते है। वायु भी जीवरूप है। इसे पाठ पट करके मुंह पर बाँधने पर मुंह से जो वायु वेग से निकलती है, वह इस मुख-वस्त्रिका से टकरा कर इधर-उधर फैल जाती है, अत इससे वायु के जीवो की हिंसा रुकती है। इस प्रकार यह मुख-वस्त्रिका
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पाठ १४-सामायिक के उपकरण [४६ वायुकाय के जीवो की रक्षा के लिए ऐसी बना कर मुंह पर बाँधी जाती हैं। २. मुख-वस्त्रिका मुंह पर बँधी होने से त्रस जीव मुंह में प्रवेश करके मरते नहीं तथा ३. मुंह का थूक दूसरे पर या पुस्तकों पर गिरता नही इसलिए भी यह मुंह पर बाँधी जाती है। ४. यह मुख-वस्त्रिका जैन धर्म का ध्वज (झण्डा) है-इसलिए भी इसे शरीर के मुख्य भाग मुख पर
बाँधी जाती है। जयन्त : मुख-वस्त्रिका पतले कपडे की क्यों नही बनाई जाती है? विजय : मुख-वस्त्रिका पतले कपडे की बनाने पर १. उससे
वायु का वेग ठीक रुक नही पाता। २. कभी-कभी वह मुंह में आने लगती है, जिससे बोलने में कठिनता हो जाती है। ३. पतले कपडे की मुंहपत्ति नीचे के दोनो कोनों से बहुत मुड जाती है-इसलिए भी
मुख-वस्त्रिका पतले कपड़े की नही बनाई जाती। जयन्त : मुख-वस्त्रिका जाडे कपडे की क्यो नही बनाई जाती है ? विजय : जाडे कपड़े की मुख-वस्त्रिका से बाहर शब्द स्पष्ट
और तेज निकल नहीं पाता, इसलिए। जयन्त : यदि जाडे कपडे की चार पट की या पतले कपडे की
सोलह पट की मुख-बस्त्रिका बना ली जाय, तो क्या
आपत्ति है? विजय : इससे व्यवस्था और एकता भग हो जाती है। जयन्त : यदि मुख-वस्त्रिका को हाथ में पकड कर मुंह के सामने
रख ली जाय, तो क्या आपत्ति है ? उसमे डोरा डालना आवश्यक क्यो है ?
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५० ] जैन सुबोध पाठमाला- भाग १ विजय : १ भगवान् की स्तुति आदि कई वाते हाथ जोड कर
की जाती हैं और उस समय अधिकतर हाथ मुंह से दूर रहते हैं। यदि हाथ मे मुख-वस्त्रिका रक्खी जाय, तो उस समय मुंह पर मुंहपत्ति नहीं रह सकती। २ दो-तीन घण्टे तक लगातार सामायिक मे बोलना पडे, तो हाथ के सहारे मुंह पर मुंहपत्ति रखना कठिन हो जाता है। ३. 'मैं अभी नहीं बोल रहा हूँ'--यह सोच कर यदि हाथ की मुंहपत्ति इधर-उधर रखने मे आ जाय, इधर इतने में यदि खाँसी, जभाई आदि या जाय और दंढने से समय पर मुंहपत्ति न मिले, तो अयतना (जीवहिंसा) होती है। ४ हाथ मे मुंहपत्ति रखने वाला, जव-जव आवश्यक हो, तब तक मुख-बस्त्रिका को मुंह पर लगा लेने का ध्यान रख ले यह सम्भव नही, क्योकि सामान्यतया मनुष्यो मे इतना उपयोग (विवेक) नहीं रहता । इसलिए मुखवस्त्रिका मे डोरा डाल कर उसे मुंह पर
वॉधना आवश्यक है। जयन्त : अच्छा, और यह छोटे भाडू-सा क्या है तथा यह
किस काम में आता है ? विजय : इसे 'पूजनी' कहते है। १ पासन विछाने से पहले
इसके द्वारा भूमि को पूज ली जाती है, जिससे कोई जीव अासन के नीचे दब कर मर न जाय। २ कोई कीडी-मकौडी'ग्रादि जन्तु आसन पर चढ़ जाय, तो इससे उसे धीरे-से दूर कर दिया जाता है। ३ यदि कोई डास-मच्छर हमे काटे, तो हाथ से खुजालने से वह कभी-कभी मर तक जाता है, इससे पहले उसे
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पाठ १४ - सामायिक के उपकरण
[ ५१
हटा कर फिर खुजलाने से उसकी हिंसा नही होती । ४. रात को कही जाना-माना पडे, तो पहले इससे भूमि पूँज कर मार्ग - शुद्ध किया जाता है, जिससे जीव हिसा न हो, इत्यादि यह पूँजनी कई कामो में आती है । जयन्त : यह ऊन से क्यो बनाई जाती है ?
विजय : क्योकि यह १ कोमल रहे । कठिन झाडू से छोटे कोमल जीव मर जाते है, इसलिए पूजनी कोमल होना आवश्यक है । २. ऊन से बनवाने का दूसरा लक्ष्य यह है कि यह शीघ्र मंली नही होती । इसमें यह डडी क्यो लगी है विजय : सुविधापूर्वक पकड कर पूँजने के लिए। सावधानी से रखनी चाहिए। इससे भी जीवहिसा हो सकती है ।
?
जयन्त
इसे बहुत तेजी से गिरने पर
जयन्त : अच्छा, इस माला का नाम क्या है, यह किस काम मे आती है ?
विजय : इस माला का नाम 'नमस्कारावली' ( नवकार वाली ) है, क्योकि अधिकतर इससे नमस्कार नामक मन्त्र गिना जाता है। तीर्थकरो के नाम का जप करते समय भी यह काम आती है । और भी जप या अन्य स्मरण के समय यह सख्या जानने के काम मे श्राती है ।
जयन्त : इसमे कितनी मरिणयाँ होती हैं ?
विजय : इसमे १०८ मरिणयाँ होती हैं। एक-एक मरिण को एक-एक नमस्कार-मत्र गिनकर खिसकाया जाता है, जिससे १०८ नमस्कार मन्त्र की एक माला पूरी हो जाती है ।
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५२ ] जन सुवोध पाठमाला--भाग १ जयन्त : इसमे जो फुन्दा लगा है, उसे क्या कहते है ? विजय : उसे 'मेरू' कहते हैं। उसकी मरिण में गिनती नहीं
है। वहाँ पहुचने पर माला समाप्त हो जाती है। जयन्त : यह माला सादी और अल्प मूल्य वाली क्यो है ? विजय : क्योकि मन धर्म में लगा रहे, इसके रूप-रग मे मन न
चला जावे। जयन्त : (एक छोटी-सी पुस्तक उठाकर देखते हुए) यह
पुस्तक किसकी है ? (कुछ पन्ने उलट कर) इसमें सब अंक ही अक क्यो हैं तथा २-५-३-१-४ यों उल्टे
सुल्टे अक क्यो हैं ? विजय : यह पुस्तक आनुपूर्वी की है। इसमे छपे हुए अंको के
इस क्रम को आनुपूर्वी कहते हैं। इसमे जहाँ जो अक है, वहाँ नमस्कार मन्त्र के उस अंक वाले पद का उच्चारण किया जाता है। जैसे, जहाँ एक है, वहाँ 'णमो अरिहतारण' का उच्चारण किया जाता है। इसमे सव २० कोष्ठक (कोठे) हैं। प्रत्येक कोष्ठक में १ से ५ तक अंक ६ वार दिये हैं। इसलिए आनुपूर्वी को गिनने से नमस्कार मन्त्र का १२० वार स्मरण हो जाता है। इसमे उल्टे-सुल्टे अंक इसलिए हैं कि मन स्थिर रह सके। क्योकि मन स्थिर रहे विना 'कहाँ क्या
वोलना'-इसका ध्यान नहीं रह सकता। जयन्त : मन स्थिर करने की क्या आवश्यकता है ? विजय : स्थिर मन से किया हुआ जप आदि काम अधिक
फलदायी होता है। जयन्त : और यह पुस्तक किसकी है। इसमे यह सब क्या
लिखा है ?
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पाठ १५---विवेक
[५३ विजय : यह धार्मिक पुस्तक है। १. इसमे कई तत्व-ज्ञान की
बाते है, जिससे ज्ञान बढता है। २ कई तीर्थकर आदि महापुरुषो की कहानियाँ है, जिससे अनुकरण की भावना जगती है। ३. कई अच्छी-अच्छी स्तुतियाँ है। जिससे मन पवित्र बनता है और ४. कई
सुन्दर-सुन्दर उपदेश है, जिससे आत्मा सुधरती है । जयन्त : ये सब धार्मिक उपकरण तुम कहाँ से लाये ? विजय : मैं जिस नगर मे पढता हूँ, वहाँ की जैनशाला से । जयन्त : ये सब क्यो लाये ? विजय : इसलिए कि तुम भी धर्म करो और धार्मिक बनकर
मेरे सच्चे धर्म-भाई बनो। बोलो, धर्म करोगे ?
मेरे सच्चे भाई बनोगे ? जयन्त : अवश्य ।
पाठ १५ पन्द्रहवाँ
विवेक
आज जैनशाला मे नये शिक्षक श्रावकजी की नियुक्ति हुई थी। वे समय से पहले जैनशाला मे पहुँचे, पर शाला मे कोई छात्र उपस्थित न था।
जैनशाला प्रारम्भ होने के समय से लगभग १५ मिनिट से भी पीछे निर्दोषचन्द्र, तटस्थकुमार और उपकारनाथ जैनशाला मे आते दिखाई दिये। वे तीनो ही जैनशाला के नामाङ्कित छात्र थे।
तीनो मुंह मे कुछ खाते चले आ रहे थे। निर्दोषचन्द्र
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५४ ]
जैन सुबोध पाठमाला - भाग १
सबसे ग्रागे था । उसकी ग्रांखें कभी ऊपर और कभी तिरछी देख रही थी । अचानक उसे पत्थर की ठोकर लगी और वह मुँह के वल नीचे गिर पडा ।
तटस्थकुमार और उपकारनाथ दोनो एक दूसरे के गले मे हाथ डाले पीछे चले आ रहे थे । उपकारनाथ ने निर्दोपचन्द्र को नीचे गिरते देखा, तो बहुत हँमा । उसने कहा धन्यवाद, निर्दोष | वडा अच्छा उपकार का काम किया। वेचारी कीड़ियाँ इस योनि मे बहुत दुःख पा रही थी, तुमने उन्हे इस दुखभरी योनि से छुड़ाकर उन पर बहुत ही उपकार किया है ।
+
तटस्यकुमार ने उपकारनाथ से कहा : उपकार ! देखो, कर्म कितने न्यायवान हैं। कल उसने तुम्हे गिराया, तो आज वह ठोकर खाकर स्वयं गिर गया । कर्म न्याय करने मे देर करते हैं, अन्धेर नही ।
उसने ग्रपने मुँह की
निर्दोषचन्द्र किसी तरह सँभला । धूल झाड़ी, कपडे ठीक किये और शाला मे प्रवेश किया । श्रध्यापकजी देख रहे थे कि ये पीछे आनेवाले छात्र ग्रपने साथी की इस दशा को देखकर क्या करते हैं ? परन्तु उन्होने जो कुछ देखा-सुना, उससे उन्हे बहुत दुःख हुग्रा । वे निर्दोषचन्द्र के पास पहुँचे। जहाँ उसे लगी थी, उसे दवाया । जहाँ-कही चोट आई थी, उस पर ग्रौपधि की । -
पीछे उससे प्रेमपूर्वक मधुर शब्दो मे कहा देखो, सदा नीचे देखकर चला करो । १ इससे कीड़ी प्रादि जीवो की रक्षा होती है, २. हम भी ठोकर से वचते हैं औौर ३. कोई वस्तु पड़ी हुई हो, तो वह मिल भी जाती है । '
निर्दोष : ( अपने को निर्दोष बताते हुए) श्रीमान्जी । मैं तो अपने पाठ को दुहराता चला ग्रा रहा था । मेरा
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. पाठ १५----विवेक ध्यान इधर-उधर नहीं था। परन्तु अन्य छात्र बडे अविवेकी है। उन्होने पत्थर को रास्ते मे ही लाकर रख दिया। फिर ठोकर न लगे, तो और क्या हो ?
उपकारनाथ और तटस्थकुमार दोनो पाकर भूमि पर ही प्रवेश-द्वार पर वैठ गये। टाग पर टाग चढा ली और शाला के बाहर की ओर देखने लगे।
अध्यापकजी ने उन दोनो की ओर देखते हए कहा . देखो, छात्र-अवस्था मे खाते हुए परस्पर गले में हाथ डाले चलना नहीं चाहिए। फिर जैनशाला मे आते समय तक इस प्रकार की प्रवृत्ति वहुत अनुचित है।
जब तुम्हारा साथी ठोकर खाकर गिर पड़ा, तब तुम केवल देखते रहे, हँसते रहे और वाते छॉटते रहे--पर इसकी कोई सेवा न की। करुणा के प्रसग पर सदा ही अनुकपा-भाव सहित सेवा के लिए तत्पर रहना चाहिए।
तुम तीनो जैनशाला मे कितनी देरी से पहुंचे हो? यहाँ समय पर पहुँचना चाहिए। और अब इस प्रकार अभिमान के आसन से बैठ गये हो। अपने से बडो के सामने विनय के आसन से बैठना चाहिए तथा तुम्हारा अपना आसन कहाँ है ? तुम्हारा बैठने का स्थान कौनसा है ? सदा आसन लगाकर अपने स्थान पर बैठना चाहिए। हाँ, अब सामायिक लो और अध्ययन प्रारम्भ करो। उपकारः आपने शिक्षा देकर हम पर बहुत उपकार किया है, पर
श्रीमानजी। आप आज ही पधारे हैं, अत आज तो सामायिक से छुट्टी मिलनी चाहिए। फिर कभी आप कहेगे, तो हम आपको दो-चार सामायिक अधिक कर देगे।
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५६ ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ तटस्थ : (टोंकते हए कडे स्वर मे) उपकार तुम्हे इस
प्रकार नये अध्यापकजी को उत्तर नहीं देना चाहिए। यह अनुशासन का भग है। परन्तु अव पाठशाला का इतना समय नही रहा कि सामायिक पा सके, अत. अध्यापकजी का सामायिक के लिए कहना भी अविवेक है।
अध्या० : तटस्थकुमार | यदि कभी सामायिक जितना समय
नही रह जाता, तो थोडे समय का 'सवर' (अट्ठारह पाप का एक करण, एक योग से त्याग) किया जा सकता है। समय को जितना भी हो, सार्थक बनाना चाहिए। फिर आज लोक (व्यावहारिक) पाठशाला की छुट्टी है। यहाँ का समय पूरा होने पर तुम्हे जाना कहाँ है ? आज एक के स्थान पर तीन सामायिके कर सकते हो। आज विलम्ब से पहुँचे-इसके पश्चाताप के रूप मे भी तुम्हे छुट्टी के दिन एक सामायिक विशेप करनी चाहिए। खेलो से भी आत्मा के कल्याण के लिए अधिक रुचि रखनी चाहिए। तुम्हे यह बात भी ध्यान मे रखनी चाहिए कि वडो की भूल हो, तो भी उसे अविनय के साथ मत कहो, किन्तु उन्हे विनय से निवेदन करो। यह भी हो । सकता है कि उनकी उचित शिक्षा तुम्हे तुम्हारी अल्प बुद्धि के कारण समझ मे न आवे, अत बड़ो की बात अविवेकपूर्ण है-ऐसा शीघ्र निर्णय करना ठीक नही है।
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पाठ १५-विवेक
[५७ निर्दोषचन्द्र ने (यह सुनकर) शीघ्रता से कुरता उतारा। श्रासन खोला। ज्यो-त्यो मुंह पर मुंहपत्ति बाँधी और शरीर पर दुपट्टा डालते हुए कहा । श्रीमान्जी । देखिये, मुझे चोट आ गई है, फिर भी मैंने बिना आपके कहे ही सामायिक ले ली है। मैं कितना विवेकशील हूँ ? ! श्रा० : धन्यवाद ! पर अपनी मुंहपत्ति देखो-कितनी टेढी
मेढी है और उसे उल्टी ही बाँध ली है। इसका डोरा भी ऊपर का नीचे और नीचे का ऊपर बाँध लिया है। मुंहपत्ति ठीक करो।
और देखो, तुम्हारे नाक में श्लेष्म आ रहा है, वह इस पर भी कुछ लग गया दीखता है-उसे शुद्ध करो। श्लेष्म में समूच्छिम नामक जीवो की उत्पत्ति हो जाती है। हाँ, नाक शुद्ध करते समय भूमि का ध्यान रखना। कही वहाँ जीव न हो, जो श्लेष्म से दब कर मर जायं। श्लेष्म वोसिराने के साथ उस पर धूल-राख आदि डाल देनी चाहिए, ताकि उस पर बैठने पर मक्खी प्रादि उसी में चिपक कर मर न जाय । (निर्दोषचन्द्र नाक शुद्ध करके आ गया। उसके पश्चात्) तुमने कुरता खोल कर दुपट्टा तो पहन लिया, पर पायजामा अब तक पहने हुए हो। सामायिक में धोती पहननी चाहिए और वह भी लांग न लगाते हए पहननी चाहिए। हाँ, एक बात और है। तुम्हें सामायिक की विधि आदि ध्यान में होते हुए भी बिना विधि सामायिक क्यो ली ? पुन. विधि करो और फिर सामायिक लो।
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५८ ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ निर्दोष ; श्रीमानजी! यह सब भूल उपकारनाथ की है।
आप तो नये आये हैं। पुराने अध्यापकजी ने उपकारनाथ से कहा था कि मुझे सामायिक की विधि और उपकरणो के सम्बन्ध मे वतावे, पर उसने आप जैसे नहीं बताया। मैंने जो मुंहपत्ति वॉधी, वह इसी ने इस प्रकार वाँधना सिखाई। इसने धोती को पहनना अनावश्यक बताया और केवल प्रतिज्ञा-सूत्र से ही सामायिक प्रत्याख्यानः का काम निकल सकता है-ऐसा कहा ।
मैं इसमे पूरा निर्दोप हूँ। ' उपकारनाथ ने सामायिक का वेग पहन कर सामायिक की विधि के साथ प्रत्याख्यान का पाठ पूरण करते हुए कहा :
श्रीमान्जी! यह निर्दोप- झूठ बोलता है। देखिये, मेरी मुख-वस्त्रिका कितनी अधिक धुलो हुई, कितनी सुन्दर जमी हुई और कितनी कुगलता से मुंह पर पहनी हुई है। क्या मैं इसे ऐसी मुंहपत्ति बाँधना सिखाता?
मैंने सांसारिक वेश पूरा त्याग दिया है और पूरा सामायिक वेश पहन लिया है तथा विधि से सामायिक ग्रहण की है। निर्दोष को चाहिए कि वह मुझ से इन सब बातों की अमूल्य शिक्षा ग्रहण करे। मैं सब के लिए स्वय को आदर्श उदाहरण के रूप मे प्रस्तुत करने की महान् सेवा बजाता हूँ, परन्तु यह मेरा उपकार हो नही मानता। कृतघ्न कही का}
तटस्थकुमार भी अब तक पूरे तैयार हो चुके थे। उन्होने कहा :
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। ५९
- पाठ १५-विवेक • . उपकारनाथ अवश्य ही ऐसे हैं, जिनसे शिक्षा ली जा सकती है। परन्तु इनकी पूंजनी और माला की क्या अवस्था है ? ये केवल अपनी मुख-वस्त्रिका सजाने का काम करते है। पंजनी और माला के प्रति ध्यान नही देते।
इंनकी डण्डी पर न तो फलियाँ ठीक लिपटी हुई हैं, न उन्हे डोरे से ठीक बाँधा गया है। 'फलियाँ ऊँची-नीची दीख रही हैं और डोरा लटक रहा है ।।
माला का डोरा चार बार तोड दिया। जहाँ-तहाँ उसने गाँठे लगा दी हैं और एक स्थान पर तो अब तक गॉठे
भी नही लगी है। मरिगयाँ कई बार बिखर चुकी हैं। अब _ इनकी माला मे ८० मणियाँ भी नही रही होगी। , , ! अध्या० : उपकारनाथ | तटस्थकुमार जो-कुछ कह रहा है,
यदि वह सत्य है, तो वैसा नहीं होनी चाहिए । उपकरण धर्म में सहायक हैं, उनकी उपेक्षा अच्छी नही। उनको सदा व्यवस्थित और सम्भाल कर रखना चाहिए और हॉ, देखो, उपकारनाथ ! 'यदि कोई असत्य बोलता भी हो, तो उसके प्रति व्यग करना, क्रोध करना या कलहभरी वाणी कहना ठीक नहीं । अच्छे विद्यार्थियो-को शात रहना चाहिए। प्रत्येक विद्यार्थी को अपना मित्र समझते हुए उसके साथ 'मित्रता बने और मित्रता बढे-ऐसी वारणी बोलनी चाहिए। पुत्र की कलहभरो वारणी माँ को भी अच्छी नही लगती, तो वह दूसरो को कैसे अच्छी लग सकती है ? सदा ही मिश्री-सी मधुर वाणी बोलनी चाहिए। (तटस्थकुमार की ओर देखते हुए) और देखो,
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६० ।
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १ तटस्थकुमार! किसी की चुगली खाना भी एक पाप है। इससे आपस मे वैर-विरोध वढता है। अपने समान साथी की सव के सामने निन्दा करना और भी ठीक नहीं। सव से अच्छा यह है कि उसे एकान्त में चेता दो। यदि इससे वह न सुधरे, तो एकान्त में वडो से कह दो। (निर्दोपकुमार की ओर देख कर) अच्छा, अव निर्दोष । अपनी पुस्तक लायो। अब तक तुम्हारे
कितने पाठ हुए है ? निर्दोष : (श्रावकजी को पुस्तक देते हुए) अव तक चौदह
पाठ हुए हैं। श्रा० : (पुस्तक देखकर) निर्दोष ! देखो, पुस्तक की क्या
दशा हो गई है ? अव तक पुस्तक आधी भी नहीं हो पाई कि पन्ने फट गये है, इसके चारो ओर कितनी धूल लगी है। इसमे कई स्थानो पर तैल आदि के
कलङ्क (वब्वे) भी लग गये हैं। निर्दोष : श्रीमानजी! पुस्तक की ऐसी दशा वनने मे मेरा
कोई दोष नही है। एक बार मेरा छोटा भाई रो रहा था। मैंने उसे यह पुस्तक खेलने को दी, परन्तु उसने इसके पन्ने फाड़ डाले। एक बार मैंने यह पुस्तक घर के द्वार पर रखी, सेवक ने वही सारे घर का कचरा इकट्ठा कर दिया। एक बार यही जैनगाला मे हमे मिठाई खिलाई गई, उसके करण इस पुस्तक मे चिपक गये। वताइए, इसमे मैं दोषी हूँ या मेरा छोटा भाई, सेवक और हमे मिठाई खिलाने वाले दोपी है ?
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पाठ १५ - विवेक
[ ६१
श्रध्या० : देखो. निर्दोष । अपना दोष होते हुए भी दोष न स्वीकारने से सुधार नही होता । बच्चे को खेलने के लिए खिलौना दिया जाता है, पुस्तक कोई खिलौना नही है | बच्चो को पुस्तक देने से पुस्तक फटने का भय रहता है, इसलिए उन्हे पुस्तक नही देनी चाहिए | तुमने घर के द्वार पर पुस्तक रखने की असावधानी क्यो की ? वहाँ तो कचरा इकट्ठा किया ही जाता है । सेवक को भले ध्यान न पहुँचा हो, पर तुम्हारा कर्त्तव्य था कि 'तुम अपनी पुस्तक को कही ऊँचे और सुरक्षित स्थान पर रखते ।' मिठाई देने वाले तुम्हारा उत्साह बढाने के लिए और तुम्हारे प्रति अपना प्रेम प्रकट करने के लिए मिठाई देते है, परन्तु तुम उल्टे उन्हे दोपी बना रहे हो ! मिठाई आदि खाते समय अपनी पुस्तक को एक ओर रखकर फिर मिठाई आदि को शान्ति से और धीरे खानी चाहिए, जिससे पुस्तक न बिगडे ।
( उपकारनाथ की ओर मुंह करके ) अच्छा, उपकारनाथ ! तुम अपनी पुस्तक बताओ । उपकार : ( अपनी पुस्तक श्रावकजी को देते हुए ) देखिये, श्रीमान् । मेरी पुस्तक नई सी है । मैंने किसी दूसरे की पुस्तक का अच्छा जाडा-सा पुट्ठा उतारकर इस पर चढा दिया है । मैं इसकी प्रारण से भी अधिक रक्षा करता हूँ । एक दिन भी इसे खोलकर नही पढता । इसे अपने घर के आले मे कपडे में लपेट कर रखा करता हूँ । प्रायः इसे जैनशाला मे भी नही लाता ।
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६२] जैन मुबोध पाठमाला--भाग १
आज आप नये अध्यापकजी आये हैं, अत प्रदर्शन के
लिए ले आया हूँ। श्रा० : उपकारनाथ | तुम्हे जैनशाला से पुस्तके इसलिए
नही दी जाती कि तुम उसे पाले में ले जाकर रख दो। पुस्तक पढने के लिए है। उनको पढने के काम मे लाना चाहिए। 'मेरी पुस्तक अच्छी रहे, इसलिए दूसरो की पुस्तको से काम चला लूं। यदि दूसरो की पुस्तक बिगडे, तो इससे मुझे क्या ?' ऐसी भावना अच्छी नहीं है। इस भावना से आपस मे मैत्री और एकता नहीं बढती। बहुत वार दूसरो की पुस्तको से काम चलाने से या तो दूसरो के अध्ययन मे वाधा पडती है या अपने स्वय के अध्ययन मे बाधा पडती है। अत. अपनी पुस्तक का उपयोग करना चाहिए। अपनी पुस्तक की रक्षा के लिए भी किसी दूसरे की वस्तु लेना चोरी है। यह अच्छे छात्र का लक्षण नही है। कभी किसी की चोरी न करो। '(तटस्थकुमार की ओर मुंह करके हाथ लम्बा करते हुए) अच्छा, तटस्थकुमार! तुम अपनी पुस्तक
बताओ। तटस्थ : श्रीमान्जी। मैं पुस्तक के झगडे मे नही पडता ।
यदि अच्छो रखो, तो प्रशसा होती है और यदि बुरी रखो, तो निन्दा होती है। मैं निन्दा-प्रशसा से दूर रहना चाहता हूँ, इसलिए मैंने यहाँ से पुस्तक ही नही ली।
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पाठ १५ --विवेक यहाँ सुनते हुए कुछ स्मरण रह जाता है, तो मुझे प्रसन्नता नहीं, यदि कुछ स्मरण नहीं रहता, तो खेद नहीं। मैं प्रसन्नता और खेद को बुरा समझता हूँ। मैं परीक्षा भी इसीलिए नहीं देता। यदि उत्तीर्ण हो जाये, तो अभिमान होता है, यदि अनुत्तीर्ण हो जायँ, तो अपमान होता है। मैं मानापमान मे
पड़ना नहीं चाहता। अध्या० : तटस्थकुमार । तुम्हारी ये बातें ऐसी हैं कि 'मक्खी
न बैठे, इसलिए नाक ही कटवा लो।' परन्तु होना यह चाहिए कि नाक रक्खो, पर उस पर मक्खी बैठने न दो। प्रशसा जैसा कार्य करो, पर 'फूलो नही । उत्तीर्ण बनो, पर अभिमान करो नहीं। धार्मिक कार्यों में जो प्रसन्नता होती है, वह त्यागने योग्य नहीं है तथा ज्ञान का स्मरण न रहना आदि धार्मिक कार्य मे कमी पडने पर खेद होना ही चाहिए, तभी धर्म मे प्रगति होगी। एक बात यह भी तुम ध्यान रखना कि अपनी भूल को वड़ो, के सामने प्रकट कर देने मे ही लाभ है। मैंने विवरण-पत्र को देख लिया है, उसके अनुसार तुमने यहां से पुस्तक ली है और उसमे तुम्हारे हस्ताक्षर भी हैं। ज्ञात होता है कि उसे तुमने कही खो दी है। स्मरण रक्खो, वैद्य या दाई के सामने अपनी सच्ची स्थिति प्रकट कर देने वाला ही अन्त में सुखी बनता है। स्थिति प्रकट न करने वाला कुछ समय के लिए भले सुखी बन जाय, पर अन्त मे सुखी नहीं बन सकता। तुम सच्चे सुखी बनने जैसा काम करो।
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६४ । जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
(तीनो की ओर लक्ष्य करके) जैसा तुम तीनो ने नाम पाया है, उसे निरर्थक न बनाते हुए सार्थक बनायो।
इतने में गाला के अन्य सभी छात्र साथ मे ही अनुशासन व व्यवस्थापूर्वक शाला मे प्रविष्ट हुए। उन्होने क्रम से खडे होकर श्रावकजी का अभिवादन किया। फिर उसमे से एक प्रतिनिधि छात्र ने कहा-श्रावकजी। हम सभी आपके स्वागत के लिए स्टेशन गये थे। वहुत समय तक वहाँ गाडी की प्रतीक्षा करते रहे। फिर जानकारी हई कि आप मोटर से पधार गये है। हम आपका स्वागत न कर सके-इसका हमे वहुत खेद है। शाला मे पहुँचने मे भी विलम्ब हुयायाशा है, आप हमे क्षमा करेंगे।
अध्यापकजी ने स्वागत आदि का उत्तर देते हुए कहा : मैं आपके १. अनुशासन, २. व्यवस्था और ३ विनय से प्रसन्न हूँ। जानकारी न होने के कारण हुई भूल को भी आपने भूल स्वीकार की इससे मेरे हृदय मे आप सभी आज से ही वस गये हैं। आपके ज्ञान और चारित्र की वृद्धि हो यह मैं शुभकामना करता हूँ।
इस समय तक जैनगाला का समय समाप्त हो चुका था। श्रावकजो यात्रा से थके हुए भी थे, फिर भी वे चाहते थे कि अध्ययन प्रारम्भ किया जाय और कुछ समय चलाया जाय, परन्तु छात्रो ने श्रावकजी के विश्राम के लिए अध्ययन स्थगित रक्खा और शाति के साथ विसर्जित हो गये ।
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पाठ १६-इच्छाकारेणं आलोचना का पाठ
६५
पाठ १६ सोलहवाँ ३. इच्वाकारणं : आलोचना का पाठ
इच्छाकारेणं संदिसह भगवं ! इरियावहियं पडिक्कमामि इच्छं, इच्छामि पडिक्कमिउं ॥१॥ इरियावहियाए विराहणाए ॥२॥ गमणागमणे ॥३॥ पारणक्कमणे बोयक्कमणे हरियक्कमणे प्रोसा-उत्तिगपरराग-दग-मट्टी-मक्कडा-संतारणा-संकमणे ॥४॥ जे मे जोवा विराहिया ॥५॥ एगिदिया, बेइंदिया, तेइंदिया, चरिदिया, पोचदिया ॥६॥ अभिहया, वत्तिया, लेसिया, संघाइया, संघट्टिया, परियाविया, किलाभिया, उद्दविया, ठाणाप्रो ठाणं, सकामिया, जोवियानो, ववरोविया॥७॥ तस्स मिच्छा मि दुक्कडं।
शब्दार्थ :
आज्ञा के लिए प्रार्थना भगवं हे भगवान् । इच्छाकारेणं-याए अपनी इच्छा से । संदिसह =अाज्ञा कीजिए।
अपनी इच्छा मैं। इरियावहियं-इर्यापथि की क्रिया का चलने से लगने वाली क्रिया का)। पडिक्षमामिप्रतिक्रमण करना चाहता हूँ।
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६६ ]
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
गुरुदेव को थाना मिलने पर
}
इच्छं = आपकी आज्ञा प्रमाण है ।
उद्देश्य
इरिया बहियाए = मार्ग में चलने से हुई । विराहरणाए = विराधना से । पडिक्कमिचं = प्रतिक्रमण करने की ।
इच्छामि = इच्छा
करता हूँ ।
विराधित जीवो के कुछ नाम
गमरणागमरणे = जाने-आने में । पाखकुमणे = किसी (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) प्रारणी को दवाया हो । वीयकमरणे = वीज को दबाया हो । हरियाणे - हरित (वनस्पति) को दवाया हो । श्रीसा = प्रोस | उत्तिग = कीड़ी नगरा । पराग = पांच रग की काई (लोलण फूलरण) । पानी । मट्टी = सचित्त मिट्टी या । मक्कडा संतारणा = मकड़ी के जाले को संकमणे = कुचला हो । इत्यादि प्रकार से,
दग= सचित्त
विराधित सभी जीव
मे = मैंने । जे = जिन । जीवा = जोवो की । विराहिया = विराधना की हो । चाहें वे,
विराधित जीवो को ५ जाति
१ एगिंदिया = एक इन्द्रिय वाले । २. बेइंदिया = दो इन्द्रिय वाले । ३. तेइ दिया = तीन इन्द्रिय वाले । ४ चउरिदिया = चार इन्द्रिय वाले | या ५. पचिदिया = पाँच इन्द्रिय वाले हो । उनको,
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पाठ १७-इच्छाकारेण प्रश्नोत्तरी [६७
विराधना के १० प्रकार १. अभिहया-सम्मुख आते हो पर पैर पड गया हो या उन्हें हाथ से उठा कर दूर फेक दिये हो। २. वत्तिया:धूल आदि से ढंके हों। ३. लेसियामसले हों (भूमि पर रगडे हों)। ४ संघाइया=इकट्ठे किये हों। ५ संघट्टिया= छुए हो। ६ परियाविया=परिताप (कष्ट) पहुँचाया हो। ७. किलामिया =मरे हुए जैसे कर दिये हो। ८ उद्दविया भयभीत किये हो। ६ ठारणाओ=एक स्थान से, ठाणं अन्य स्थान पर । संकामिया-डाले हों। १० जीवियाओ=जीवन से, ववरोविया रहित किये हों। तो,
प्रतिक्रमण तस्स-उनका। मि= मेरा। दुक्कडं दुष्कृत (पाप)। मिच्छा-मिथ्या (निष्फल) हो।
पाठ १७ सत्रहवा 'इत्त्वाकारणं' प्रश्नोत्तरी
-
-
-
प्र० : 'इच्छाकारेण' सामायिक का कौनसा पाठ है ? उ० . तीसरा पाठ है। प्र० : यह पाठ कब बोला जाता है ? उ० • सामायिक लेते समय तिक्त्तो से वन्दना करके तथा , सामायिक पालते समय सीधे नमस्कार मन्त्र, पढ़ने के
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६८] जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
पश्चात् बोला जाता है तथा सामायिक लेते समय
कायोत्सर्ग मे भी बोला जाता है। प्र० : इच्छाकारेण के पाठ का दूसरा नाम क्या है ? उ० : आलोचना का पाठ । प्र० : इसे आलोचना का पाठ क्यो कहते हैं ? उ० : इससे जीव-विराधना की आलोचना की जाती है,
इसलिये। प्र० : विराधना किसे कहते है ? उ० : १. जीवो को दुख पहुँचाने वाली क्रिया को तथा २. जीवों
को दु.ख पहुँचना। प्र० : क्या चलने से ही विराधना होती है। उ० : नही। उठने से, वैटने से, हाथ-पाँव पसारने से,
सिकोड़ने से आदि क्रियायो से भी जीव-विराधना
होती है। प्र० : तव इच्छाकारेण से चलने से होने वाली जीव-विराधना
की ही आलोचना क्यो की है ? उ० : जैसे 'रोटी खाई'-इस वाक्य मे रोटी शब्द से शाक, दाल,
चावल आदि सव आ जाते हैं। इसी प्रकार यहाँ चलने से होने वाली जीव-विराधना की आलोचना से सभी प्रकार से होने वाली जीव-विराधना की आलोचना की
गई समझनी चाहिये। प्र० : जीव-रक्षा के लिए यदि किसी जीव को एक स्थान से
दूसरे सुरक्षित स्थान पर पूँज कर हटावे, तो क्या
विराधना का पाप लगता है ? उ० : नही। विना कारण सुख से बैठे जीवो को इधर-उधर
पूंज कर हटाना ठीक नही है। पर रक्षा के लिए तो
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पाठ १७-इच्छाकारेण प्रश्नोत्तरी [६६ उन्हे पूंज कर एक स्थान से दूसरे सुरक्षित स्थान पर हटाना ही चाहिए। इससे उन्हे कष्ट तो होता ही है, पर इसके लिए दूसरा उपाय नही है। जो इससे थोडी विराधना होती है, उसके लिए 'मिच्छा मि दुक्कड' देना
(कहना) चाहिये। प्र० . क्या किसी का मन दु खाना तथा कटु वचन बोलना
विराधना नही है ? । उ० : है। इसलिए किसी का मन दु खे ऐसा काम भी नही
करना चाहिए तथा ऐसी वाणी भी नहीं बोलनी चाहिए। इस पाठ मे यद्यपि शरीर को कष्ट पहुँचाने से होने वाली १० प्रकार की विराधना का ही 'मिच्छा मि दुक्कड' दिया है (कहा है), पर उससे मन-वचन की विराधना का
मिच्छा मि दुक्कड भी समझ लेना चाहिए। प्र० : क्या 'मिच्छा मि दुक्कड' कहने से ही पाप निष्फल हो
जाता है (धुल जाता है) ? उ० : नही। बिना मन केवल जीभ से कहने से पाप निष्फल
नही हो जाता। मन के पश्चाताप के साथ कहने से अवश्य ही निष्फल होता है। अत 'मिच्छा मि दुक्कड'
मन के पश्चाताप के साथ कहना चाहिए। प्र० : जीव-विराधना न हो-इसका उपाय क्या है ? उ० : 'यतना रखना' । प्र. : 'यतना' किसे कहते है ? उ० : १. जीव-विराधना का प्रसग न आवे-इसका पहले से
ही ध्यान रखना तथा २. प्रसग आने पर जीव-विराधना टालने का प्रयत्न करना।
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७० ]
जैन सुवोध पाठमाला--भाग १ प्र० : जीव-विराधना न हो--इसके लिये पहले से ही ध्यान
कैसे रखना चाहिए ? उ० : जीव-विराधना के स्थान से दूर बैठना चाहिए। जैसे
पृथ्वीकाय की यतना के लिए जहाँ सचित मिट्टी हो, अपकाय की यतना के लिए जहाँ पानी के घडे रक्खे हो, नल चलता हो, तेजस्काय की यतना के लिये जहाँ लोग प्राग तपते हो, वायुकाय की यतना के लिए जहाँ वायु अधिक चलती हो, वनस्पतिकाय की यतना के लिये जहाँ धान के थैले पडे हों, घट्टी हो, वृक्षो से पत्ते-फूलवीज गिरते हो, त्रसकाय की यतना के लिए जहाँ कीडोमकोडो के विल हो, मकडी के जाले हा, खटमला के स्थान हो, कीडी, मकोड़ी, मकडी आदि के जाने-माने के मार्ग हो-वहाँ नही बैठना चाहिए। यदि दूसरा स्थान न हो, तो हाथ भर दूरी से बैठने का ध्यान रखना चाहिए-जिससे पृथ्वीकायादि तथा द्वीन्द्रियादि की हिंसा का प्रसग ही उपस्थित न हो। इसी प्रकार कुत्ते, गाय आदि घुस जायं--ऐसे फाटक खुले नही रखना चाहिए, जिससे फिर उन्हे ताड कर निकालना न पड़े। गिर कर कोई जीव कैद न हो जाय या मर न जाय~-इसलिए पात्र खुले नही रखना चाहिए। किसी का पैर पड़ कर समूच्छिम जीवो की हिंसा न हो, मच्छर आदि पैदा न हो इसलिए मल-मूत्र जहाँ-तहाँ परठना (डालना) नही चाहिए। किसी का मन न दुखे- इसलिए मीठी तथा ऊँची वोली मे जान-चर्चा या वातचीत करना चाहिए। विना' पूछे कोई काम भी नहीं करना चाहिए। इत्यादि ध्यान रखने से जीवविराधना का प्रसग प्राय. नही पाता।
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पाठ १७-इच्छाकारणं प्रश्नोत्तरी [७१ प्र० : जीव-विराधना का प्रसंग आने पर विराधना टालने के
लिये क्या प्रयत्न करना चाहिये। उ० : अधिक जीव-विराधना न हो-इसका प्रयत्न करना
चाहिये। जैसे, पृथ्वीकाय की यतना के लिये जाते-आते पैर मे मिट्टी लग जाय, तो पैरो को पूंजकर बैठना चाहिये। अपकाय की यतना के लिये कपडा पानी से भीग जाय, तो उसे एक ओर रख देना चाहिये। रात्रि को बाहर जाते-आते मस्तक और अन्य अग कपडे से भली भांति ढककर जाना चाहिये,(जिससे रात्रि को सूक्ष्म बरसने वाली वर्षा के जीवो की मस्तक तथा अन्य अगों की ऊष्णता से विराधना न होवे।) तेजस्काय की यतना के लिये वन मे कोई चिनगारी लग जाय, तो यतना से दूर कर देना चाहिये। वायुकाय की यतना के लिये वायु से कपडे उडने लगे, तो वायुरहित स्थान मे जाकर बैठ जाना चाहिये। वनस्पतिकाय की यतना के लिये पत्ते, बीज आदि आ गिरें, तो धीरे-से उठाकर एक ओर जाकर रख देना चाहिये, पर बैठे-बैठे फेकना नही चाहिये। बसकाय की यतना के लिये कीडी, मकोडी आदि आसन या शरीर पर चढ जायं, तो देख-पूंज कर अलग करना चाहिये। कुत्ते आदि को शब्द से या धीरे-से हो दूर करना चाहिये। दिन को देख कर तथा रात्रि को मार्ग पूंजकर आना-जाना चाहिए। आसन आदि को देख-पूंजकर उठना-बैठना तथा सोना चाहिए । शरीर को देख-पूंजकर खुजालना चाहिए। ज्ञान-चर्चा या बातचीत करते हुए कोई कटु शब्द निकल जाय या कभी किसी के मन के विपरीत कोई काम हो जाय, तो हाथ जोड़कर नम्रता से क्षमा याचना करना चाहिये।
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७२ ]
जैन सुवोध पाठमाला
इत्यादि प्रयत्न करने से अधिक होने वाली विराधना
टल जाती है ।
-भाग १
daginnte
प्र० : इच्छाकारेण से क्या केवल जीव - विराधना की ग्रालोचना को जाती है ?
उ० : नही । अट्ठारह पापो में जीव-विराधना ( हिंसा ) का पाप पहला (मुख्य) है | इसलिए 'इच्छाकारेण' से जो जीव- विराधना की ग्रालोचना की है, उससे शेष रहे हुए १७ पापो की भी आलोचना की गई समझनी चाहिए । ( यहाँ भी पहले दिया हुआ 'रोटी खाई' का दृष्टान्त समझ लेना चाहिए ।)
पाठ १८ अट्ठारहवाँ
४. तस्सउतरी : उत्तरीकरण का पाठ
तस्स - उत्तरी- करणेणं,
पायच्छित्त करणं, विसल्लो- करणं, पावाणं
1 अन्नत्थ
विसोहि - करणं, कम्माणं, निग्घायरट्टाए, ठामि काउस्सग्गं ऊस सिएरणं, नोससिएरणं, खासिएणं, छोएणं जंभाइएणं, उड्डुएणं, वाय- निसग्गेणं, भमलीए, पित्त- मुच्छाए ॥१॥ सुहुमेह अंग-संचालेहि, सुहुमेहि खेल संचालेहि, सुमेह दिट्टि संचाहि ॥ २॥ एवमाइएहि, प्रागारेहि,
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पाठ १८ ---तस्सउत्तरी : उत्तरीकरण का पाठ
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भग्गो श्रविराहिलो हुज्ज मे काउस्सग्गो ॥३॥ जाव प्ररिहंताणं भगवंतारणं गमोक्का रेगं न पारेमि ॥४॥ ताव कार्य, ठाणे मोरगं झापोरगं, अप्पारगं वो सिरामि ॥ ५ ॥
शब्दार्थ :
किसके लिए ?
1
९. तस्स = उसकी ( उस पाप सहित आत्मा की ) । उत्तरी == विशेष उत्कृष्टता । करणे = करने के लिए । २. पायच्छित्त = प्रायश्चित्त । ३. विसोहि = विशुद्धि तथा ४. विसल्लो = शल्य ( काँटे ) रहित । करण = करने के लिए । ५. पावारणंश्राठो या (अठ्ठारह ही ) पाप । कम्मारणं = कर्मों का । निग्घायरणट्टाए = नाश करने के लिए 1
क्या करता हूँ ?
काउसर्ग = कायोत्सर्ग । ठामि करता है ।
किन गारो को छोड़ कर ?
===
१. ऊस सिएरणं = उच्छ्वास ( ऊँचा श्वास ) । २. नीससिए निश्वास ( नीचा श्वास ) | ३. खासिए = खाँसी 1 ४ छोए गं छौंक | ५ जंभाइएरणं = जभाई ( उबासी) । ६ उड्डुए = उगाल ( डकार ) । ७. वायनिसग्गेणं = अधोवायु ८. भमलीए - भ्रम (पित्त के उठाव से होने वाला चक्कर ) । 2 पित्तमुच्छाए - पित्त विकार की मूर्च्छा । १०. सुहुमेहि = सूक्ष्म ( थोडा, हल्का ) 1 ११. अंगसंचालेह - प्रंग का संचार ( अगो का फड़कना, रोमाच होना, हिलना) । १२ खेल =
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७४ ] जैन सुवोध पाठमाला--भाग १ श्लेप्म (कफ) की। संचालेहि संचार। १३. दिदि-दृष्टि (आँखों का, पलको का) संचालेहि सचार। एवमाइएहि = इत्यादि । प्रागारेहि = आगारों को। अन्नत्थ = छोड़कर।
क्या हो ? मे= मेरा। काउसगो-कायोत्सर्ग। प्रभग्गो थोड़ा भी। खण्डित न हो। अविराहिलो पूरा नष्ट न हो।
कब तक? जाव:जब तक। अरिहताण-अरिहंत भगवंतारणं 3 भगवान् को। नमुक्कारेणं नमस्कार करके (णमो अरिहंताण कहकर)। न(कायोत्सर्ग को) न। पारेमि=पार लूं।
। तब तक कायोत्सर्ग कैसे ? ताव-तब तककायंकाया को। ठाणेरणं- (एक स्थान पर) स्थिर करके। मोरणेणं- ( वचन से) मौन करके । झारणे = (मन से) ध्यान करके (रहूँगा)। अप्पारणं-(पहले की अपनी पापी) प्रात्मा को। वोसिरामिवोसिराता हूँ।
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७५
पाठ १६-तस्सउत्तरी प्रश्नोत्तरी
पाठ १६ उन्नीसवाँ . तस्साजरी प्रश्नोत्तरी ।
प्र० :.'तस्सउत्तरी' सामायिक सूत्र का कौनसा पाठ है? उ० : चौथा पाठ है। प्र० : यह पाठ कव बोला जाता है ? उ० ; 'इच्छाकारेण' के बाद । प्र. : यह पाठ बोलकर क्या किया जाता है ? उ० : कायोत्सर्ग । प्र० : कायोत्सर्ग में क्या-बोला जाता है ? . उ० : सामायिक लेते समय इच्छाकारेणं और पालते समय
लोगस्स बोला जाता है। प्र० : इस पाठ का दूसरा नाम क्या है ? उ० : उत्तरीकरण का पाठ । प्र० : इसे उत्तरीकरण का पाठ क्यों कहते हैं.?. उ० : इससे श्रात्मा को विशेष उत्कृष्ट बनाने के लिए कायोत्सर्ग
की प्रतिज्ञा की जाती है, इसलिए । प्र० : प्रायश्चित्त किसे कहते हैं ? उ० : १. जिससे पाप कटकर आत्मा शुद्ध बने तथा २. पाप
कटकर आत्मा का शुद्ध बनना। प्र० : विशुद्धि किसे कहते हैं ? उ० : अच्छे परिणामो से (विचारो से) आत्मा का विशेष
शुद्ध बनना।
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७६ ] जन सुबोध पाठमाला - भाग १ प्र० : गल्य (मोक्ष-मार्ग के काँटे) कितने है ? उ० : तीन हैं-१ माया-शल्य (क्रोध, मान, माया, लोभा
२. निदान-शल्य (धर्मकरणी का मोक्ष के अलावा
फल चाहना) ३. मिथ्यादर्शन-शल्य (मिथ्यात्व)। प्र० : आगार (ग्राकार) किसे कहते है ? उ० : प्रत्याख्यान (पचक्खाण) मे रहने वाली १. मर्यादा तथा
२. छूट को। प्र० : कायोत्सर्ग मे यागार क्यो रक्खे जाते हैं ? उ० : क्योकि १. जीव-रक्षा आदि के लिए कायोत्सर्ग वीच में
छोडना पडता है तथा २. कायोत्सर्ग मे श्वास आदि रोके
नही जा सकते। प्र० : प्रकट 'इच्छाकारेग' से एक वार पाप धुल जाने पर
दुवारा कायोत्सर्ग से और उसमे 'इच्छाकारेण' या 'लोगस्स' से पापो का नाश करने की आवश्यकता
क्या है ? उ० : जैसे अधिक मैला कपड़ा एक बार पानी से धोने से पूरा
स्वच्छ नही होता, उसे दुवारा क्षार (सोडा, सावुन
आदि) लगा कर धोना पड़ता है। उसी प्रकार आत्मारूप कपड़ा अधिक पाप वाला होने पर प्रकट पालोचनारूप पानी से पूरा धुल नही पाता, इसलिए उसे कायोत्सर्ग और उसमे 'इच्छाकारेणं' या लोगस्स-रूप क्षार
लगाकर दुवारा पूरा स्वच्छ बनाना पड़ता है। प्र० : मच्छर आदि काटने लगे, तो इच्छाकारेण या लोगस्स
पूरा होने से पहले ही 'णमो अरिहतारण' कह कर कायोत्सर्ग पाला जा सकता है क्या?
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पाठ १६-तस्सउत्तरी प्रश्नोत्तरी [ ७७ । उ० : नही। मच्छरादि काटने लगे,तो कष्ट सहन करना चाहिए।
कष्ट आने पर उन्हे सहन करने पर ही सच्चा कायोत्सर्ग होता है। ऐसा कायोत्सर्ग ही सच्चा प्रायश्चित्त है। वहो पापो को पूरा धो कर आत्मा को पूरा विशुद्ध बना सकता है। यदि मच्छरादि के काटने से कायोत्सर्ग
पाल लिया जाय, तो वह कायोत्सर्ग का भग कहलाता है। प्र० । 'इच्छाकारेण' या 'लोगस्स' पूरे गिनने के बाद ही
कायोत्सर्ग पाला जाता है, तो पारने के लिए णमो
अरिहतारण' कहने की आवश्यकता क्या है ? उ० : १. कायोत्सर्ग आदि जो भी प्रत्याख्यान (प्रतिज्ञा)
जितने समय के लिए किये जाते हैं, उसमे कुछ और समय बढाने का नियम है, उसे पालने के लिए। यह नियम इसलिए है कि समय से पहले प्रत्याख्यान पालने से जो व्रत भग हो सकता है, वह न हो सके तथा २ व्यवस्थित
कार्य-पद्धति के लिए। प्र० : जहाँ कायोत्सर्ग किया हो, वहाँ आग लग जाय, बाढ आ
जाय, डाकू लूटने लगे, राजा का उपद्रव हो जाय, भीत, छत आदि गिरने लगे, सर्प, सिंह आ जाय-तो उस समय प्राण-रक्षा के लिए वहाँ से हटकर दूर जाना पडे,
तो कायोत्सर्ग का भङ्ग होता है या नही? उ० : जहाँ तक हो सके, मृत्यु तक का भी भय छोड़कर . कायोत्सर्ग मे दृढ रहना श्रेष्ठ है, परन्तु यदि कोई प्राणरक्षा के लिए ऐसा कर ले, तो कायोत्सर्ग भड्न नही
माना जाता। प्र० : प्राणी-रक्षा के लिए-जैसे बिल्ली चूहे को पकडती हो,
तो बिल्ली से छुड़ाकर चूहे की रक्षा के लिए कायोत्सर्ग
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जन सुवोध पाठमाला--भाग १
वीच में ही छोडा जा सकता है या नहीं ? अथवा स्वधर्मी की सेवा के लिए-जैसे वे मूर्छा खाकर गिर रहे हो या गिर पड़े हो, तो उन्हें उठाने-करने के
लिए कायोत्सर्ग वीच मे ही छोडा जा सकता है या नही ? उ० : १. प्रारगी-रक्षा, २ स्वधर्मी-सेवा आदि के लिए तत्काल
कायोत्सर्ग बीच में ही छोड देना चाहिए। इससे कायोत्सर्ग भङ्ग नहीं होता, क्योंकि कायोत्सर्ग मे ऐसी मर्यादा रक्खी जाती है। परन्तु इन कार्यों को समाप्त
करके पुनः कायोत्सर्ग कर लेना चाहिए। प्र० : कायोत्सर्ग समान होने पर क्या बोलना चाहिए ? उ० . एक प्रकट नमस्कार मत्र तथा ध्यान पारने का पाठ। प्र० : ध्यान पारने का पाठ वताइए। उ० : कायोत्सर्ग मे पात-ध्यान या रौद्र-ध्यान ध्याया हो,
धर्म-ध्यान (या शुक्ल-ध्यान) न ध्याया हो, कायोत्सर्ग मे मन-वचन-काया चलित हुई हो, तो 'तस्स मिच्छा मि दुक्कड'।
पाठ २० बोसवाँ.
५. लोगस्स : चतुविशतिस्तव का पाठ
लोगस्स उज्जोयगरे, धम्म-तित्थयरे जिणे। अरिहन्ते कित्तइस्सं, चउवीसं .पि केवलो ॥१॥
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[ ७६
उसभ मजियं च वन्दे, संभव -मभिरणंदरगं च सुमहं च । पउमप्पहं सुपासं, जिगं च चन्दप्पहं वन्दे ॥२॥ सुविहिं च पुष्पदंतं, सीनल सिज्जंस वासुपुज्जं च । विमल-मरतं च चिरगं, धम्मं सति च वंदामि ॥३॥ कुंथं श्ररं च मल्लि, वन्दे मुरिणसुव्वयं नमिजिरांच । वंदामि रिट्टनेमि, पासं तह वद्धमारण च ॥४॥ एवं मए प्रभित्युना, विहुय रय- मला पहीरा-जर - मरणा । चउवीसं पि जिरणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥५॥ कित्तिय वंदिय- महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । श्रारुग- बोहिलाभं समाहि- वर-मुत्तमं दिन्तु ॥ ६ ॥ चंदेसु निम्मलयरा, श्राइच्चेसु श्रहियं पयासयरा । सागर- वर-गंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥७॥
पाठ २० - लोगस्स चतुर्विंशतिस्तव का पाठ
•
शब्दार्थ :
=
=
गुरण - स्मरण के साथ नाम - स्मरण - रूप कीर्त्तन की प्रतिज्ञा लोगस्स लोक का । उज्जोयगरे - उद्योत करने वाले । धम्म = धर्म के । तित्थयरे = तीर्थंकर | जिरणे = आत्म-शत्रुओं को जीतनेवाले । श्ररिहते = आत्म-शत्रुओ को नष्ट करने वाले । चउवीस = चौबीसो । पि- ही । केवली = केवलियो का . ( केवल ज्ञानियो का ) । कित्तइस्सं = कीर्त्तन करूँगा ।
、
- नाम - स्मरण - रूप कीर्त्तन
१. उसभं = ऋषभ (नाथ) । च - और । २. श्रजियं = प्रजित (नाथ) को । वंदे = वदना करता हूँ । ३. संभवं - सभव
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६०
जन सुबोध पाठमाला-भाग १ . (नाथ)। च=और। ४. अभिरणंदरणं अभिनन्दन । च
और। ५. सुमई सुमति (नाथ)। ६. पउमप्पहं पद्मप्रभ । ७. सुपासं-सुपार्श्व (नाय)। च और । ८. चंदप्पहं -
चन्द्रप्रभ। जिणं - जिनको। वंदे-वदना करता हूँ। च= ' और। ६ सुविहि-सुविधि (नाथ)। पुप्फदंतं- (सफेद कमल
के फूल के समान स्वच्छ दाँत होने से) जिनका दूसरा नाम पुप्पदत है, उनको । १०. सीअल = शीतल (नाथ) । ११. सिज्जंस- श्रेयास (नाथ)। १२. वासुपुज्ज - वासुपूज्य । १३. विमलं = विमल (नाथ)। च =और । १४. प्रगतं - अनत (नाथ)। जिरणं- जिन। १५. धम्म-धर्म (नाथ)। च - और । १६. सति - शान्ति (नाथ) को। वंदामि-वदना करता हूँ। १७. कुंथु - कुन्थु (नाथ)। च-और । १८. अरं = अर (नाथ) । १९. मल्लिं-मल्ली (नाथ) ।
२०. मुरिगसुव्वयं - मुनिसुव्रत। चौर। २१. नमि-नमि ' (नाथ)। जिणं जिनको । वदे-वदना करता हूँ। २२. रिट्टनेमि - अरिष्टनेमि। २३. पासं-पार्श्व (नाथ) । च-और। तह - उसी प्रकार। २४. बद्धमाणं - वर्द्धमान (स्वामी) को। वंदामि-वदना करता हूँ।
प्रार्थना एवं - इस प्रकार । मए मेरे द्वारा। अभित्युमास्तुति किये गये। विहुय-रय-मला-जिन्होने पाप-कर्म-रूप रज-मैल घो डाला। पहोरण-जर-मरणा-जरा (बुढ़ापा) और मरण नष्ट कर दिये (वे)। चउवीसं-चौबीस । पि-ही। जिरणवरा% जिनवर। तित्थयरा-तीर्थंकर। मे-मुझ पर । पसीयंतु%3D प्रसन्न हो।
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, 'पाठ २१--लोगस प्रश्नोत्तरी [८१ कित्तिय: जिनका (देवताओं के इन्द्र, असुरों के इन्द्र तथा नरेन्द्र तीनो लीक) ने कीर्तन किया है। वंदिय - वन्दन किया है। महिया-पूजन किया है (ऐसे)। जे-जो। एये। लोगस्स- (तीनो) लोक मे। उत्तमा- उत्तम। सिद्धासिद्ध हैं (वे मुझे)। प्रारुग्ग- सिद्धत्व (मोक्ष और उसके , उपाय)। बोहि = १. बोधि (सम्यक्त्व) का। . लाभं = लाभ (और) उत्तम - उत्तम । वरं %3D श्रेष्ठ । . समाहि २. समाधि (चारित्र) । “दितु = देवे ।
। चंदेसु-चन्द्रो से भी । निम्मलयरा:अधिक निर्मल प्राइच्चेसु- सूर्यों से भी। अहियं - अधिक । पयासयरा%3D प्रकाश करने वाले । वर-श्रेष्ठ । सागर-सागर (केसमान)। गंभीरा - गभीर । सिद्धा-सिद्धः । , मम = मुझे। सिद्धि - सिद्धि (मोक्ष)। दिसंतु- दिखावे (देवे) -
पाठ २१ इक्कीसवा लोगस्स प्रश्नोत्तरी
प्र० : 'लोगस्स' सामायिक सूत्र का कौनसा पाठ है ? - . . उ० : पाँचवाँ पाठ है। प्र० : यह पाठ कब बोला जाता है . उ० • ध्यान पारने का पाठ बोलने के बाद तथा सामायिक सूत्र • पालते समय यह कायोत्सर्ग में भी बोला जाता है। प्र० : इस पाठ का दूसरा नाम क्या है ?
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८२ ]
उ० : चतुर्विंशतिस्तव का पाठ ।
प्र० इसे चतुर्विंशतिस्तव का पाठ क्यों कहते है ?
उ० : इससे चौबीस तीर्थकरों की स्तुति की जाती है, इसलिए ।
•
प्र० : 'लोक का उद्योत करने वाले' का भाव क्या है ? उ० : विश्व का ज्ञान कराने वाले
जन सुवोध पाठमाला -भाग १
प्रo : यहाँ कीर्त्तन किसे कहा है ?
उ० मन से १- नाम स्मरण करने को श्रीर २. गुरण-स्मरण करने को ।
•
प्र० - यहाँ वन्दन किसे कहा है ?
उ० : मुख से १. नाम-स्तुति करने को और २. गुरण- स्तुति करने को ।
प्रे० : यहाँ पूजन किसे कहा है ?
उ. पूज्य मानकर (स्मरणीय और स्तवनीय मानकर ) काया ( पंचांग नमाकर) से नमस्कार करना ।
प्र० : क्या तीर्थंकरो की फूलो से पूजा करना 'पूजन' नहीं
?
•
कहलाता
उ० : नहीं। तीर्थंकरादि के सामने जाते हुए पहला अभिगमन है - सचित्त का त्याग | जब सचित्त को लेकर तीर्थंकरादि के सामने जाने का भी निषेध है, तव सचित्त फूलों से उनकी पूजा करना 'पूजन' कैसे कहला सकता है ? प्र० : कीर्त्तन तथा वन्दन से क्या लाभ होता है ?
जसे, गुणो के स्मरण तथा स्तुति से यह ज्ञान होता है कि कोनसे गुरणों वाला देव सच्चा देव हो सकता है ? तथा नामो के स्मरण तथा स्तुति से
उ० : १. ज्ञान बढता है |
1
। यह ज्ञान होता है कि ऐसे गुणों वाले सच्चे देव कौन हुए ?
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पाठ २१ - लोगस्स प्रश्नोत्तरी
[ ८३
२. श्रद्धा बढती है । जैसे, इन गुणों वाले देव ही सच्चे देव हैं तथा इन नामो वाले देव ही सच्चे देव हुए। ३. नये पाप-कर्म बँधते हुए रुकते हैं । क्योकि मन में स्मरण चलने से मन में आहारादि की सज्ञाएँ उत्पन्न नही होती तथा वचन से स्तुति होती रहने पर वचन से श्री आदि विकथाएँ नही होती !
४. पुण्य बँधते हैं । क्योकि स्मरण मन का शुभ योग है तथा स्तुति वचन का शुभ योग है ।
1
५. पुराने पाप कर्म क्षय होते हैं । स्तुति, स्वाध्याय तथा धर्म - ध्यान-रूप हैं ।
उ० : १- ज्ञानावरणीय,
t
क्योकि स्मरण तथा
प्र० ; लोगस्स में तीर्थंकरों को, जो अरिहन्त हैं, उन्हे सिद्ध भी क्यो कहा ?
·
दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय - ये आठ कर्मों मे चार मुख्य कर्म हैं । इनको नष्ट कर देने से तीर्थंकरो का प्रात्म-कल्याण का काम प्रायः सिद्ध हो चुका है, इसलिए । २. वर्तमान की अपेक्षा तो वे सिद्ध हैं ही ।
प्र० : क्या तीर्थंकर किसी पर प्रसन्न होते है . ? उ० : नहीं । क्योंकि वे राग-द्वेषरहित होते हैं ।
प्र० तब 'तीर्थंकर मुझ पर प्रसन्न हो' - ऐसी प्रार्थना क्यो की जाती है ?
उ० : इसलिए कि ऐसी प्रार्थना से हम मे मोक्ष प्राप्ति की योग्यता आती है और हम मे मोक्ष प्राप्ति की योग्यता आना ही 'तीर्थंकरो का प्रसन्न होना' माना गया है ।
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___E२]
जैन सुनौत्र पाठमाला-भाग १ उ० : चतुर्विंशतिस्तव का पाठ। प्र० · इसे चतुर्विंशतिस्तव का पाठ क्यों कहते हैं ? उ० : इससे चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है, इसलिए। प्र० : 'लोक का उद्योत करने वाले का भाव क्या है ? उ० : विश्व का ज्ञान कराने वाले। प्र० : यहाँ कीर्तन किसे कहा है ? उ० • मन से १. नाम स्मरण करने को पीर २. गुण-स्मरण
करने को। प्र० · यहाँ वन्दन किसे कहा है ? उ० : मुख से १ नाम-स्तुति करने को और २. गुण-स्तुति करने
को। ० : यहाँ पूजन किसे कहा है ? उ. : पूज्य मानकर (स्मरणीय और स्तवनीय मानकर) काया
(पचाग नमाकर) से नमस्कार करना । प्र० : क्या तीर्थंकरो की फूलो से पूजा करना 'पूजन' नहीं
कहलाता? . उ० . नहीं। तीर्थंकरादि के सामने जाते हए पहला अभिगमन
है -सचित्त का त्याग। जव सचित्त को लकर तीर्थकरादि के सामने जाने का भी निषेध है, तव सचित्त
फूलों से उनकी पूजा करना 'पूजन' कैसे कहला सकता है । प्र० : कीर्तन तथा वन्दन से क्या लाभ होता है ? उ० : १. ज्ञान बढता है। जसे, गुणो के स्मरण तथा स्तुति
से यह ज्ञान होता है कि कौनसे गुणों वाला देव सच्चा देव हो सकता है ? तथा नामो के स्मरण तथा स्तुति स यह ज्ञान होता है कि ऐसे गुणों वाले सच्चे देव कोन
(प
हुए?
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पाठ २१-लोगस्स प्रश्नोत्तरी
२. श्रद्धा बढती है। जैसे, इन गुणों वाले देव ही सच्चे देव हैं तथा इन नामो वाले देव ही सच्चे देव हुए। ३. नये पाप-कर्म बँधते हुए रुकते हैं। क्योकि मन में स्मरण चलने से मन में आहारादि की सज्ञाएँ उत्पन्न नही होती तथा वचन से स्तुति होती रहने पर वचन से स्त्री आदि विकथाएँ नही होती। । । । ४ पुण्य बंधते हैं। क्योकि स्मरण मन का शुभ योग है तथा स्तुति वचन का शुभ योग है। ' ५. पुराने पाप-कर्म क्षय होते हैं। क्योकि स्मरण तथा
स्तुति, स्वाध्याय तथा धर्म-ध्यान-रूप हैं। प्र० : लोगस्स मे तीर्थंकरो को, जो अरिहन्त हैं, उन्हें सिद्ध भी
क्यो कहा? उ० : १. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और
अन्तराय-ये आठ कर्मों मे चार मुख्य कर्म हैं। इनको नष्ट कर देने से तीर्थंकरो का आत्म-कल्याण का काम प्राय सिद्ध हो चुका है, इसलिए। २. वर्तमान की
अपेक्षा तो वे सिद्ध हैं ही। प्र० ; क्या तीर्थकर किसी पर प्रसन्न होते हैं,? उ० : नहीं। क्योकि वे राग-द्वेषरहित होते हैं। प्र० : तब 'तीर्थकर मुझ पर प्रसन्न हो'-ऐसी प्रार्थना क्यो की . . जाती है ? उ० : इसलिए कि ऐसी प्रार्थना से हम में मोक्ष-प्राप्ति की , योग्यता आती है और हम मे मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता
आना ही 'तीर्थंकरो का प्रसन्न होना' माना गया है।
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१२ जैन सुदीव पाठमाला--भाग १ उ० : चविंशतिस्तव का पाठ। प्र० • इसे चतुर्विंशतिस्तव का पाठ क्यों कहते हैं ? उ : इससे चौवीस तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है, इसलिए। प्र० • 'लोक का उद्योत करने वाले का भाव क्या है ? उ० : विश्व का ज्ञान कराने वाले। प्र० : यहाँ कीर्तन किसे कहा है ? . उ० : मन से १. नाम स्मरण करने को और २. गुण-स्मरण
करने को। प्र० । यहाँ वन्दन किसे कहा है ? उ० : मुख से १. नाम-स्तुति करने को और २. गुण-स्तुति करने
को। प्र० : यहाँ पूजन किसे कहा है ? उ. : पूज्य मानकर (स्मरणीय और स्तवनीय मानकर) काया
(पचाग नमाकर) से नमस्कार करना । प्र० : क्या तीर्थकरो की फूलो से पूजा करना 'पूजन' नहीं
कहलाता? . उ० : नहीं। तीर्थंकरादि के सामने जाते हए पहला अभिगमन
है -सचित्त का त्याग। जव सचित्त को लेकर तीर्थकरादि के सामने जाने का भी निषेध है, तव सचित्त
फूलो से उनकी पूजा करना 'पूजन' कैसे कहला सकता है । प्र० : कीर्तन तथा वन्दन से क्या लाभ होता है ? उ० : १. ज्ञान बढता है। जसे, गुणों के स्मरण तथा स्तुति
से यह ज्ञान होता है कि कौनसे गुणों वाला देव सच्चा देव हो सकता है ? तथा नामो के स्मरण तथा स्तुति से यह ज्ञान होता है कि ऐसे गणों वाले सच्चे देव कोन
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पाठ २१-लोगस्स प्रश्नोत्तरी [८३ २. श्रद्धा बढती है। जैसे, इन गुणो वाले देव ही सच्चे देव हैं तथा इन नामो वाले देव ही सच्चे देव हुए। ३. नये पाप-कर्म बँधते हुए रुकते हैं। क्योकि मन में स्मरण चलने से मन में आहारादि की सज्ञाएँ उत्पन्न नहीं होती तथा वचन से स्तुति होती रहने पर वचन से स्त्री आदि विकथाएँ नही होती।। . ४. पूण्य बँधते हैं। क्योकि स्मरण मन का शुभ योग है तथा स्तुति वचन का शुभ योग है। ५. पुराने पाप-कर्म क्षय होते हैं। क्योकि स्मरण तथा
स्तुति, स्वाध्याय तथा धर्म-ध्यान-रूप हैं। - प्र० : लोगस्स में तीर्थंकरो को, जो अरिहन्त हैं, उन्हे सिद्ध भी
क्यो कहा? उ० : १. ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और
अन्तराय -ये पाठ कर्मों मे चार मुख्य कर्म हैं। इनको नष्ट कर देने से तीर्थंकरो का आत्म-कल्याण का काम प्रायः सिद्ध हो चुका है, इसलिए। २. वर्तमान की
अपेक्षा तो वे सिद्ध हैं ही। प्र० : क्या तीर्थकर किसी पर प्रसन्न होते हैं.? उ० : नहीं। क्योकि वे राग-द्वेषरहित होते हैं । प्र : तब तीथंकर मुझ पर प्रसन्न हो'-ऐसी प्रार्थना क्यो की .. जाती है ? उ० : इसलिए कि ऐसी प्रार्थना से हम में मोक्ष-प्राप्ति की
योग्यता आती है और हम मे मोक्ष-प्राप्ति की योग्यता आना ही 'तीर्थंकरो का प्रसन्न होना' माना गया है।
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६२ ] जैन सुनाव पाठमाला-भाग १ उ० : चतुर्विशतिस्तव का पाठ। प्र० : इसे चतुविशतिस्तव का पाठ क्यों कहते हैं ? उ० : इससे चौवीस तीर्थकरों की स्तुति की जाती है, इसलिए। प्र० • 'लोक का उद्योत करने वाले का भाव क्या है ? उ० : विश्व का ज्ञान कराने वाले । प्र० : यहाँ कीर्तन किसे कहा है ? उ० . मन से १. नाम स्मरण करने को और २. गुरण-स्मरण
करने को। प्र० · यहाँ वन्दन किसे कहा है ? उ० : मुख से १. नाम-स्तुति करने को और २. गुण-स्तुति करने
को। ६० : यहाँ पूजन किसे कहा है ? उ, · पूज्य मानकर (स्मरणीय और स्तवनीय मानकर) काया
(पचाग नमाकर) से नमस्कार करना। प्र० : क्या तीर्थंकरो की फूलो से पूजा करना 'पूजन' नहीं
कहलाता? . उ० : नहीं। तीर्थकरादि के सामने जाते हए पहला अभिगमन
है -सचित्त का त्याग। जव सचित्त को लेकर तीर्थकरादि के सामने जाने का भी निषेव हैं, तव सचित्त
फूलो से उनकी पूजा करना 'पूजन' कैसे कहला सकता है ! प्र० : कीर्तन तथा वन्दन से क्या लाभ होता है ? उ० : १. ज्ञान वढता है। जसे, गरगो के स्मरण तथा स्तुति
से यह ज्ञान होता है कि कौनसे गुणों वाला देव सच्चा
देव हो सकता है ? तथा नामों के स्मरण तथा स्तुति स । यह ज्ञान होता है कि ऐसे गणों वाले सच्चे देव कान
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पाठ २१–लोगस्स प्रश्नोत्तरी [८५ तोर्थकर सम्यक्त्व तथा चारित्र देते हैं और मोक्ष दिखाते.
प्र० : आज तीर्थंकर, जव कि मोक्ष मे पधार गये है और
उपदेश नहीं देते है, तब ऐसी प्रार्थना क्यो की जाय ? उ० : इसलिए कि वे जो उपदेश दे गये हैं, वे हम मे उतरे और.
हम मोक्ष देखे। ऐसी प्रार्थना से उनके उपदेश धारण करने की हमारी भावना दृढ बनती है और धारण कर
हम मोक्ष के निकट बनते है। प्र० : क्या तीर्थंकरो की प्रार्थना से सांसारिक पदार्थ-जैसे
पत्नि, पुत्र धन, घर आदि मिल सकते हैं ? उ० : हाँ। । प्र० : तो क्या सासारिक पदार्थों को तीर्थकर देते हैं ? उ० . नही। किन्तु उनकी प्रार्थना से प्रसन्न होकर तीर्थकरो
के भक्तदेव सासारिक पदार्थ देते हैं या अपने-आप
सासारिक पदार्थ मिलते है। प्र० : क्या तीर्थंकरो से सासारिक पदार्थ की प्रार्थना करना . उचित है? उ० : नही। लोगस्स मे की गई प्रार्थना के समान मोक्ष की - पात्रता आये, सम्यक्त्व जागे, चारित्र.धारण हो, मोक्ष
प्राप्त हो-ऐसी ही प्रार्थना करनी चाहिए। प्र० : यदि कोई सासारिक प्रार्थना करता हो, तो? उ० : करना छोड दे। न छोड़ सके, तो सासारिक प्रार्थना
को दुर्बलता समझे और धार्मिक प्रार्थना को ही सच्ची प्रार्थना समझे।
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८६ ] जन सुवोध पाठमाला--भाग १ प्र० : तीर्थंकर चन्द्रो से अधिक निर्मल कैसे ? उ० . चन्द्र मे कुछ कलक (कालापन) दीखता है, पर तीर्थंकरों
मे चार घाति-कर्म-रूप कलक नहीं होता, इसलिए वे
चन्द्रो से अधिक निर्मल है। प्र० तीर्थकर सूर्यो से अधिक प्रकाश करने वाले कसे ? उ० : सूर्य कुछ ही क्षेत्र तक प्रकाश करता है, पर तीर्थकर
अपने केवल जान से सव क्षेत्रो को जानते हैं और प्रकाशित करते हैं। इसलिए तीर्थंकर सूर्यों से अधिक प्रकाश करने वाले हैं।
पाठ २२ वाईसवाँ ७. नमोन्धुणं : शकस्तव का पाठ
(पहला) नमोत्युरणं अरिहंतारणं भगवंतारणं ॥१॥ प्राइगराणं तित्थयराणं सयं संबुद्धारणं ॥२॥ पुरिसुत्तमारणं पुरिससोहारणं पुरिस-वर-पुंडरीयारणं पुरिस-वरगंधहत्थीणं ॥३॥ लोगुत्तमाणं लोगनाहाणं लोगहियाणं लोगपईवाणं लोगपज्जोयगराणं ॥४॥ अभयदयाणं चवखुदयाणं मग्गदयाणं सरणदयार्ण जीवदयाणं बोहिदयाणं ॥५॥ धम्मदयाणं धम्मदेसयाणं धम्मनायगाणं धम्म
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पाठ २२-नमोत्युणं : शकस्तव का पाठ [८७ सारहीणं धम्म-वर-चाउरंत-चक्कवट्टोणं ॥६॥ 'दीवो ताणं सरणं गई पइट्ठा', अप्पडिहय-वर-नारण-दंसरणधराणं, विअट्टछउमाणं ॥७॥ जिरगाणं जावयाणं तिनाणं, तारयाण बुद्धाणं बोहयाणं, मुत्ताणं मोयगाणं ॥८॥ सव्वन्नूणं सत्वदरिसोणं, सिव-मयल-मरुप-मणंत-मक्खय मवावाह-मपुरणरावित्ति-सिद्धिगइ-नामधेयं ठाणं सपत्ताणं, नमो जिरणाणं जियभयाणं ॥६॥ (दूसरा) नमोत्थुणं . सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं संपाविउ कामाणं । नमो जिरगाणं जियभयाणं ।
शब्दार्थ . नमोत्थुरग नमस्कार हो ।
किनको? अरिहंताणं सभी अरिहन्त। भगवन्ताणं = भगवन्तो को।
अरिहत भगवान् स्वयं कैसे हैं ? प्राइगराणं =धर्म की आदि करने वाले। तित्थयराणं-धर्मतीर्थ की रचना करने वाले। सयं-स्वय ही। संबुद्धारणंबोध पाने वाले।
अरिहत भगवान् सबमे कैसे हैं ? पुरिसुत्तमारणं = सब पुरुषो मे श्रेष्ठ। पुरिस सब पुरुषो मे । व्याकरण की दृष्टि से 'दीव-ताणसरप-गई-पइद्वारणं' पाठ होना चाहिए। किन्तु 'उववाइयसुत' मे उपर्युक्त पाठ ही है।
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'८८] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
सीहारणं-सिंह' के समान - (पराक्रमी) । वर-श्रेष्ठ। पंडरीयारणं-पुण्डरीक कमल के (श्रेष्ठ जाति के कमल के) समान (मनोहर)। वर=श्रेष्ठ। गंधहत्थीगंगंध हस्तो के (जिसके मद की गंध से दूसरे हाथी भाग जाते है, उसके) समान (परवादियो को भगाने वाले)।
अरिहंत भगवान विश्व के लिए कैसे है ? लोगुत्तमारणं लोक मे उत्तम । लोग-लोक के। नाहारणं % नाथ (अनिष्ट का नाश करने वाले)। हियारणे हितकारी (इष्ट की प्राप्ति कराने वाले)। पइवारणं-दीपक (लोक को प्रकाश देने वाले) तथा। पज्जोयगरा-प्रद्योत करने वाले (लोक को प्रकाशित करने वाले)।
अरिहत भगवान् हमे क्या देने वाले है ? अभय-अभय के। दयारणं देने वाले। चक्खु- (ज्ञान की) आँखे। मग% (मोक्ष का) मार्ग । सरण-(मोक्ष की) शरण। जीव- (सयम रूप) जीवन तथा। वोहि-बोधि (सम्यवत्व)। दयारण = देने वाले । . .
- अरिहत भगवान् हमारे लिए क्या करते हैं ? धम्म वर्म के। दयारणं देने वाले। धम्म-धर्म के। देसयारणं = (उप) देशक । धम्म धर्म के । सारहीएंसारथी'। धम्म - धर्म के। वर: श्रेष्ठ। चाउरंत - चार (गति) का अन्त करने वाले । चक्कवट्टीरणं - चक्रवर्ती। दीवो: (ससार-समुद्र मे डूबते हुयो को) द्वीप के समान। तारणं 3 'प्राणभूत (रक्षक) 1 सिरणं - शरणभूत । गइ - गतिभूत । पइट्ठा-प्रतिष्ठा (आधार) भूत।
के समान।
सर
पट्ठा
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पाठ २२-नमोत्थुण : शकस्तव का पाठ [८६
किस शक्ति से ऐसा उपकार करते है ? अप्पडिहय = (क्योकि वे) अप्रतिहत (पर्वतादि से कही भी न रुकने वाले)। वरनाग - श्रेष्ठ ज्ञान (केवल ज्ञान तथा) दंसरणं - (केवल) दर्शन के। धराग = धारक हैं उन्होंने । ििवअछउनाएं-ज्ञानावरणीयादि चार कर्म नष्ट कर दिये है।
अद्वितीय उपकारी : अपने समान बनाने वाले जिरणारण = (स्वय आत्म-शत्रुओं को) जीते हुए। जावयारगं% (तथा दूसरों को भी) जिताने वाले। तिण्पारणं - (स्वयं ससारसमुद्र को) तिरे हुए। तारयारणं - (तथा दूसरो को भी) तारने वाले। बुद्ध रणं (स्वय) बोध पाये हुए। बीहयारणं - (तथा दूसरों को भी) बोध प्राप्त कराने वाले। मुत्तारणं - (स्वयं कर्मबन्धन से छूटे हुए। मोयगाणं - (तथा दूसरो को भी) छुडाने वाले (ऐसे) । सव्वन्नूरणं = सर्वज्ञ । सव्वदरिसीरणं = सर्वदर्शी।
अरिहत भगवान् कैसे स्थान को पधारे ? सित्र - शिव (उपद्रवरहित)। अयलं-अचल (स्थिर)। अर= अरुज (रोगरहित)। अरणंतं =अनत (अन्तरहित)। अवखयं = अक्षय (क्षयरहित)। अव्वाबाह = अव्याबाध (बाधारहित)। अपुरणरावित्ति- अपुनरावृत्ति (पुनरागमन रहित)। सिद्धि गइ = सिद्धि गति। नामधेयं = नाम वाले। ठारणं = स्थान को। संपत्तारणं प्राप्त हुए। (दूसरे मे)। संपाविउकामारणं पाने की इच्छा वाले (योग्यता वाले)। "जियभयारणं - (ऐसे) भय को जीतने वाले । जिणार - जिनको। नमो नमस्कार हो ।
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६० ]
जैन सुवीध पाठमाला--भाग १
पाठ २३ तेईसवाँ नमोत्धुणं प्रश्नोतरी
प्र० • नमोत्युण सामायिक सूत्र का कौनसा पाठ है ? उ० : सातवाँ पाठ है। प्र० • छठा पाठ कौनसा है ? उ० , 'करेमि भते अर्थात् सामायिक का प्रत्याख्यान लेने का पाठ। प्र० • 'करेमि भते' कव वोला जाता है ? उ० : सामायिक लेते समय लोगस्स पढ़ लेने के पश्चात् वदना करके। प्र० . नमोत्गुण कब पढा जाता है ? उ० : सामायिक लेते समय 'करेमि भते' से सामायिक लेने के
वाद तथा पारते समय लोगस्स के बाद । प्र. : इस पाठ का दूसरा नाम क्या है ? उ० . गझस्तव का पाठ। प्र० : इसे शक्रस्तव का पाठ क्यों कहते है ? उ० , पहले देवलोक के इन्द्र, जिनका नाम गक्र है, वे भी इसी
नमोत्थुरणं से अरिहन्तों व सिद्धों की स्तुति करते हैं।
इसलिए इसे 'शक्रस्तव' कहा जाता है। प्र० : अरिहन्तों तथा सिद्धो की स्तुति (स्तव) कैसे करनी
चाहिए ? उ० : जैसे कि लोगस्स या नात्थुरणं में की गई है, अर्थात्,
उन्होंने दीक्षित बनकर जो तप किये और गुण प्राप्त किये, केवली वनकर जो उपकार किये, मोक्ष पहुँचकर जो सुख प्राप्त किये- उन्हीं कार्यों की स्तुति करनी चाहिए।
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पाठ २३-- नमोत्थुण प्रश्नोत्तरी [ ६१ परन्तु उन्होने ससार मे रहते जो-कुछ सासारिक कार्य
किये, उसकी स्तुति नहीं करनी चाहिए। प्र. : नमोत्थुरण के पढ़ने से क्या लाभ हैं ? उ० : लोगस्स के पढने से जो लाभ हैं, प्रायः वे ही लाभ
नमोत्थुरण से भी होते हैं, क्योकि दोनो मे तीर्थंकरो का
कीर्तन, वन्दन और पूजन किया गया है। प्र० : लोगस्स और नमोत्थुग मे क्या अन्तर है ? उ० : लोगस्स में प्रधान रूप से १. नाम-स्मरण २ नाम-स्तुति
३. नमस्कार और ४. प्रार्थना है तथा नमोत्थुण मे
१. गुरग-स्मरण २ गुण-स्तुति और ३. नमस्कार है। प्र० : जबकि लोगस्स और नमोत्थुरण दोनो समान लाभ वाले
हैं, तब दोनो की क्या आवश्यकता है ? उ० : १. नाम-स्मरण, नाम-स्तुति, प्रार्थना, गुण-स्मरण, गुण
स्तुति, नमस्कार आदि सभी भक्ति के विविध रूप हैं। सभी रूपो से की गई भक्ति, सर्वाङ्गीण होती है, अतः लोगस्स, नमोत्थुरणं दोनो आवश्यक है। २. सभी की आत्माएँ समान नहीं होती। किसी की नाम-स्मरण और नाम-स्तुति-रूप भक्ति मे विशेष तल्लीनता होती है, तो किसी की प्रार्थना मे विशेष 'तल्लीनता होती है, किसी की गुण-स्मरण और गुण-स्तुति मे विशेष तल्लीनता होती है, तो किसी की नमस्कार मे विशेष तल्लीनता होती है। इनमे से कोई भी भक्त भक्ति के लाभ से वचित न रहे-इसलिए भी लोगस्स तथा नमोत्थुरण दोनो आवश्यक हैं। ३. कोई नाम-स्मरण या नाम-स्तुति या प्रार्थना या गुणस्मरण या गुरण-स्तुति या नमस्कार इनमे से-किसी एक
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___६२ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १
ही भक्ति को उचित और अन्य प्रकार की भक्ति को अनुचित न बतावे, इसलिए भी लोगस्स और नमोत्थुरण
दोनो आवश्यक है। प्र० : सभी प्रकार की भक्ति मे कौनसी भक्ति सर्वश्रेष्ठ है ? उ० : गुरण-स्मरण-रूप भक्ति । प्र० : क्या इस भक्ति से सभी भक्तियो का काम चल सकता है ? उ० : सामान्यतया नही। कोई भक्ति अधिक लाभ कर
सकती है, पर दूसरी भक्ति का काम नही कर सकती। इसलिए सभी भक्तियाँ करनी चाहिए।
पाठ २४ चौबीसवाँ
सामायिक के ३३ दोष
मन के १० दोष गाथा : १ अविवेक २ जसो कित्ती ३ लाभत्थी,
४ गव्व ५ भय ६नियारपत्थी। ७ संसय ८ रोस अविरगउ,
१० अबहुमारगए, दोसा भारिणयव्वा ॥१॥ हिन्दी छाया : .. १ अविवेक २ यश कीति ३. लाभार्थी,
- ४ गर्व ५ भय ६ निदानार्थी।
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- पाठ २४-सामायिक के ३२ दोष [६३ ७ संशय ८ रोष अविनय,
१० अबहुमान-ये मनोदोष ॥१॥ १. अविवेक = सावद्य-निरवद्य आदि का विवेक न रखे। २ यशःकीत्ति = नाम, आदर-सत्कार आदि की इच्छा से सामायिक करे। ३. लाभार्थ = धन, पुत्र, स्त्री आदि के लाभ के लिए करे। ४ गर्व - सामायिक की शुद्धता, सख्या तथा अपने कुल आदि का गर्व करे। ५ भय = श्री सघ की निन्दा, समाज का अपवाद, राज का दण्ड, लेनदार की उपस्थिति आदि के भय से करे। ६ निदान : मोक्ष के अतिरिक्त अन्य फल की इच्छा से करे। ७. संशय = 'अब तक कुछ फल नही हुआ, अब क्या होगा?' आदि सामायिक के फल मे सशय करे। ८. रोष - रूठ-झगड कर सामायिक करें या सामायिक मे रागद्वेष करे। ६ अविनय = सामायिक तथा देव गुरु धर्म का विनय न करे। -१० अबहुमान = अति प्रेरणा से या परवश होकर करे, हृदय मे बहुमान न हो या न रखे।
वचन के १० दस दोष गाथा : १ कुवयरण २ सहसाकारे,
३ सछंद ४ संखेव ५ कलहं च । ६ विगहावि ७ हासो ८ ऽसुद्ध,
निरवेक्खो, १० मुरणमुरणा, दोसादस ॥२॥ हिन्दो छाया :
१ कुवचन . २ सहसाकार । ३ स्वच्छंद, ४ संक्षेप ५ कलह तथा।
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ε४ ]
जैन सुबोध पाठमाला - भाग १
७ हास्य
८ श्रशुद्ध,
६ निरपेक्ष, १० सुम्सुन वचन दोष ||२||
६ विकथा
१ कुवचन = विषयकारी, कपाययुक्त, अपशब्द आदि वचन कहे । २ सहसाकार = बिना विचारे चार भाषा मे से कोई भी भाषा वोले । ३. स्वच्छन्द = निरकुश होकर बोले । ४. सक्षेप = सामायिक की विधि पूरी न करे, पाठो को सक्षेप मे बोले । ५. कलह = वचन-युद्ध करे, क्लेशकारी वचन बोले । ६. विकथा = स्त्री - कथादि चार कथाप्रो में से कोई कथा करे । ७. हास्य = हास्य, कौतुहल, व्यग आदि करे । 5 अशुद्ध = पाठो को 'वाइद्ध' आदि प्रतिचार सहित अशुद्ध पढे अथवा प्रव्रती को आदर-सत्कार दे, उसे आने-जाने के लिए कहे । ६ निरपेक्ष = पाठ उपयोग शून्य या उपेक्षा करके पढे । स्पष्ट न बोले, गुनगुनावे |
१०. सुम्सु = पाठ
काया के १२ बारह दोष
गाथा :
१ कुप्रासरणं २ चलासरणं ३ चलदिट्ठी,
४ सावज्ज किरिया ५ऽऽलंबरण ६ ऽऽकुंचरण पसारणं ।
७ श्रालस्स, ८ मोडन & मल १० विमासरणं । ११ निद्दा १२ वैया वच्चति, बारस काय दोसा ॥३॥
हिन्दी छाया :
१ कुप्रासन
३ चलदृष्टि,
२ चलासन ४ सावद्यक्रिया ५ ऽऽलंबन ६ श्राकुञ्चन प्रसारण ।
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पाठ २५ - 'सामायिक' प्रश्नोत्तरी
७ श्रालस्य ८ मोटन मल १० विमासन,
११ निद्रा १२ वैयावृत्य, ये बारह कार्य दोष ॥३॥ १. कुप्रासन = अविनय - अभिमानयुक्त श्रासन से बैठे। जैसे— पैर पसारे, पाँव पर पाँव चढ़ाकर बैठे । २. चलासन = बिना कारण अग का आसन, वस्त्र का ग्रामन या भूमि का आसन बदले । ३. चलदृष्टि = दृष्टि स्थिर न रखखे, बिना कारण इधरउधरदे खता रहे। ४. सावद्यक्रिया = पाप - क्रिया करे, सासारिक क्रिया करे, आभूषण, घर, व्यापारादि की रखवालो करे या संकेत श्रादि करे । ५. श्रालंबन = रोगादि कारण बिना भीत, खभे आदि का टेकाले । ६ श्राकुंचन प्रसारण = कारण हाथ-पैर सिकौड़े-पसारे । ७ आलस्य = आलस्य से अग मोडे । ८. मोटन - हाथ-पेर की अगुलियाँ मोडे चटकावे । शरीर का मल उतारे । ५०. विमासन = शोकासन से बैठे, बिना पूँजे खाज खुजाले, रात्रि मे बिना पूँजे मर्यादा या श्रावश्यकता से अधिक चले । ११. वयावृत्य = बिना कारण दूसरो से सेवा करावे (या कंपन) स्वाध्यायादि करते डोलता रहे ।
६. मल =
[ ६५
पाठ २५ पच्चीसवाँ
'सामायिक' प्रश्नोत्तरी
По
सामायिक कहाँ करनी चाहिए ?
उ० . सामायिक निरवद्यं स्थान मे करे । जहाँ तक हीं,
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६६ ] जैन सुवोध पाठमाला--भाग १
१. जहाँ सन्त विराजते हों, वहाँ या उनके अभाव में २. जहाँ श्रावक सामायिकादि धर्म-क्रिया कर रहे हो या ३. करते हो, उस स्थान में सामायिक करे।- यदि ४. अपने घर मे सामायिक करना पडे, तो घर की रखवाली आदि के भाव उत्पन्न न हो, ऐसे एकान्त
स्थान में सामायिक करने का उपयोग रक्खे । प्र० · सामायिक किस समय करनी चाहिये ? उ० : यदि सामायिक एक से अधिक-कम बनती हो, तो
१ प्रातः उठते ही करे या २. भोजन से पहले तक सामायिक कर लेने का प्रयत्न रक्खे। यदि उस समय तक न बन सके, तो ३. सूर्यास्त से पहले ही चउ विहाहार (१. अगन, २ पान, ३. खाद्य, ४. स्वाद्य) या तिविहाहार (पानी छोड कर) का प्रत्याख्यान करके सायकाल प्रतिक्रमणादि के समय सामायिक करे। अथवा यदि यह भी अनुकूलता न हो, तो ४. जव भी अवसर मिले, तभी सामायिक करे। परन्तु जहाँ तक हो, किसी भी दिन को सामायिक क्रिया-रहित न जाने देने का प्रयत्न
करे। प्र० सामायिक का वेश कैसे पहने तथा उपकरण कैसे रक्वे ?
निरवद्य स्थान को देख-पूंजकर वहाँ अपना आसन लगावे। सासारिक वेश-कुरता, टोपी, पगडी, पेण्ट, पायजामा प्रादि--उतारे । एक लाग वाली धोती लगावें। (सतिजी के स्थान का प्रागार)। दुपट्टा लगाना हो, तो स्त्रियो के सामने निश्चित रूप से तथा अन्य समय में भी प्राय किसी भी कधे या वाहु को खुला न रखते हुए दुपट्टा लगावे। मुख-वत्रिका का प्रतिलेखन करके उसमे
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पाठ २५--'सामायिक' प्रश्नोत्तरी [६७ डोरा डालकर मुंह पर बाँधे । माला, पुस्तक आदि को अपने आसन पर रक्खे। पुंजनी को पुस्तक से कुछ
दूर रक्खे, पुस्तक पर न रक्खे । प्र० : सामायिक लेने को विधि क्या है ? उ० : सन्तों के उपाश्रय में सामायिक करने का अवसर प्रावे,
तो विनय के लिए पहले सन्तो को वन्दन करे, फिर वेशपरिवर्तन करे। फिर पुनः १. तिक्खुत्तो के पाठ से तीन वार पचांग वन्दना करे। 'तिक्खत्तो से करेमि' तक बोलते हुए तीन बार प्रदक्षिणावर्त करे। फिर दोनों घुटने भूमि पर टिका कर दोनों हाथों को सीप के समान जोडकर मस्तक पर लगाकर 'वंदामि से पज्जुवासामि' तक का पाठ बोलें। फिर पचाग झुकाते हुए 'मत्थएणं चदामि' कहे। तीन बार वन्दना करके चउवीसत्थव (आलोचना आदि) की प्राज्ञा ले। यदि गुरुदेव न हो, तो पूर्व या उत्तर दिशा में मुंह करके भगवान् महावीरस्वामी को या सीमधरस्वामी को वदन करे । फिर यदि बडे श्रावक उपस्थित हों, तो उनसे 'चउवीसत्थव की आज्ञा ले। न हो, तो भगवान् से ही प्राज्ञा ले। आज्ञा लेकर २ नमस्कार मत्र पढे। फिर ३. इच्छाकारेणं का पाठ बोलकर इपिथिक को आलोचना करें। फिर ४. तस्सउत्तरी बोलकर प्रायश्चित्त आदि के लिए कायोत्सर्ग.की प्रतिज्ञा करे। 'वोसिरामि' तक बोलने के पश्चात् कायोत्सर्ग करके 'कायोत्सर्ग मे इच्छाकारेण के पाठ का 'इरिया वहियाए विराहगाए से ववरोविया तक का अश मन मे चिन्तन करे। इस प्रकार कायोत्सर्गपूर्वक दूसरी बार की आलोचना-रूप प्रायश्चित्त से
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६८ ] जन सुबोध पाठमाला - भाग १
पूर्ण शुद्धि करके पूर्व की प्रतिज्ञानुसार 'रणमो अरिहंतारण' कह कर कायोत्सर्ग पारे । फिर 'गमो अरिहन्तारण से साहूण' तक एक प्रकट नमस्कार मन्त्र पढ। फिर ध्यान पारने का पाठ पढे । फिर कीर्तन के लिए चतुर्विंशतिस्तव-रूप ५. लोगस्स का पाठ पढ़े। फिर वन्दन करके गुरुदेव से या बड़े श्रावक से सामायिक का प्रत्याख्यान करे या उनकी आज्ञा होने पर अथवा उनके अभाव में भगवान् की साक्षी से स्वय ६. 'करेमि भते' के पाठ से सामायिक का प्रत्याख्यान करे। पाठ मे 'जाव नियम' शब्द से आगे जितनी सामायिके लेनी हों, उतने मुहूर्त उपरान्त का कथन करे। फिर ७. दो नमोत्थुरणं पढे। सिद्ध भगवान् को दिये जाने वाले पहले नमोत्युग में 'ठाणं सपत्ताण' तथा अरिहन्त भगवान् को दिये जाने वाले दूसरे नमोत्थुण मे 'ठाण सपाविड कामाण' कहे। यों
यह सामायिक लेने की विधि पूरी हुई। प्र० : सामायिक पारने की विधि क्या है ? उ० : सामायिक पारने को भी प्राय यही विधि है। जो
अन्तर है, वह इस प्रकार है : सामायिक में अट्ठारह सावध योग (पाप) का प्रत्याख्यान किया जाता है। इसलिए सामायिक करने की तथा उसके लिए चउवीसत्थव की गुरुदेव आदि से आज्ञा ली जाती है। परन्तु सामायिक पारने पर सावध योग (पाप) खुले हो जाते है। उन्हें खोलने की गुरुदेव आदि आज्ञा नहीं देते। इसलिए सामायिक पारने की प्राज्ञा के लिए वन्दना आदि न करे।
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पाठ २५ - 'सामायिक' प्रश्नोत्तरी [ ६६ सोवे ही २. 'नमस्कार मन्त्र' ३. 'इच्छाकारेण' और ४. 'तस्सउत्तरी' बोलकर कायोत्सर्ग करे। कायोत्सर्ग मे ५. लोगस्स का ध्यान करे। सामायिक लेते समय कायोत्सर्ग में जैसे इच्छाकारेण के पाठ के कुछ आगे-पीछे के शब्द छोडे जाते हैं, वैसे लोगस्स में एक भी पद नहीं छोड़े अर्थात् 'लोगस्स से दिसतु' तक पूरा पाठ बोले । फिर 'रणमो अरिहताण' कहकर कायोत्सर्ग पारे। फिर एक प्रकट नमस्कार मन्त्र तथा कायोत्सर्ग पारने का पाठ कहे। फिर एक प्रकट लोगस्स कहे। • 'करेमि भते के पाठ से सामायिक ली जाती है।' इसलिए पारते समय वह पाठ न बोले। सीवे ही पहले के समान ७ दो नमोत्थुरणं दे। फिर सामायिक पारने का पाठ ८. 'एयस्स नवमस्स सामाइयवयम्स' पूरा कहे। फिर एक नमस्कार मन्त्र पढ़ें। यो यह सामायिक पारने
की विधि पूरी हुई। प्र० : सामायिक की विधि खडे रहकर करना चाहिए या
बैठकर ? उ० : जहाँ तक शरीर मे थोडी भी शक्ति हो, वहाँ तक मनोबल
रखकर खडे रहकर विधि करना श्रेष्ठ है। शक्ति होते हुए भी बिना कारण' बैठे-बैठे सामायिक की विधि करने से 'अविनय-अबहुमान' नामक दोष लगता है। वारण होने पर भी जहाँ तक सम्भव हो, पर्यंक (पालथी-पालथी) श्रादि अच्छे आसन लगाकर बैठे। कुप्रासन से
नही बैठे। प्र० : खडे रहने की विधि क्या है ? . उ० : सशक्त और कारणरहित अवस्था मे खडे रहते समय
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१०० ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १
पैरो के अगले भाग मे चार अगुल का तथा पिछले भाग मे कुछ कम चार अगुल का अन्तर डालकर खडे रहना चाहिए। इस समय मस्तक को कुछ झुकाकर रखना
चाहिए तथा दृष्टि चल न रखते हुए स्थिर रखनी चाहिए। प्र० : खडे रहने की ऐसी मुद्रा को क्या कहते हैं और क्यों
कहते है ? उ० : ऐसी मुद्रा को 'जिनमुद्रा' कहते हैं। १. जिनेश्वर
(अरिहत) भगवान् कायोत्सर्ग आदि इसी मुद्रा से करते है, इसलिए इसे 'जिनमुद्रा' कहते हैं। २ इस मुद्रा से आलस्य पर विजय मिलती है। ३ तन-मन मे दृढता उत्पन्न होकर परिषहो (कष्टो) को सहने की शक्ति पाती
है। इसलिए भी इसे 'जिनमुद्रा' कहते है। प्र. : हाथ जोडने की विधि क्या है ? उ० : दोनो हाथो की अगुलियाँ आपस मे फंसाकर कमल की
कली के आकार मे हाय जोडने चाहिएँ और हाथो की
दोनो कोहनियो को नाभि के निकट टिकाना चाहिए। प्र० : हाथ जोडने की इस मुद्रा को क्या कहते है और क्यों
कहते है ? उ० : इस मुद्रा को 'योगमुद्रा' कहते है । इससे देव, गुरु,
धर्म, शास्त्र, आत्मा जिसका भी ध्यान करना हो, उसमें तन-मन अधिक अच्छे जुड़ जाते हैं। इसलिए इसे
'योगमुद्रा' कहते है। प्र० : क्या सामायिक लेने की और पारने की सारी विधि
जिनमुद्रा से खडे रहकर और योगमुद्रा से हाथ जोड कर करनी चाहिए अथवा पर्यंक आदि आसन से बैठ कर और योगमुद्रा से हाथ जोड़ कर करनी चाहिए ?
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पाठ २५–'सामायिक' प्रश्नोत्ती [ १०१ उ० . नही। कायोत्सर्ग और नमोत्थुण की विधि छोडकर
शेष पाठो की विधि करनी चाहिए। प्र० कायोत्सर्ग की विधि क्या है ? उ० कायोत्सर्ग जिनमुद्रा मे खडे होकर या पर्यकादि आसन
से बैठकर करना चाहिए, परन्तु योगमुद्रा से हाथ नही जोडने चाहिएँ। यदि कायोत्सर्ग जिनमुद्रा से (खडे रह कर) करना हो, तो दोनो हाथो को घुटनो की ओर लम्बे करके रखने चाहिएँ और खुले रखने चाहिएँ। और यदि पर्यंकासन (आलथी-पालथी) से करना हो, तो वाये हाथ को पालथे -पालथके बीचोबीच खुला रखना चाहिए और उसी पर दाये (जीमने) हाथ 'को खुला
रखना चाहिए। प्र० • कायोत्सर्ग मे हाथ इस प्रकार क्यो रक्खे जाते है ? उ० . हाथो को इस प्रकार रखने से देह के प्रति ममता छूटने
मे सहायता मिलती है। कायोत्सर्ग मे देह के प्रति ममता छोडनी चाहिए, इसलिए कायोत्सर्ग मे हाथो को
इस प्रकार रक्खा जाता है। प्र० • नमोत्थुरणं देने की विधि क्या है ? उ० नमोत्थुण देते समय योगमुद्रा से हाथ जोडने चाहिएँ तथा
दाये घुटने को मोडकर नीचे भूमि पर टिकाना चाहिए और बाये घुटने को मोडकर खडा रखना चाहिए। (यह नियम सलेखना के पाठ मे पढे जाने वाले नमोत्थुण के लिए लागू नहीं होता । सलेखना के समय नमोत्थुरा
पर्यंक आसन से बैठकर पढा जाता है।) प्र०., : नमोत्थुरण ऐसे आसन से क्यो पढा जाता है ? उ० : नमोत्थुरण मे भक्ति की जाती है। भक्ति के समय
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१०२ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
'भगवान् वडे है और हम छोटे है' यह बताने वाला विनयपूर्ण आसन होना चाहिए। शरीर के दाहिने अग शुभ और बाये अग अशुभ माने गये हैं। अत दाहिना घुटना शुभ और बायाँ घुटना अशुभ है। दाहिना शुभ घुटना नीचे टिकाना और बायाँ अशुभ घुटना खडा रखना 'भगवान् बड़े है और हम छोटे है-यह प्रकट करता है। इसलिए नमोत्युग मे ऐसे अासन से बैठा जाता है। हाथ जोडना तो स्पष्ट ही 'भगवान् (या गुरु)
बडे और हम छोटे'---यह बतलाने वाला है ही। प्र० . सामायिक मे क्या करना चाहिए ? उ० : सामायिक मे सावध योग (अट्ठारह पाप) त्यागे जाते है,
इसलिए उन्हे छोडकर निरवद्य योग अपनाना चाहिए। विशिष्ट प्रकार का पुण्य, सवर तथा निर्जरा-ये तीनो निरवद्य योग हैं। इनमे भी ध्यान मुख्य है। इसलिए
ध्यान की ओर अधिक लक्ष्य देना चाहिए। प्र० धर्म-ध्यान करने तथा टिकाने के आलंबन (उपाय)
बताइये। धर्म-ध्यान के बालंबन चार है १. वाचना-वॉचना लेना अर्थात् नया तत्वज्ञान, नई धार्मिक कथाएँ या स्तुतियाँ सीखना। २. पृच्छना=पूछना अर्थात् तत्वज्ञान, धार्मिक कथा या स्तुतियो मे जो भी गका उत्पन्न हो, उन्हे वडो से (ज्ञानियो से) पूछकर दूर करना तथा जिज्ञासा पूरी करना। ३. परियट्टरमा परिवर्तना अर्थात् सीखा हुआ तत्वज्ञान, सीखी हुई कथाएँ, स्तुतियाँ तथा प्राप्त किया हुआ समाधान दुहराना।
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पाठ २५ -- 'सामायिक' प्रश्नोत्तरी [१०३ ४. अणुप्पेहा- अनुप्रेक्षा, अर्थात् सीखे हुए तत्वज्ञान को, धर्म-कथाओ को, स्तुतियो को तथा प्राप्त किये हुए समाधान को दुहराते हुए उस पर चिन्तन करना, बारह
भावनाएं भाना। प्र० : सामायिक शुद्ध और उत्तम कसे हो ? उ० सामायिक के समय चारो आलवनों से धर्म-ध्यान करते
रहने पर प्राय मन पाप मे नही जाता। यदि कभी चला जाय, तो पुन शीघ्र उससे लौट आता है। मन पाप मे चले जाने पर तत्काल उसे धर्म मे जोड़ने के साथ ही 'मिच्छा मि दुक्कडं' देना (कहना) चाहिए। इस प्रकार करते रहने पर सामायिक नित्य अधिक शुद्ध और उत्तम होती जायगी। वहुत ध्यान रखने पर और बहुत प्रयत्न करने पर भी सामायिक मे मन थोडा-बहुत पाप मे वला ही जाता है, जिससे सामायिक मे अतिचार लग जाता है। अत जब तक निरतिचार सामायिक करने का योग्यता न
आवे, तब तक सामायिक कैसे की जाय ? उ० · १ किसो भो काम को पूरा शुद्ध करने को योग्यता पहले
नहीं आती। फिर धर्म के काम मे तो पहले योग्यता श्राना बहुत कठिन है। योग्यता काम करते-करते धीरेधीरे ही आती है। जो पहले योग्यता आने की प्रतीक्षा मे काम नहीं करता, वह योग्यता नहीं पा सकता, वरन् उसके लिए योग्यता पाने का मार्ग ही दूर हो जाता है। इसलिए सामायिक सातिचार हो, तो भी सामायिक करते रहना चाहिए, २ दूसरी बात यह भी है कि ध्यान और प्रयत्न रखते हुए भी सामायिक मे अतिचार लगकर
प्र०
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१०४ ] जन सुवोध पाठमाला--भाग १
सामायिक मे हानि हो जाय, तो भी योग में लाभ ही अधिक रहेगा। इसलिए भी सामायिक सतिचार होते
हुए भी अवश्य करते रहना चाहिए। प्र० • हम अणुव्रत-गुरगव्रत धारण न करें, दिन रात के २६
भाग तक बड़े-बडे पाप करते रहे और केवल एक
सामायिक कर ले, तो उपसे क्या लाभ है ? उ० • कोई विशेष लाभ नही। क्योकि शेष २६ भाग तो पाप
में जाते ही है। साथ ही साथ उन पापो के कारण सामायिक के समय मे भी विचारो की अधिक पत्रिता
और अच्छे विचारो की अधिक स्थिरता नही रह पाती। इसलिए आप अणुव्रत-गुणवत धारण कीजिए अर इस
प्रकार दिन-रात्रि को अधिक सफल वनाइए। प्र० . अणुवत-गुणव्रत धारण न करने के क्या कारण है ? उ० : अणुव्रत-गुणव्रत धारण न करने के दो कारण है :
१. स्वय मे रही हुई पाप की अधिक रुचि और २ कुटुम्ब, समाज, राज्य आदि दूसरो मे रही हुई अनीति व कुरीति । शुभ भावना और पुरुपार्थ मे दृढता लाने पर पहला कारण शीघ्र और वहुत अशो मे दूर हो सकता है और दूसरा कारण भी कुछ समय से कुछ अश तक दूर हो सकता है। अत अाप भावना और पुरुपार्थ कीजिए।
अणुवत-गुरगव्रत धारण बहुत करना कठिन नही है। प्र० यदि धारण न कर सके, तो ? उ० · तो भी सामायिक करने मे आत्मा को कुछ लाभ ही है ।
१. जसे सारे दिन अडियल रहने वाला या उत्पय में चलने वाला घोडा यदि ४८ मिनिट मे ५ मिनिट भी - सुपथ पर चले, तो इसमे कुछ लाभ ही है, हानि नहीं ।
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. पाठ २५ –'सामायिक' प्रश्नोत्तरी [ १०५ २. या जैसे सारे दिन धूल में खेलने वाला बालक यदि । ४८ मिनिट में ५ मिनिट भी शान्त होकर, बैठे, तो उसे लाभ ही है, हानि नही।
३. या जैसे सारे दिन कष्ट पानेवाले दुःखी को यदि ४८ मिनिट मे ५ मिनिट भी आत्म-शान्ति मिले, तो उसे लाभ ही है, हानि नही।
इसी प्रकार यदि अणुव्रत-गरणव्रत धारण न करने वाला ४८ मिनिट की एक सामायिक करके उसमें पांच मिनिट भी मन स्थिर रख सके, तो उसमें कुछ लाभ ही है, हानि नही ।
४. जैसे ३० हाथ की रस्सी मे से २६ हाथ रस्सी कुएँ में पड गई हो और १ एक हाथ रस्सी में से भी केवल चार अगुल रस्सी ही हाथ मे रही हो, तो उस चार अंगल रस्सी से भी वह पूरी रस्सी भी एक समय अपने हाथ में आ सकेगी।
५ या जैसे ३० चोरों में से एक चोर थोडा भी अपना बन गया, तो गया हुआ धन उसके द्वारा एक दिन पूरापूरा भी अपने हाथ मे आ सकेगा। इसी प्रकार यदि जीवन में एक भी सामायिक चलती रही, तो वह भविष्य मे आत्मा को बचा लेने मे काम ही आयेगी।
६ जिस प्रकार किसी रस्सी को बीच-बीच में से कई * स्थानो पर काट दी हो और फिर भले ही गाँठे देकर उसे
जोड भी दी हो, तो भी उसमे पहले वाला बल नही
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१०६ । जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
रहता, न उसका पहले वाला मूल्य ही रहता है। वैसे ही जीवन की पापी रस्सी को बीच में सामायिक कर-कर के कई स्थानो से काट दी हो और फिर भले ही उसे जोड दी हो, तो भी उसमे पाप का बल अधिक नही रहता, न पाप का पहले वाला मूल्य (भाव) ही रहता है। इसलिए पाप का वल और मूल्य (भाव) घटाने के लिए भी सामायिक उपयोगी है। अर्थात् एक मनुष्य दिन-रात पाप ही पाप करे, वह सामायिक या अन्य कोई भी धर्म-क्रिया न करे, तो उसके पाप मे जो तीन भावना रहेगी, वेसी तीव्र भावना कोई मनुष्य दिन-रात में केवले ही सामायिक करने वाला क्यों न हो, उसमें नहीं रहेगी। क्योकि जैसे अणुव्रत-गुणव्रत के न होने से उसका प्रभाव सामायिक पर पड़ता है और सामायिक की शुद्धता, मे मन्दता पाती है, उसी प्रकार सामायिक का प्रभाव २६ मुहूर्त मे होनेवाली पाप की भावना पर और , पाप के पुरुषार्थ पर कुछ-न-कुछ अवश्य पडता है और उसमे मन्दता आती है। इसलिए अणुव्रत-गुणवत धारण न हो सकने पर भो सामायिक अवश्य करनी चाहिए।
प्र० कुछ बडे-बडे लोग सामायिक करके विकथा निन्दा करने
लग जाते हैं। क्या यह ठीक है ? उ० · आप बालक हो, अभी अपना जीवन बनाओ। दूसरों
की आलोचना करना वडों का-गुरुओ का काम है। इसका विचार वे करेंगे। हाँ, आप यह अवश्य विचार रक्खो कि-१. हम भविष्य में भी सामायिक शुद्ध करते
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पाठ २५– 'सामायिक' प्रश्नोत्तरी [ १०७ रहेगे, २. दूसरों को भी शुद्ध सामायिक कराने वाले बनेगे और ३. शुद्ध सामायिक करने वालो का अनुमोदन करके उत्साह बढ़ाने वाले होगे।
अर्थ, भावार्थ, प्रश्नोत्तर और प्रासंगिक जानकारी सहित
सामायिक सूत्र समाप्त
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तत्व-विभाग
'पच्चीस बोल' के सत्तोक (थोकड़) के
कुहु बोल
सामायिक सूत्र सार्य के लिए अधिक उपयोगी चुने हुए बारह वोल अर्थ सहित । १, २, ३, ४, ५, ६, १०, १४, १८, १९, २२ और २३ वां। योग १२ ।
बोल : १. जो भगवान् या गुरुदेव बोले-वचन, कथन, वात। २. समान, वचन, कथन या वातो का समूह । ३ एक विपय। ४. सूत्रित अनेक विषय। ५. ज्ञान, जिसके द्वारा जानने योग्य, छोड़ने योग्य या आदरने योग्य तत्वो की जानकारी हो। ६. अक, सख्या। यह एक अनेकार्थक वहुप्रचलित और जैन पारिभापिक शब्द है। इसके लिए जैन सूत्रो मे 'स्थान' शब्द का प्रयोग होता है।
स्तोक (थोकड़ा): १. द्रव्य से, जिसके द्वारा शास्त्र के थोड़े मूल-भूत तत्वो का ज्ञान हो। २. क्षेत्र से, जिसके द्वारा थोडे पृष्ठो मे शास्त्र के मूल-भूत तत्वो का ज्ञान हो। ३ काल से, जिसके द्वारा थोडे समय मे शास्त्र के मूल-भुत तत्वों का ज्ञान
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तत्त्व-विभाग- पहला बोल 'चार गति' [ १०६
हो । और ४ भाव से, जिसके द्वारा अर्थ-रूप, संग्रह - रूप और क्रम-बद्ध होने के कारण थोडे परिश्रम से शास्त्र के मूलभूत तत्वो का ज्ञान हो ।
पच्चीस बोल का स्तोक (थोकड़ा) साथै
पहला बोल : चार गति । दूसरा बोल : पाँच जाति । तोमरा बोल : छह काय | चौथा बोल : पाँच इन्द्रिय । पाँचवाँ बोल. छह पर्याप्ति । नवमाँ बोल : बारह उपयोग । दसवाँ बोल : आठ कर्म । चौदहवाँ बोल : छोटी नव तत्व के ११५ भेद । अट्ठारहवाँ बोल : तीन दृष्टि । उन्नीसवाँ बोल : चार ध्यान । बाईसवाँ बोल . श्रावकजी के १२ बारह व्रत । तेईसवाँ बोल : साधुजी के पांच महाव्रत ।
पहला बोल : 'चार गति'
गति : पुण्य-पाप के कारण जीव की होने वालो अवस्था - विशेष । १. नरक गति : जिसमे जाकर महापापी जीव जन्म लेते हैं ।
२. तिर्यश्व गति : जिसमे जाकर सामान्य पापी जीव जन्म लेते हैं ।
1
३. मनुष्य गति : जिसमे जाकर सामान्य पुण्यवान जीव जन्म लेते हैं ।
४. देव गति : जिसमे जाकर महा पुण्यवान जीव जन्म
लेते है |
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११० ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १
तिर्यञ्च मे पाँचो जाति के जीव होते हैं। शेप नरक, मनुप्य तथा देव ये तीनो पञ्चेन्द्रिय हो होते है।
दूसरा बोल : 'पाँच जाति' जाति : समान इन्द्रियो वाले जीवो का समूह ।
१. एकेन्द्रिय : जिनको मात्र एक स्पर्श इन्द्रिय ही हो।। जैसे पृथ्वीकाय आदि।।
२. द्वीन्द्रिय : जिनको १ स्पर्श और २ रस-ये दो इन्द्रियाँ हो। जैसे लट, गिडोला, शख, सीप, कौडी, जोक, अलसिया इत्यादि।
३. त्रीन्द्रिय : जिनको १ स्पर्ग २ रस और ३ प्राणये तीन इन्द्रियाँ हो। जैसे जू, कीड़ी, मकौडा, लीख, चाचन, खटमल आदि।
४. चतुरिन्द्रिय : जिनको १ स्पर्श २ रस ३ घ्राण और ४ चक्षु-ये चार इन्द्रियाँ हो। जैसे विच्छू, भौरा, मक्खी, डास, मच्छर आदि।
५. पञ्चेन्द्रिय : जिनको १ स्पर्श २ रस ३ घ्राण ४ चक्षु और ५ श्रोत्र-ये पाँचो इन्द्रियाँ हो। जैसे पशु, पक्षी,. मनुष्य आदि।
तीसरा बोल : 'छह काय' काय : १. शरीर, देह या २. समान शरीर वाले जीवों का समूह।
१. पृथ्वीकाय : पृथ्वी (मिट्टी) ही जिनका शरीर हो। जैसे हीगलू, हड़ताल, भोडल, पत्थर, शीशा, सोना, चाँदी, हीरा, पन्ना आदि।
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[ १११
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२ अकाय: प् (पानी) ही जिनका शरीर हो । जैसे बरसात का पानी, गड्ढे का पानी ओस का पानी, धंवर का पानी, कुएँ का पानी, बावडी का पानी, तालाब का पानी, समुद्र का पानी इत्यादि ।
तत्त्व विभाग - तीसरा बोल : 'छह कार्य '
w
३. तेजस्काय : तेजस् (अग्नि) हीं जिनका शरीर हो । जैसे काष्ठ की ग्रग्नि, कोयले की अग्नि, बिजली की अग्नि, ज्वाला, अग्निकरण आदि ।
४. वायुकाय : वायु (हवा) ही जिनका शरीर हो । जैसे सामान्य वायु, तिरछी तेज बहने वाली आँधी, ऊपर गोल बहने वाली वायु, गुजारव करती बहने वाली वायु श्रादि ।
५. वनस्पतिकाय: वनस्पति ही जिनका शरीर हो । वनस्पति दो प्रकार की होती है - १ प्रत्येक और २ साधारण ( निगोद ) । जिस शरीर मे वह स्वयं अकेला ही मुख्य रूप से रहे - ऐसा शरीर जिसे मिला हो, उसे प्रत्येक वनस्पति कहते है । जैसे वृक्ष, पौधे, झाडियाँ, लताएँ, बेले, घास, शाक, धान्य श्रादि । जिस शरीर मे वह और दूसरे भी अनत जीव साधारण रूप से रहे - ऐसा शरीर जिसे मिला हो, उसे साधारण वनस्पति कहते है जैसे कादा, लशुन, गाजर, मूला, आलू, रतालू, नये निकले हुए त्ते, अकुर वाला धान्य आदि ।
।
1
[
ये ऊपर वाले पाँचो काय एकेन्द्रिय हैं तथा स्थावर काय कहलाते है । जिनका शरीर ऐसा हो कि वे सर्दी-गर्मी से बचने के लिए धूप-छाँव आदि मे आ-जा न सके, उन्हे स्थावरकाय कहते है ।
६. सकाय : जिनका शरीर ऐसा हो कि वे सर्दी-गर्मी से बचने के लिए धूप-छाँव आदि मे आ-जा सकें । द्वीन्द्रिय से पञ्चेन्द्रिय तक ये चार सकाय है । ..
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११२ ]
जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
चौथा बोल : 'पाँच इन्द्रिय'
इन्द्रिय : १. जिससे गव्द आदि जानने की सहायता मिले
या २. जिससे प्रात्मा-रूप इन्द्र की पहचान हो। ऐसा प्रात्मा का ज्ञान-गुण (भावेन्द्रिय) तथा पुद्गलो का स्कंध (द्रव्येन्द्रिय)। १ श्रोत्रेन्द्रिय : कान, कर्णेन्द्रिय । २. चक्षुरिन्द्रिय : अाँख, नेन्द्रिय । ३. प्रारणेन्द्रिय : नाक, नासिकेन्द्रिय । ४. रसेन्द्रिय : जिह्वा, जिह्वेन्द्रिय ।
५. स्पर्शेन्द्रिय : शीत-ऊण आदि स्पर्श को जानने वाली चमडी।
इन पाँच इन्द्रियो मे से स्पर्गेन्द्रिय सभी (छमस्थ) जीवो को होती है। एकेन्द्रियो को केवल यही स्पर्गेन्द्रिय होती है। यदि किसी को दो होगी, तो पाँचवी और चौथी होगी। जैसे द्वीन्द्रिय को। यदि किसी को तीन होगी, तो पाँचवी, चौथी और तीसरी होगी-जैसे त्रीन्द्रिय को। यदि किसी को चार होगी, तो पाँचवी, चौथी, तीसरी और दूसरी होगी-जैसे चतुरिन्द्रिय को। पाँच वाले को तो पॉचो होती ही हैं, जैसे पञ्चेन्द्रिय को। अर्थात् पहले की इन्द्रियाँ जिसे है, उसे पिछली २ इन्द्रियाँ अवश्य होगी। पिछली २ इन्द्रियाँ जिसे है, उसे पहले २ की इन्द्रियाँ हो भी सकती है और नही भी हो सकती।
पाँचवाँ बोल : 'छह पर्याप्ति' पर्याप्ति : शरीरादि के योग्य पुदलो को ग्रहण करके उन्हे रसादि
रूप में परिणत करने वाली आत्मा की शक्ति-विशेष ।
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तत्त्व विभाग-नवा बोल 'बारह उपयोग' [ ११३
१. आहार-पर्याप्ति शरीरादि के योग्य पुलों को ग्रहण करने वाली शक्ति।
२. शरीर-पर्याप्ति शरीर आदि वर्गणा के योग्य ग्रहण किये हुए पुदलो में से खल (नि सार) भाग को पृथक करने वाली
और शरीर वर्गणा के पुदेलो से सप्त धातु निर्मित करने वाली शक्ति। सप्त धातु के नाम -१ रस, २ रक्त (लोही), ३ मॉस, ४ मेद (चर्बी), ५ हड्डी, ६ मज्जा और ७ वीर्य ।
३. इन्द्रिय-पर्याप्ति सप्त धातुप्रो में से इन्द्रिययोग्य पुद्गलों को ग्रहण करके स्पर्शेन्द्रियादि रूप मे परिणत करने वाली शक्ति ।
४. श्वासोच्छवास-पर्याप्ति : प्रवास और उच्छवास योग्य वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके श्वास और उच्छ्वास रूप में परिणत करके (बदल करके) छोडने वाली शक्ति।
५. भाषा-पर्याप्ति : भाषा वर्गणा के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके भापा-रूप में परिणत करके छोड़ने वाली शक्ति ।
६. मनः पर्याप्ति • मनोवर्गणा के योग्य पुदलो को ग्रहण करके मन-रूप मे परिणत करके छोडने वाली शक्ति ।
इन छ पर्यातियो मे से तीन पारियाँ सभी (ससारी) जीवों को पूर्ण मिलती ही हैं। एकेन्द्रियो को पहली चार पूरी मिल सकती हैं। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय को पहली पाँच पूरी मिल सकती हैं और पञ्चेन्द्रिय को छहों पूरी मिल सकती हैं।
नवाँ बोल : 'बारह उपयोग' पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान, तथा चार दर्शन । योग १२ । उपयोग : द्रव्यो में रहे हुए सामान्य या विशेष गुण को जानना।
(जानने का व्यापार (प्रवृत्ति) करना)।
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___११४ ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १
__ पॉच ज्ञान ज्ञान १. द्रव्यों में रहे हए विशेप गूण को जानने की लब्धि
(शक्ति) तथा २ विशेष गुण का उपयोग (जानना)।
१. मति ज्ञान : १. इन्द्रिय और मन की सहायता से रूपी तथा अरूपी द्रव्यो मे रहे हए विशेष गुण को जानने की लब्धि (शक्ति) तथा २ विशेष गुण का उपयोग (जानना)।
२. श्रुत ज्ञान : श्रुत की (शास्त्रो की) सहायता से रूपी तथा अरूपी द्रव्यो मे रहे हुए विशेष गुग को जानने की लब्धि (शक्ति) तथा २ विशेष गुण का उपयोग (जानना) ।
३. अवधि ज्ञान : १ मात्र आत्मा की सहायता से केवल रूपी द्रव्यो मे रहे हुए विशेष गुण को जानने की लब्धि (शक्ति) तथा २ विशेष गुण का उपयोग (जानना)।
४. मनःपर्याय ज्ञान : १. मात्र आत्मा की सहायता से केवल मन की पर्यायो को जानने की लव्धि (गक्ति) तथा २. विशेष गुण का उपयोग (जानना)।
५. केवल ज्ञान : १. मात्र आत्मा की सहायता से सम्पूर्ण रूपी-ग्ररूपी द्रव्यों में रहे हुए विशेप गुगो को जानने की लधि (शक्ति) तया २ विशेष गुण का उपयोग (जानना)।
तीन अज्ञान १. मति अज्ञान, २. श्रुत अज्ञान, ३. विभंग झान : अज्ञान और अज्ञान के इन तीनो भेदो का अर्थ, ज्ञान और ज्ञान के तीनो भेदो के अर्थ के समान है। अन्तर यही है कि सम्यगदृष्टि का ज्ञान 'ज्ञान' माना गया है पोर मिय्यादृष्टि का ज्ञान 'अज्ञान' माना गया है।
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तत्त्व विभाग-नवां बोल : 'बारह उपयोग' [ ११५
चार दर्शन दर्शन : १. द्रव्यो मे रहे हुए सामान्य गुण को जानने की लब्धि
(शक्ति) तथा २. सामान्य गुण का उपयोग (जानना)।
१. चक्षु दर्शन : १. अॉख की सहायता से द्रव्यो मे रहे हुए सामान्य गुण को जानने की लव्धि (शक्ति) तथा २ सामान्य गुरण का उपयोग (जानना)।
२. अचक्षु दर्शन : १. कान, नाक, जोभ, स्पर्श तथा मन की सहायता से द्रव्यो मे रहे हुए सामान्य गुण को जानने की लब्धि (शक्ति) तथा २ सामान्य गुण का उपयोग (जानना)।
३ अवधि दर्शन और ४. केवल दर्शन : इन दोनो का अर्थ अवधि-ज्ञान और केवल-ज्ञान के अर्थ के समान है। अन्तर यह है कि विशेष गुण के स्थान पर सामान्य गुण कहना चाहिए।
इन मति-ज्ञानादि बारह मे से एक समय मे किसी एक का ही उपयोग रहता है, अर्थात् किसी एक से ही जानने का व्यापार चलता है, पर एक समय मे एक से अधिक का उपयोग नही रहता। किन्तु जानने की लब्धि (शक्ति) जीवो मे १२ मे से अनेक रहती हैं। एकेन्द्रिय मे मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान तथा अचक्षु-दर्शन तीन की सदैव लब्धि । शक्ति) रहती है तथा कभी मति-अज्ञान का उपयोग, तो कभी श्रुत-अज्ञान का उपयोग, । तो कभी अचक्षु-दर्शन का उपयोग- ये तीनो उपयोग भी मिलते
है। द्वीन्द्रिय और त्रीन्द्रिय मे मति-ज्ञान तथा श्रुत-ज्ञान मिलाकर पाँच लब्धि तथा पाँच उपयोग मिलते हैं। चतुरिन्द्रिय मे चादर्शन मिलाकर छह लब्धि तथा छह उपयोग मिलते है । देव नारक तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च मे अवधि-ज्ञान, विभग-ज्ञान तथा अधिग्दर्शन मिलौकर नव लब्धि तथा नव उपयोग मिलते है। मनुष्य मे बारहो लब्धि तथा बारहो उपयोग मिलते हैं।
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___११६ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १
दसवाँ बोल : 'पाठ कर्म' कर्म : मिथ्यात्वादि पाश्रवो के कारण से आकर प्रात्मा के साथ
बँधे हुए शुभ-अशुभ पुद्गल-विगेप।
१. ज्ञानावरणीय : प्रात्मा के ज्ञान गुण को ढकने वाला कर्म, सूर्य के प्रकाश को ढकने वाले 'मेघ' (वादल) के समान ।
२. दर्शनावरणीय : प्रात्मा के दर्शन गुण को ढकने वाला कर्म, राजा के दर्शन को रोकने वाले 'द्वारपाल' के समान ।
३. वेदनीय : आत्मा को साता असाता वेदन कराने वाला कम, जीभ को सुख अनुभव कराने वालो 'मधु' (गहद) और दुख अनुभव कराने वाली 'असि' (तलवार) के समान ।
४. मोहनीय : प्रात्मा के श्रद्धा और चारित्र गुण को मोहित (विकृत) करने वाला कर्म, मनुष्य के विवेक और शील को मोहित (विकृत) करने वाले 'मद्य' (मदिरा, शराब) के समान ।
५. आयुष्य : प्रात्मा को नरकादि गति मे रोके रखने वाला कर्म, अपराधी को कारागृह मे रोके रखने वाली 'हथकडी-बेडी' के समान ।
६. नामकर्म : आत्मा के अमूर्त गुरण (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित होना) को ढककर आत्मा को नाना वर्णादि सहित वनाने वाला कर्म। स्वच्छ वस्त्र पर नाना चित्र बनाने वाले 'चित्रकार' के समान ।
७. गोत्रकर्म : आत्मा के अगुरु लघु गुरण (हलका-भारी न होना, ऊँच-नीच न होना) को ढक कर ऊँच-नीच का भेद बनाने वाला कर्म । मिट्टी के छोटे-बडे पात्र बनाने वाले 'कुम्भकार' के समान ।
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तत्त्व विभाग-चौदहवाँ बोल : 'छोटी नव तत्व के ११५ भेद' [ ११७
८. अन्तराय कर्म : आत्मा के वीर्य गुण मे अन्तराय (विघ्न) डालने वाला कर्म। याचको को राजा से मिलने वाले दान मे विघ्न डालने वाले 'भण्डारी' के समान ।
__ इन आठ कर्मो मे से ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार कर्म घातीकर्म है। जो आत्मा के भावात्मक गुरगो को नाश करे, उसे घातिकर्म कहते हैं । आत्मा के भावात्मक गुण चार हैं-१ ज्ञान, २ दर्शन, ३ सम्यक्त्व-चारित्र तथा ४. वीर्य । जो आत्मा के भावात्मक गुणो का नाश न करे, किन्तु अभावात्मक गुणो का नाश करे, उसे अघाति कर्म कहते है। आत्मा के अभावात्मक गुण चार हैं-१ निराबाधत्व, २ अमरत्व, ३. अमूर्तत्व और ४. अगुरुलवुत्व । आठ कर्मो मे मोहनीय कर्म सवसे प्रबल, शेष तीन घातिकर्म मध्यम तया चार अघातिकर्म सबसे दुर्बल है।
चौदहवाँ बोल : 'छोटी नव तत्व के ११५ भेद' तत्व : वस्तु (पदार्थ) के वास्तविक स्वरूप को 'तत्व' कहते है।
मोक्ष-प्राप्ति के लिए जिन्हे जानना आवश्यक है, उन्हे यहाँ तत्व कहा गया है।
१. जीव तत्व के १४ भेद
जीव : जिसमे उपयोग अर्थात् ज्ञानशक्ति हो, अर्थात् जो चेतना
लक्षण हो, उसे 'जोव' कहते हैं। वह सुख-दुख का वेदक (अनुभव करने वाला) पर्याप्ति, प्राण, योग, उपयोग आदि सहित, आठ कर्मों का कर्ता (करने वाला) और उनका भोक्ता (भोगने वाला) है।
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११८ ] जैन सुवोध पाठमाला- भाग १
वह भूत, भविष्य और वर्तमान तीनो काल मे सदा
शाश्वत है। १- २ सूक्ष्म एकेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त ३ -४ बादर एकेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त ५-६ द्वीन्द्रिय के दो भेद यपर्याप्त और पर्याप्त ७- ८ त्रीन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त ९-१० चतुरिन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त ११-१२ असज्ञी पञ्चेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त १३-१४ संज्ञा पञ्चेन्द्रिय के दो भेद अपर्याप्त और पर्याप्त
सूक्ष्म जो काटने से कटे नही, छेदने से छिदे नही, भेदने से भिदे नही, जलाने से जले नही, रोकने से रुके नहीं, एक या अनेक जोवो के शरीर मिलने पर भी ऑखो से दिखाई दे नही, केवल-ज्ञान से दिखाई दे (छन्नस्थ न जान सके । केवली भगवान् के ज्ञानगम्य हो), उसे सूक्ष्म कहते हैं।
बादर : जो काटने से कटे, छेदने से छिदे, भेदने से भिदे, जलाने से जले, रोकने से रुके, एक या अनेक शरीर मिलने पर आँखो से भी दिखाई दे (छद्मस्थ भी जान सके), उसे वादर कहते है।
सज्ञी : मन. पर्याप्ति सहित जीव । असंज्ञी : मन पर्याप्ति रहित जीव ।
२ ग्रजीव तत्व के १४ भेद अजीव : जो उपयोग अर्थात् ज्ञान-शक्ति रहित हो, अर्थात् जो
जड लक्षण हो, उसे 'अजीव' कहते है। वह सुख दुख का अवेदक, पर्याप्ति, प्राण, योग, उपयोग ( अादि रहित, आठ कर्मों का अकर्ता और अभोक्ता है।
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तत्त्व विभाग-चौदवा बोल : 'छोटी नव तत्व के ११५ भेद' [ ११९ धर्मास्तिकाय के तीन भेद -१. स्कंध ३. स्कघदेश और ३. स्कंध प्रदेश। अधर्मास्तिकाय के तीन भेद-१. स्कंध २. स्कंधदेश
और ३ स्कंध प्रदेश। आकाशास्तिकाय के तीन भेद--१. स्कंध २. स्कंधदेश और ३. स्कंध प्रदेश । ये नव (३+३+३=8) तथा दसवाँ काल। ये अरूपी अजीव के दस भेद जानना। रूपो पुद्गलास्तिकाय के चार भेद-१. स्कघ २. स्कध देश ३. स्कध प्रदेश और ४ परमाणु। ये कुल चौदह भेद हुए।
अस्तिकाय : सम्पूर्ण प्रदेशो का समूह। स्कंध . परस्पर जुडा हुआ प्रदेशो का अखण्ड समूह ।
स्कघदेश : स्कध में बुद्धि से कल्पित सविभाग भाग जिसका और भी भाग हो सके-ऐसा भाग। कही-कहीं निविभाग भाग जिसका और भाग न हो सके, उसे भी स्कधदेश माना गया है।
स्कधप्रदेश : स्कध मे बुद्धि से कल्पित निविभाग भाग, सबसे छोटा भाग, जिसका और भाग न हो सके।
परमाणु : रकध मे न जुडा हुआ, सबसे छोटा द्रव्य ।
३ पुण्य तत्व के ६ भेद पुष्य : १. जो आत्मा को पवित्र करे, उसे पुण्य कहते है।
२ आत्मा के अन्न-दानादि शुभ परिणाम। ३ मनवचन-काया के अन्नदान आदि शुभ योग। ४ उन दोनो के द्वारा आत्मा के साथ बंधे हुए शुभ प्रकृति वाले उज्ज्वल कर्म-पुद्गल तथा ५ उन पुण्यकर्मों के फल 'पुण्य' है। पुण्य का मधुर फल भोगना बहुत सरल है, किन्तु उसका उपार्जन करना बहुत कठिन है। पुण्य धर्म
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१२० ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
का सहायक तथा पथ्य रूप है। (यहाँ पुण्य का वन्ध कराने वाले आत्मा के अन्न-दानादि शुभ परिणाम तथा मन-वचन-काया के अन्न-दानादि शुभ योग को पुण्य कहा है)।
१. अन्न-पुण्य : धर्म भाव या अनुकम्पा भाव से अन्न (अर्थात् शाकाहारी भोजन) देना। २. पान-पुण्य : पानी देना । ३. वस्त्र-पुण्य : वस्त्र (कपडा) देना। ४. लयन-पुण्य : रहने के लिए घर, स्यानादि देना। ५. शयन-पुण्य : सोने-बैठने के लिए शय्या-पासनादि देना। ६. मनःपुष्य : ज्ञानादिक धर्म के लिए भाव (या दानादिक धर्म के भाव) तथा जीव-रक्षा-रूप अनुकंपा के भाव रखना। ७. वचन-पुण्य : धर्म-वचन, अनुकपा-वचन श्रादि शुभ वचन बोलना । ८, काय-पुण्य : वैयावृत्य, जीव-रक्षा आदि शुभ क्रिया करना। ६. नमस्कार-पुप्य : गुणवान को नमस्कार करना।
४. पाप तत्व के १८ भेट पाप : १. जो आत्मा को मलिन करे, उसे 'पाप' कहते हैं।
२ आत्मा के प्राणातिपात आदि अशुभ परिणाम ३ मनवचन-काया के प्राणातिपातादि अशुभ योग ४ उन दोनो के द्वारा आत्मा के साथ बँधे हए अशुभ प्रकृति वाले मलिन कर्म पुद्गल तया ५ उन पाप-कर्मो के कटु फल 'पाप' है। पाप का उपार्जन करना बहुत सरल है, पर उसका कटु फल भोगना बहुत कठिन है। पाप धर्म का विरोधो तथा अपथ्य-रूप है। (यहाँ पाप का वन्ध कराने वाले आत्मा के प्राणातिपातादि अशुभ परिणाम तथा मन-वचनकाया के प्राणातिपातादि अशुभ योग को 'पाप' कहा है।
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तत्त्व विभाग--चौदहवाँ बोल' 'छोटी नव तत्व के ११५ भेद' [ १२१
१. प्राणातिपात : जीवहिंसा २. मृषावाद : झूठ । ३. अदत्तादान : चोरो। ४. मैयुन : अब्रह्मचर्य-कुशील । ५. परिग्रह · धर्मोपकरगो से अन्य धन, भूमि आदि रखना तथा धर्मोपकरणो पर ममता रखना । ६: क्रोध : रोष । ७. मान : अहकार। ८. माया : छल, कपट। ६. लोभ : लालच और तृप्रगा। १०. राग : प्रेम। ११. द्वेष : वैर, विरोध । १२. कलह : क्लेश, लडाई। १३. अभ्याख्यान : कलक लगाना। १४ पैशुन्य : चुगली खाना। १५. पर-परिवाद : निन्दा करना । १६. रति : मनोज्ञ विषयो में आनन्द । भरति : अमनोज्ञ विषयो मे खेद-विषाद। १७. माया मृषा : कपट सहित झूठ। १८. मिथ्यादर्शन शल्य : कुदेव, कुगुरु, कुधर्म, कुशास्त्र पर श्रद्धा-रूप मोक्ष-मार्ग के कॉटे।
५. आश्रव तत्व के २० भेद साश्रव · १. द्वार या नाले को 'पाश्रव' कहते हैं। २ आत्मा के
मिथ्यात्वादि अशुभ परिणाम । ३. मन-वचन-काया के अयतनादि अशुभ योग तथा ४ उन दोनो के द्वारा आत्मा-रूप नौका (या तालाब) मे पाप-कर्म-रूप जल का आना (या प्रात्मा-रूप वस्त्र मे पाप-कर्म-रूप रज का लगना) 'पाश्रव' है,। (यतनादि शुभ योग और उसके द्वारा पुण्य का पाना भी 'पाथव' है, पर वह पाप श्राश्रव को रोकने वाला होने से 'सवर' माना गया है। यहाँ आत्मा के मिथ्यात्वादि अशुभ परिणाम और मन-वचन-काया के अयतनादि अशुभ योग को
'आश्रव' कहा है।) , १० मिथ्यात्व (सेवन करना) २. अव्रत (व्रत प्रत्याख्यान न लेना) ३. प्रमाद (करना) ४. कषाय (करना) ५. अशुभ
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१२२ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १ योग। ६. प्रारणातिपात (हिंसा करना) ७. मृषावाद (झूठ वोलना) ८. प्रदत्तादान (चोरी करना) है. मैयुन (सेवन करना) १०. परिग्रह (रखना) ११. श्रोत्रेन्द्रिय वश में न रखना । १२. चक्षुरिन्द्रिय वश मेन रखना। १३. घ्राणेन्द्रिय वश में न रखना। १४. रसेन्द्रिय वश में न रखना। १५. स्पर्शेन्द्रिय वश मे न रखना। १६. मन वश में न रखना । १७. वचन वश में न रखना। १८. काया वश मे न रखना। १६. भंड उपकरण अयाना से उठाना, अयतना से रखना । २० सूई कुशाग्नमात्र अघतना से उठाना, अयतना से रखना।
६ सवर तत्व के २० भेद संबर : १ क्पाट या वाँध (पटिये) को 'सवर' कहते हैं।।
२ अात्मा के सम्यक्त्वादि शुभ परिणाम, ३ मन-वचनकाया के यतनादि शुभ योग तथा ४. उन दोनो के द्वारा । यात्मा-रूप नौका या (तालाव में) मे पाप-कर्म-रूप जल का आगमन रुकना या प्रात्मा-रूप वस्त्र मे पाप-कर्म रूप रज का लगाव कना 'सवर' है। (अयोग तथा पुण्य का रुकना भी सवर है, परन्तु वह छन्नस्थों से अशक्य होने से उपदेश योग्य नहीं है। यहाँ आत्मा के सम्यक्त्वादि शुभ परिणाम तथा मन-वचन-वाया के यतनादि शुभ योग को सवर कहा है।)
१ सम्यक्त्व २. व्रत (प्रत्याख्यान लेना) ३. अप्रमाद (प्रमाद न करना) ४. अकपाय (कपाय न करना। ५. शुभ योग । ६. प्राणातिपात विरमरण (हिसा न करना) ७. मृषावाद विरमरण (भूठ न बोलना) ८. अदत्तादान विरमरण (चोरी न करना) ६. मयुन विरमरण (मैथुन का सेवन न करना) १०. परिग्रह विरमण (परिग्रह न रखना) ११. श्रोत्रेन्द्रिय वश मे रखना
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तत्त्व विभाग — चौदहवाँ बोल - 'छोटी नव तत्व के ११५ मेद' [ १२३
१२. चक्षुरिन्द्रिय वश में रखना १३. घ्राणेन्द्रिय वश में रखना १४. रसेन्द्रिय वश मे रखना १५. स्पर्शेन्द्रिय वश में रखना १६ सन वश में रखना १७. वचन वश से रखना १८. काया वश में रखना १६. भड उपकरण यतना से उठाना, यतना से रखना २० सूई कुशाग्र मात्र यतना से उठाना, यतना से रखना ।
७. निर्जरा तत्व के १२ भेद
निर्जरा : १. जीर्ण होकर भिन्न होने को निर्जरा कहते हैं । २. आत्मा के धर्म-ध्यानादि शुभ परिणाम ३. मनवचन काया के वेयानृत्य आदि शुभ योग तथा ४. उनके दोनों के द्वारा ग्रात्मा - रूप नौका ( या तालाब ) मे से पाप-कर्म-रूप जल का निकलना ( या आत्मारूप वस्त्र मे से पाप-कर्म-रूप रज का निकलना ) निर्जरा है | ( विपाक से होने वाली ग्रकाम निर्जरा या बाल तप आदि से होने वाली निर्जरा भी निर्जरा है, पर वह आदरणीय न होने से उपदेश योग्य नही है । प्रयोग से पुण्य की निर्जरा होना भी निर्जरा है, परन्तु वह भी छद्मस्थो से अशक्य होने के कारण उपदेश योग्य नही है । यहाँ आत्मा के ध्यानादि शुभ परिणाम तथा मन-वचन-काया के वैयावृत्यादि शुभ योगो को निर्जरा कहा है ।)
१. अनशन : १. भोजन या भोजन-पान न करना ( उपवास करना ) । इसी प्रकार २ वस्त्र ३ पात्र न रखना, ४. क्रोधादि न करना भी अनशन है ।
२. ऊनोदरी : १ भूख से कम भोजन करना । इसी प्रकार २. वस्त्र ३. पात्र कम रखना ४. कोधादि कम करना भी 'ऊनोदरी' है ।
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१२४ ] जैन सुबोध पाठमाला भाग १
३. भिक्षाचरी भिक्षा के दोपो को वर्जते हुए (दोष न लगाते हुए) भिक्षा लाना। मै भोजन-पान की १. वह वस्तु २. उस क्षेत्र मे, ३ उस काल मे, ४ उस प्रकार से मिलने पर ही लंगा, अन्यथा नहीं' ---इत्यादि अभिग्रह (मन मे निश्चय) करना भी भिक्षाचरी तप मे है।।
४. रस परित्याग रस अर्थात् विकृति (विगय) आदि का त्याग करना। विकृति पाँच है। १. दूध २. दही ३ घी ४. तेल ५. गुड-शकर । निबिगई, पायबिल आदि भी रस परित्याग मे हैं।
५. काय क्लेश : काया को कष्ट देना । जसे लोच करना, कठोर आसन लगाना आदि ।
६. प्रतिसंलीनता : वश मे रखना। जैसे १. इन्द्रिय, २ कपाय और ३. योग को वश मे रखना, ४ एकान्त मे रहना।
७. प्रायश्चित्त : लगे हुए अतिचार या पाप (दोप) को उतारना। जैसे १. अालोचना (पाप को प्रकट) करना, २. प्रतिक्रमण करना, ३. उपवास आदि दण्ड लेना।
८. विनय : जिससे कर्म दूर हो-ऐसी नम्रता। जैसे खडे होना, हाथ जोड़ना, वन्दना करना आदि ।
६. वैयावृत्य : सेवा करना। जैसे पाहार-पानी लाकर देना, बोझा उठा लेना, काया कोमल बनाना (पगचपी करना) आदि।
१०. स्वाध्याय : आत्मा की उन्नति करने वाला अच्छा अध्ययन। जैसे १ शास्त्र ग्रादि पढ़ना, कठस्थ करना, २ उनसे सम्बन्ध रखने वाले प्रश्न पूछना, ३. उन्हे दुहराना, ४ उन पर विचार करना, ५ उन्हे दूसरो को सिखाना, समझाना।
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तत्त्व विभाग चौदहवाँ बोल : ' छोटी नव तत्व के ११५ भेद' [ १२५
११. ध्यान : एकाग्र शुभ मनोयोग तथा मन-वचन-काया २ रौद्र ध्यान को छोड़ कर,
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का निरोध । जैसे १ आर्त, ३ धर्म, ४ शुक्ल ध्यान करना ।
१२. कायोत्सर्ग : काया का ममत्व छोडना, काया को स्थिर रखना श्रादि ।
प्रथम के छह बाह्य तप हैं । विशेष पडे, उन्हे बाह्य तप कहते हैं ।
जिनका प्रभाव काया पर
सात से बारह तक के भेद आभ्यन्तर तप है। जिनका प्रभाव आत्मा पर विशेष पडे, उन्हे प्राभ्यन्तर तप कहते है ।
८. बन्ध तत्व के ४ भेद
बन्ध : १ वन्धन को 'बन्ध' कहते हैं । २ आत्मा के बन्ध योग्य परिणाम, ३ मन-वचन काया के योग, ४ उन दोनो के द्वारा आत्मा के साथ कर्म-पुद्रलो का लौहपिण्ड और अग्नि के समान या दूध और पानी के समान बन्ध ( जुडान) होना और बँधे रहना बन्ध कहलाता है ।
१. प्रकृति बन्ध : जीव के साथ बँधे हुए कर्मो मे ज्ञान ढँकना आदि स्वभावो का बंधना ।
२. स्थिति बध : जीव के साथ बँधे हुए कर्मों मे मुक समय तक जीवो के साथ रहने की काल - मर्यादा का बँधना ।
३. अनुभाग बन्ध : जीवन के साथ बँधे हुए कर्मो मे तीव्र मन्द फल देने की शक्ति बँधना ।
४. प्रदेश बन्ध : जीव के साथ न्यूनाधिक प्रदेशो वाले कर्म - स्कध का बन्ध होना ।
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१२६ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
है मोक्ष तत्व के चार भेद __ मोक्ष : १ छूटने को मोक्ष कहते है। २ अात्मा का पूर्ण विशुद्ध
परिणाम । ३ मन-वचन-काया का वियोग एव ४. प्रात्मा के सम्पूर्ण प्रदेशो से सभी कर्मो का सर्वथा क्षय 'मोक्ष' है। (यहॉ मोक्ष-प्राप्ति होने के मार्गों को 'मोक्ष' कहा है।)
मोक्ष के चार भेद १. सम्यग्ज्ञान २. सम्यग्दर्शन (सम्यक् श्रद्धा) ३. सम्यक चारित्र और ४. सम्यक्तप ।
नव तत्वो के पहले विस्तृत अर्थ दिये जा चुके है। १ सक्षेप मे चेतन 'जीव है। २ जड 'अजोव' है। ३ शुभ वन्ध 'पुण्य' है। ४ अशुभ वन्ध 'पाप' है। ५ वन्ध का मार्ग 'पाश्रव' है। ६ वन्ध का अवरोध 'सवर' है। ७ बन्ध क्षय का मार्ग 'निर्जरा' है। ८ दोनो का सयोग 'वन्ध' है। और ६ वन्धन का छूटना 'मोक्ष' है।
अद्वारहवाँ बोल : 'तीन दृष्टि'
दृष्टि: १ श्रद्धा, २ श्रद्धा वाला।
१. सम्यग्दृष्टि : चार कर्म या अट्ठारह दोप रहित तथा बारह गुण अरिहत देव को ही सुदेव, पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति पालने वाले या २७ गुणो के धारक निर्ग्रन्थ को ही सुगुरु तथा अरिहत प्ररुपित धर्म को (तत्व को) ही सुधर्म मानना। २. मानने वाला।
अट्ठारह दोपो के नाम १ अज्ञान (ज्ञानावरणीय से होने वाला), २ निद्रा (दर्शनावरणीय से होने वाला), ३. मिथ्यात्व (दर्शन मोहनीय से होने वाला), ४. अवत,
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तत्त्व विभाग-अट्ठारहवाँ बोल : 'तीन दृष्टि' [ १२७ ५ क्रोध, ६ मान, ७. माया, ८ लोभ, ह. राग, १०. द्वेष (कपाय मोहनीय से होने वाले), ११ हास्य, १२ रति, १३ अरति, १४ गोक, १५ भय, १६ जुगुप्सा (नो कषाय मोहनीय से होने वाले), १७ वेद (वेद मोहनीय से होने वाला) तथा १८ अन्तराय (अन्तराय से होने वाला)।
अन्य प्रकार से अट्ठारह दोषो के नाम : १. अज्ञान, २ निद्रा, ३ मिथ्यात्व, ४ हिसा, ५. झूठ, ६ चोरी, ७ मेथुन (क्रीडा), ८. परिग्रह (प्रेम), ६ क्रोध, १० मान, ११ माया, १२ लोभ, १३ हास्य, १४. रति, १५. अरति, १६ शोक, १७. भय तथा १८ जुगुप्सा ।
अरिहत के १२ गुरण १ अनन्त ज्ञान, २ अनन्त दगन, ३ अनन्त चारित्र, ४. अनन्त वल-वीर्य ५ दिव्य ध्वनि, ६ भामण्डल, ७. स्फटिक सिंहासन, ८ अशोक वृक्ष, ६ कुसुम वृष्टि, १० देव दुन्दुभि, ११ तीन छत्र और १२ दो चामर ।
पाँच समिति के नाम १ इर्या समिति (उपयोग से चलना), २ भाषा समिति (उपयोग से बोलना), ३ एषणा समिति (उपयोग से ग्राहार लाना, भोगना), ४. प्रादान निक्षेप समिति (उपयोग से उठाना रखना), ५. परिस्थापना समिति (उपयोग से परठना, त्यागना)।
तीन गुप्ति के नाम १ मनोगुप्ति (मन वश में रखना), २ वचनगुप्ति (वचन वश मे रखना) और ३ कायगुप्ति (काया वश मे रखना)।
साधुजी के २७ गुण . १-५ पाँच महाव्रत, ६-१० पाँच इन्द्रियो का निग्रह (वश रखना) ११-१४ चार कषायो का , त्याग, १५-१६ तीन सत्य-(क) भाव सत्य, (ख) करण सत्य,
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१२८ ] जैन सुवोध पाठमाला भाग १ (ग) योग सत्य, १८-१६, क्षमा वैराग्य २०-२२ तीन समाहरणता --(क) मन समाहरणता, (ख) वचन समाहरणता, (ग) काय समाहरणता, २३-२५ तीन सम्पन्नता --(क) ज्ञान सम्पन्नता, (ख) दर्शन सम्पन्नता, (ग) चारित्र सम्पन्नता, २६-२७ दो सहनता-(क) वेदना सहनता, (ख) मारणातिक (उपसर्ग) सहनता।
२ मिथ्यादृष्टि : अरिहन्त को सुदेव, निर्ग्रन्थ को सुगुरु तथा जैन धर्म को सुधर्म न मानना २. न मानने वाला। अरिहन्त प्ररुपित शास्त्र के एक अक्षर पर भी अरुचि रखना, २ अरुचि रखने वाला। सदोषी सरागी को सुदेव, सग्रन्थ को सुगुरु तथा कुधर्म को सुधर्म मानना, २. मानने वाला।
३. मिश्रष्टि : सुदेव-कुदेव, सुगुरु-कुगुरु, सुधर्म-कुधर्म सवको समान मानने वाला।
एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि, विकलेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि व मिथ्याहष्टि तथा शेप जीव तीनो दृष्टि वाले होते है।
उन्नीसवाँ बोल : 'चार ध्यान'
ध्यान : एकाग्र शुभ मनोयोग तथा मन-वचन-काया का निरोध ।।
१. आर्त ध्यान • इट वस्तु के सयोग, अनिष्ट वस्तु के वियोग आदि का चिन्तन करना।
२. रौद्र ध्यान · १ हिसा, २. झूठ, ३. चोरी और परिग्रह के विषय मे बहुत दुष्ट चिन्तन करना।
३. धर्म ध्यान : १. भगवान की आज्ञा, २. राग-द्वेप के परिणाम, ३ कर्म के फल और ४ लोक की अमारता का चिन्तन करना।
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तत्त्व विभाग-बाईसवाँ बोल · श्रावकजी के १२ व्रत [ १२६
४. शुक्ल ध्यान • जीवादि के विषय मे बहत विशुद्ध चिन्तन करना, मेरु के समान काया को अडोल बनाना।
आर्त-ध्यान पहले से छठे गुण-स्थान तक और रौद्र-ध्यान पहले से पाँचवे गुण स्थान तक होता है। धर्म-ध्यान चौथे से सातवें तक तथा शुक्ल ध्यान पाठवे से चौदहवे गुरण-स्थान तक होता है।
बाईसवाँ बोल : 'श्रावकजी के १२ व्रत'
द्रत : प्रत्याख्यान, नियम, मर्यादा । ।
१. पहला स्थूल प्रारणातिपात विरमरण व्रत : इसमें श्रावकजी निरपराध त्रस जोवो को मारने की बुद्धि से मारने का प्रत्याख्यान करते हैं।
२. दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत : इसमे श्रावकजी दुष्ट विचारों से कन्या, गौ, भूमि आदि बडी-बड़ी वस्तुप्रो के सम्बन्ध में झूठ बोलने का प्रत्याख्यान करते हैं।
३. तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमरण व्रत : इसमें श्रावकजी दुष्ट विचारपूर्वक बड़ो-बड़ो वस्तुएँ चुराने का प्रत्याख्यान करते हैं।
४ चौथा स्थूल स्वदार सतोष परदार विवर्जन व्रत : इसमें श्रावकजी पर-स्त्री-सेवन का प्रत्याख्यान करते हैं और स्व-स्त्री की मर्यादा करते हैं।
५. स्थूल परिग्रह परिमारण व्रत : इसमें श्रावकजी १ भूमि, २ घर, ३ सोना, ४ चाँदी, ५ धन, ६ धान्य, ७ दोपद, ८ चौपद और ६ कुविय (सोना चांदो से भिन्न) धातु-इन नव बोलो का परिमारा करते हैं।
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१३० ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १ ।
६. दिशा परिमारण व्रत : इसमे श्रावकजी १ पूर्व, २ पश्चिम, ३ उत्तर, ४ दक्षिण, ५ ऊँची और ६ नीची-इन छह दिशाओ की मर्यादा करते हैं।
७. उपभोग परिभोग परिमारण व्रत : इसमें श्रावकजी २६ बोल की मर्यादा करते है और पन्द्रह कर्मादान का त्याग अथवा मर्यादा करते है ।
८. अनर्थ दण्ड विरमण व्रत : इसमे श्रावकजी अनर्थ दण्ड का त्याग करते हैं।
६. सामायिक व्रत : इसमें श्रावकजी प्रतिदिन (या जितने दिन का नियम हो, उतने दिन) शुद्ध सामायिक करते हैं।
१०. दिशावकाशिक व्रत : इसमें श्रावकजी दिगावकाधिक पोषध करते है, सवर करते हैं, और १४ नियम चितारते है।
११. प्रतिपूर्ण पौषध व्रत : इसमें श्रावकजी अष्टमी, चतुर्दर्शी, अमावस्या और पूर्णिमा को यो छह (या जितने दिन का नियम हो, उतने दिन) प्रनिपूर्ण पौषध करते हैं।
१२ अतिथि सविभाग व्रत : इसमें श्रावकजी घर पर पवारे हुए साधु-साध्वियो को अन्न-पानादि १४ प्रकार का निर्दोष दान देते है।
__ श्रावकजी के पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवाँये पांच व्रत 'अणुव्रत' कहलाते हैं। छठा, सातवा और पाठवांये तीन व्रत गुरंगवत कहलाते हैं तथा नवमां, दसवाँ, ग्यारहवां और बारह्वा-ये चार व्रत, शिक्षावत कहलाते हैं ।
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तत्त्व विभ'ग-तेइसवां बोल : 'साघुजी के ५ महाव्रत [ १३१
तेइसवॉ बोल : 'साधुजो के ५ महानत' महाव्रत : तीन करण तीन योग से लिया गया व्रत।
१ सर्व प्राणातिपात विरमरण व्रत : इसमे साधुजी सर्वथा प्रकार से जीव-हिसा नहीं करते। तीन करण तीन योग से। मन से, वचन से, काया से, करते नही, कराते नही, करते का अनुमोदन करते नही ।
२ सव मृावाद विरमरण व्रत : इसमें साधुजी सर्वथा प्रकार से झूठ नहीं बोलते। तीन करण तीन योग से । मन से वचन से, काया से, वोलते नही, बुलवाते नही, बोलते का अनुमोदन करते नही।
३ सर्व प्रदत्तादान विरमरण व्रत · इसमे साधुजी सर्वया प्रकार से चोरो नही करते। तीन करण तीन योग से। मन से, वचन से, काया से, करते नहीं, कराते नही, करते का अनुमोदन करते नहीं।
४ सर्व मैथुन विरमरण व्रत इसमे साधुजी सर्वथा प्रकार से मथुन सेवन नहीं करते। तीन करण, तीन योग से। मन से, वचन से, काया से। करते नही, कराते नही, करते का अनुमोदन करते नही।
५. सर्व परिग्रह : इसमे साधुजी सर्वथा प्रकार से परिग्रह नही रखते। तीन करण तीन योग से। मन से, वचन से, काया से,-रखते नही, रखाते नहीं, रखते का अनुमोदन करते नहीं।
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१३० ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १
६. दिशा परिमारण व्रत : इसमें श्रावकजी १ पूर्व, २ पश्चिम, ३ उत्तर, ४ दक्षिण, ५ ऊँची और ६ नीची-इन छह दिगायो की मर्यादा करते हैं।
७. जाभोग परिभोग परिमारण व्रत : इसमें श्रावकजी २६ बोल की मर्यादा करते है और पन्द्रह कर्मादान का त्याग अथवा मर्यादा करते है ।
८. अनर्थ दण्ड विरमण व्रत : इसमे श्रावकजी अनर्थ दण्ड का त्याग करते हैं।
६. सामायिक व्रत : इसमें श्रावकी प्रतिदिन (या जितने दिन का नियम हो, उतने दिन) शुद्ध सामायिक करते हैं।
१०. दिशावकाशिक व्रत : इसमें श्रावकी दिगावकाशिक पौषध करते हैं, सवर करते है, और १४ नियम चितारते है।
११ प्रतिपूर्ण पौषध व्रत : इसमें श्रावकजी अष्टमी, चतुर्दी, अमावस्या और पूर्णिमा को यो छह (या जितने दिन का नियम हो, उतने दिन) प्रतिपूर्ण पौषध करते हैं ।
१२ अतिथि सविभाग व्रत : इसमें श्रावकजी घर पर पधारे हुए साधु-साध्वियो को अन्न-पानादि १४ प्रकार का निर्दोष दान देते है।
श्रावकजी के पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा और पांचवाये पांच पत 'अणुव्रत' कहलाते हैं। छठा, सातवां और पाठवांये तोन व्रत गुणव्रत कहलाते हैं तथा नवमां, दसवाँ, ग्यारहवां और | वारह्वां-ये चार व्रत, शिक्षाक्त कहलाते हैं ।
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तत्त्व विभाग-तेइसवाँ बोल : 'साघुजी के ५ महाव्रत [ १३१
तेइसवाँ बोल : 'साधुजो के ५ महानत' महाव्रत : तीन करण तीन योग से लिया गया व्रत ।
१ सर्व प्रारणातिपात विरमरण व्रत : इसमे साधुजी सर्वथा प्रकार से जीव-हिसा नहीं करते। तीन करण तीन योग से। मन से, वचन से, काया से, करते नही, कराते नही, करते का अनुमोदन करते नही।
२ सव मृतावाद विरमरण व्रत : इसमे साधुजी सर्वथा प्रकार से झूठ नहीं बोलते। तीन करण तीन योग से । मन से वचन से, काया से, बोलते नही, बुलवाते नहीं, बोलते का अनुमोदन करते नही।
३ सर्व अदत्तादान विरमरण व्रत · इसमे साधुजी सर्वया प्रकार से चोरो नहीं करते। तीन करण तीन योग से। मन से, वचन से, काया से, करते नही, कराते नही, करते का अनुमोदन करते नही ।
४ सर्व मैथुन विरमरण व्रत · इसमे साधुजी सर्वथा प्रकार से मैथुन सेवन नहीं करते। तीन करण, तीन योग से । मन से, वचन से, काया से। करते नही, कराते नहीं, करते का अनुमोदन करते नही।
५. सर्व परिग्रह : इसमे साधुजी सर्वथा प्रकार से परिग्रह नही रखते। तीन करण तीन योग से। मन से, वचन से, काया से, रखते नही, रखाते नहीं, रखते का अनुमोदन करते नहीं।
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जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
सम्यक्त्व (समकित) के , बोल
सम्यक्त्व : जिनेश्वर भगवान् ने जो कुछ कहा, वही सत्य और
नि शक है-इस प्रकार अरिहन्त प्ररुपित तत्वो पर
श्रद्धा रखना।
पहला बोल-चार श्रद्धान । दूसरा बोल-तीन लिन। तीसरा बोल-दस विनय । चौथा बोल-तीन शुद्धि। पांचवां बोल-पांच लक्षण। छठा बोल-पांच दूषण। सातवा वोलपांच भूषण। पाठवाँ बोल-पाठ प्रभावक। नवमां बोल -छह प्रागार। दसवां बोल-छह यतना। ग्यारहवाँ बोल- छह स्थान । बारहवां बोल-छह भावना ।
ये सव मिलाकर ६७ बोल हुए। परिशिष्ट मे तेरहवां बोल : सम्यक्त्व की दस रुचि। चौदहवां बोल : सम्यक्त्व के पांच भेद । पन्द्रहवां बोल : सम्यक्त्व के पाठ प्राचार । सोलहवां बो : सम्यक्त्वी के तीन प्रकार ।
पहला बोल : 'सम्यक्त्व के चार श्रद्धान'
श्रद्धान : १. (जैसे पर्वतादि मे धूएँ को देख कर वहाँ अग्नि
होने का विश्वास होता है, उसी प्रकार) जिन कार्यो से 'इस पुरुष मे सम्यक्त्व है'-इस का विश्वास हो, उसे 'सम्यक्त्व का श्रद्धान' कहते हैं । अथवा २. जिन कार्यों से धर्म मे श्रद्धा उत्पन्न हो और धर्मश्रद्धा सुरक्षित रहे, उसे सम्यक्त्व का श्रद्धान कहते हैं।
१. परमार्थ संस्तव : परमार्थ का परिचय करे अर्थात् नव तत्वो का ज्ञान प्राप्त करे।
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तत्त्व-विभाग-दूसरा बोल : 'सम्यक्त्व के तीन लिंग' [ १३३
२. सुदृष्ट परमार्थ सेवन : परमार्थ के अच्छे जानकार अर्थात् नव तत्वो के अच्छे जानकर पुरुषो की सेवा करे।
३. व्यापन्न वर्जन : जिन्होने सम्यक्त्व का वमन कर दिया (छोड दिया)- ऐसे १. निह्नवो की २ अन्य मत धारण कर लेने वालो की तथा ३. नास्तिको की सगति न करे।
४. कुदर्शन वर्जन : अन्य मतावलम्बी कुतीथियो की सगति से दूर रहे।
-उत्तराध्ययन सूत्र-अध्ययन २८, गाथा २८ से ।
दूसरा बोल : 'सम्यक्त्व के तीन लिंग'
लिंग (जैसे आम के बाहरी पोले रंग से उसमे रहे हुए मधुर
रस का अनुमान होता है, वैसे ही) जिस (सहचर) बाहरी गुरगो से 'इस पुरुष मे सम्यक्त्व है-इसका अनुमान हो, उसे 'सम्यक्त्व का लिंग' कहते है।
१. श्रुनानुराग . जैसे तरुण पुरुष राग-रग (सगीत) मे अनुराग (रुचि) रखता है, उसी प्रकार केवली प्रपित अहिंसामय वाणी सुनने मे अनुराग रक्खे ।
२. धर्मानुराग : जैसे तीन दिन का भूखा पुरुष खीरखाड का भोजन करने मे अनुराग (रुचि) रखता है, उसी प्रकार केवली प्ररुपित अहिंसामय धर्म-पालन मे अनुराग रखे।।
३. देवगुरु वैयावृत्य : जैसे अनपढ (अपठित) पुरुष विद्या गुरु को पाकर हर्षित होता है और विद्या-प्राप्ति के लिए उनकी वैयावृत्य (सेवा) करता है उसी प्रकार देवगुरु के दर्शन पाकर हर्षित हो और धर्म-प्राप्ति के लिए उनकी वैयावृत्य करे।
~अनेक सूत्र से तथा प्रवचन सारोद्धार से ।
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१३४ ] जैन मुबोध पाठमाला -भाग १
तोसरा बोल : 'सम्यक्त्वी के दस विनय'
विनय : सम्यक्त्व उत्पन्न होने पर सम्यक्त्वी धर्मदेव अादि का
जो वन्दन, भक्ति, वहुमान, गुण वर्णन आदि करता है, उसे 'सम्यक्त्वी का विनय' कहते है। १ अरिहत विनय : अरिहन्त भगवान् का विनय करे।
२. अरिहंत प्रज्ञप्त धर्म विनय . अरिहन्त प्ररुपित धर्म का विनय करे।
३. प्राचार्य विनय : आचार्य भगवान् का विनय करे। ४. उपाध्याय विनय : उपाध्याय भगवान् का विनय करे।
५ स्थविर विनय : स्थविर भगवान् ( वहश्रुत और चिरदीक्षित ) का विनय करे।
६. कुल विनय : कुल (एक प्राचार्य के शिष्यो के । समुदाय) का विनय करे।
७. गरण विनय : गण (अनेक प्राचार्यो के गिप्यो के समुदाय) का विनय करे।
८. संघ विनय : चतुर्विध संघ (साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका) का विनय करे।
६. क्रिया विनय : क्रियावान् (क्रिया-पात्र) का विनय करे।
१०. सांभोगिक विनय : जो स्वधर्मी, स्वलिगी हो, उनका विनय करे।
-~ौपपातिक सूत्र से।
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तत्त्व-विभाग-पांचवां बोल सम्यक्वत्व के पात्र लक्षण [ १३५
चौथा बोल : 'सम्यक्त्व को तीन शुद्धि'
शुद्धि : (जैसे आँख मे पीलिया, मोतिया-बिन्द आदि का न होना
दृष्टि की शुद्धि है, वैसे ही) सम्यक्त्वी की दृष्टि मे देव, गुरु व धर्म के सम्बन्ध मे अशुद्धि न होना सम्यक्त्व को शुद्धि है।
१. देव शुद्वि : चार कर्म या अट्ठारह दोष रहित तथा बारह गुण सहित अरिहत देव को ही सुदेव माने, अन्य देवो को सुदेव न माने। (वचन से अरिहत देव का हो गुण-ग्राम करे, कुदेवो का न करे, काया से अरिहत देव को ही नमस्कार करे, अन्य देवो को न करे।)
२ गुरु शुद्धि : पाँच महाव्रत, पॉच समिति, तीन गुप्ति के धारक अथवा २७ गुण धारक जैन-साधुप्रो को ही सुगुरु माने, अन्य साधुनो को सुगुरु न माने। (वचन से जन-साधुओ का ही गुण-ग्राम करे, कुगुरुयो का न कर। काया से जैन-साधुओ को ही नमस्कार करे, कुगुरुयो को न करे ।)
३. धर्म शुद्धि : केवली (अरिहन्त) प्ररुपित अहिंसामय स्याद्वाद सहित जन-धर्म को ही सुधर्म माने, अन्य धर्मो को सुधर्म न माने। (वचन से जेन-धर्म का ही गुरण-ग्राम करे, कुधर्मा को न करे। काया से जन-धर्म को ही नमस्कार करे, कुधर्मों को न करे।
-'अरिहंतो महदेवो' प्रतिक्रमण सूत्र से ।
पाँचवाँ बोल : 'सम्यक्त्व के पाँच लक्षण'
लक्षरण : (जैसे ऊष्णता से अग्नि की पहिचान होती है, वैसे ही)
जिस (असाधारण) अन्तरग गुण से सम्यक्त्व को
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१३६ ] जैन सुबोध पाठमाला --भाग १
पहचान हो, उसे 'सम्यक्त्व का लक्षण' कहते है।
१. शम (प्रशम): अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ का उदय न होने दे या शत्रु-मित्र पर समभाव रक्खे ।
२. सवेग : धर्म को श्रद्धा और मोक्ष की अभिलाषा रक्खे ।
३. निर्वेद : सासारिक काम-भोगो मे उदासीन रहे तथा प्रारम्भ परिग्रह का त्याग करे ।
४. अनुकम्पा : दूसरे जीव को दुखी देख कर या ससारपरिभ्रमण करते हुए देख कर करुणा लावे।
५. आस्तिकता (आस्था) : जिन-वचनो पर विश्वास रख कर दृढ रहे।
~~-उत्तराध्ययन २६, स्थानांग ४ व ज्ञाता १ से ।
छठा बोल : 'सम्यक्त्व के पाँच दूषण (अतिचार)'
दूषण : (जैसे रज से रत्न मलिन (मैला) होता है, वैसे ही)
जिस वात से सम्यक्त्व-रूप रत्न दूषित (मलिन) हो, उसे 'सम्यक्त्व का दूषण (अतिचार)' कहते है।
१. शंका : सूक्ष्म तत्व समझ मे न आने पर जिन भगवान् के वचनो मे शका (सदेह) रखना।
२. काक्षा : अन्य मतियो के तप, आडम्बर,पूजादि देखकर उनकी काक्षा (चाह) करना ।
३. विचिकित्सा : धर्म-क्रिया (करणी) के फल मे गका (सन्देह) करना अथवा त्यागी साधु-साध्वियो के शरीर-वस्त्रादि मलिन देखकर घृणा करना।
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तत्त्व विभाग - आठवीं बोल
'सम्यवत्व की आठ - प्रभावना'
१३७
४. पर-पाषण्डी - प्रशंसा : ग्रन्य मति कुतीर्थियों की प्रशसा
करना ।
५ पर-पाषण्डी - संस्तव : अन्य मति कुतीर्थियो का परिचय करना, उनके पास आना-जाना, उनकी सगति करना । - उपासक दशांग प्रध्ययन १ तथा प्रतिक्रमण से ।
सातवाँ बोल : 'सम्यक्त्व के पाँच भूषरण '
भूषरण : ( जैसे ग्राभूषणो से नारी की बाहरी शोभा बढती है। वैसे ही ) जिस गुरण या कार्य से सम्यक्त्व की शोभा बढे, उसे 'सम्यक्त्व का भूपरण' कहते है ।
१. कुशलता : जिन - शासन में कुशल ( चतुर ) हो ।
२. प्रभावना : बहुश्रुतादि ८ बोलो से जिन शासन की प्रभावना करे ।
करे ।
३. तीर्थ- सेवा : जिन - शासन के चतुर्विध सघ की सेवा
४. स्थिरता : जिन - शासन से डिगते हुए पुरुषो को जिन - शासन में स्थिर करे ।
५. भक्ति : जिन- शासन मे भक्ति रक्खे |
- प्रवचनसारोद्धार ग्रंथ से ।
आठवाँ बोल : 'सम्यक्त्व की आठ प्रभावना'
प्रभावना : जिस गुरण, लव्धि या क्रिया से लोगो मे सम्यक्त्व की ( जैन धर्म की ) प्रभावना हो, उसे 'सम्यक्त्व की प्रभावना - कहते है तथा सम्यक्त्व की प्रभावना करने वाले को 'प्रभावक' कहते हैं ।
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__ १३८ ] जन सुबोध पाठमाला--भाग १
१. बहुश्रुत (प्रावचनी) : जिस काल मे जितने सूत्र उपलब्ध हो, उनके रहस्य (मर्म) का जानकार हो।
२. धर्मकथी : धर्म-कथा सुनाने मे कुशल (चतुर) हो।
३. वादी : प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टान्तादि से अन्य मत का खण्डन करके जैन मत की स्थापना करे।
४. नैमित्तिक : निमित्त के द्वारा भूत-भविष्य-वर्तमान काल की वात जाने।
५. तपस्वी : मासक्षमणादि उग्र तप करे, ब्रह्मचर्यादि कठोर व्रत धारण करे।
६. विद्या वान् : प्रज्ञप्ति, रोहिणी आदि अनेक विद्यायो का जानकार हो ।
७. लब्धिसम्पन्न : वैक्रिय लब्धि, आहारक लब्धि आदि अनेक लब्धियो का धारक हो। ८. कवि : शास्त्रानुसार गद्य-पद्य की विशिष्ट रचना करे।
-~-प्रवचनसारोद्धार से।
नवमाँ बोल : 'सम्यक्त्व के छह प्राकार (प्रागार)'
प्राकार (आगार) : सम्यक्त्व की यतना (रक्षा) के लिए धारण
किये जाने वाले अभिग्रह (निश्चय) मे रक्खी जाने वाली छूट को 'सम्यक्त्व के
आकार (आगार)' कहते है। १. राजाभियोग : राजा की आज्ञा, दबाव या बलात्कार से इच्छा बिना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार से अन्य मती बने हुए जैन-साधुग्रो से पालापादि
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तत्त्व विभाग-नवमां-वोल : 'सम्यक्त्व के छह आकार' [ १३६ - करना पडे, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति मे दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
२ गरगाभियोग : कुटुम्ब, जाति, पचायत, समूह आदि की आज्ञा, दवाव या वलात्कार से इच्छा बिना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्वा या प्राचार से अन्य मती वने हुए जैन-साधुयो से पालापादि करना पडे, तो - सम्यक्त्व की प्रवृत्ति मे दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
३. बलाभियोग : शक्ति, सत्ता आदि से बलवान की आज्ञा, दबाव या वलात्कार से इच्छा विना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेग, श्रद्धा या प्राचार से अन्य मती बने हए जैन साधुग्रो से आलावादि करना पडे, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति में दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
४. देवाभियोग : देव, देवी की आज्ञा, दबाव या बलात्कार से इच्छा विना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार मे अन्य मती बने हुए जैन-साधुओं से पालापादि करना पडे, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति मे दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
५. गुरुनिग्रह : माता-पिता प्रादि बडों की आज्ञा या दबाव से इच्छा बिना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार से अन्य मती वने हए जैन-साधुप्रो से आलापादि करना पड़े, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति में दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
६. वृत्तिकान्तार : आजीविका की रक्षा के लिए स्वामी की आज्ञा या दबाव होने पर या अटवी आदि विषम क्षेत्र काल भाव मे फँस जाने पर इच्छा बिना अन्य मत के गुरु, अन्य मत
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१४० ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ के देव तथा वेश, श्रद्धा या पाचार से अन्य मती बने हए जैनसाधुग्रो से पालापादि करना पडे, तो सम्यक्त्व को प्रवृत्ति मे दोप लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
--उपासक दशांग अध्ययन १ से। दसवाँ बोल : 'सम्यक्त्व की छह यतना' यतना : (जैसे असुशील पुरुषो के ससर्ग से वचने से पतिव्रता
सुशीला स्त्री के शोल की रक्षा होती है, वमे ही) जिस ससर्ग से वचने से सम्यक्त्वी के सम्यक्त्व की रक्षा हो, उसे 'सम्यक्त्व की यतना' कहते हैं।
१. वंदना : अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या आचार से अन्य मती बने हुए जेन-साधुओ की स्तुति (गुणग्राम) न करे।
२ नमस्कार : अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्वा या आचार से अन्य मती बने हुए जैन-साधुओ को नमस्कार न करे।
३. पालाप : अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या आचार से अन्य मतो बने हुए जैन-साधुग्रो से बिना उनके पहले बुलाये स्वय पहले एक बार भी न बोले ।
४. सलाप : अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार से अन्य मती बने हुए जैन-साधुग्रो से विना उनके दूसरी-तोसरी वार वुलाये, उनसे स्वय बार-बार भी न बोले।
५. दान : अन्य मत के गुरु, अन्य मत के 'देव तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार से अन्य मती बने हुए जन-साधुम्रो नउ को एक बार भी दान न दे।
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तत्त्व विभाग-ग्यारहवां बोल 'सम्यक्त्व के छह स्थान' [ १४१
६. अनुप्रदान : अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या आचार से अन्य मती बने हुए जैन-साधुनो को बार-बार भी न दान दे। (अनुकपा बुद्धि से किसी को भी पालापाद करने या किमी को भी दानादि देने का तीर्थकर भगवान् द्वारा निषेध नही है।
___ उपरोक्त पालापादि छहो बोल सुदेव, सुगुरु तथा स्वधर्मी । बन्धुग्रो के साथ अवश्य करे ।)
ग्यारहवाँ बोल : 'सम्यक्त्व के छह स्थान'
स्थान : (जसे स्थान होने पर ही मनुष्य ठहर पाता है, वैसे
ही) जिस सेद्धान्तिक सत्य मान्यता के होने पर ही सम्यक्त्व ठहरे (रहे), उसे 'सम्यक्त्व का स्थान' कहते है।
१. जीव है : चेतना लक्षण वाला जीव द्रव्य सत् है, असत् नहीं है। अर्यान् जीव वास्तविक सत्य पदार्थ है, परन्तु काल्पनिक झूठा पदार्थ नहीं है।
२. जीव नित्य है : जीव द्रव्य आदि (उत्पत्ति) अत (विनाश) रहित सदा काल शाश्वत है। परन्तु शरीर की उत्पत्ति से जीव की उत्पत्ति और शरीर के नाश से जोव का नाश नही होता है।
३. जीव कर्ता है : जीव आठ कर्मों का कर्ता है, परन्तु अकर्ता नही है। अथवा ईश्वर जीव से कर्म कराता हो या जीव कर्म करता हुआ भी कर्म से निर्लेप रहता हो-यह बात भी नही है।
४. जीव भोक्ता है : जीव आठ कर्मों का भोक्ता है, पर अभोक्ता नहीं है। अथवा ईश्वर जीव का कर्म का फल
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१४२ ] जैन सुवोध पाठमाला--भाग १ भुगताता हो या कर्म भोगे विना छूट जाते हो~यह वात भी नही है।
५. मोक्ष है • भव्य जीव पाठ कर्मो का क्षय करके मोक्ष प्राप्त करते है, परन्तु भगवान् सदा से, भगवान् हो या ससारी, सदा ससारी ही बने रहते हो~-ऐसी वात नही है ।
६. मोक्ष का उपाय : (क) सम्यग्जान (ख) सम्यग्दर्शन (ग) सम्यक्चारित्र और (घ) सम्यक्तप-ये चार मोक्ष के उपाय हैं। परन्तु (क) अज्ञान (ख) मिथ्यात्व (ग) अव्रत और (घ) भोग या वाल तप-ये मोक्ष के उपाय नही है।
-सूत्रकृतांग अध्ययन २१ से।।
बारहवाँ बोल : 'सम्यक्त्व को छह भावना'
भावना : (जैसे भावना देने से औषधियाँ पुष्ट वनती हैं, वेसे ही)
जिस भावना से सम्यक्त्व पुष्ट बने, उसे 'सम्यक्त्व की
भावना' कहते हैं।
१. मूल (जड़) : धर्म (चारित्र धर्म) रूप वृक्ष के लिए सम्बवत्व जड के समान है, क्योकि सम्यक्त्व-रूप जड के विना धर्म-रूप वृक्ष उत्पन्न नहीं हो सकता।
२. द्वार : धर्म-रूप नगर के लिए सम्यक्त्व द्वार के समान है, क्योकि सम्यक्त्व-रूप द्वार के विना धर्म रूप नगर मे प्रवेश नही हो सकता।
३. नींव (प्रतिष्ठान) : धर्म-रूप प्रासाद (महल) के "लिए सम्यक्त्व नीव के समान है, क्योकि सम्यवत्व-रूप नीव के विना वर्म रूप प्रामाद स्थिर नही रह सकता।
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तत्त्व विभाग-~-बारहवाँ बोल 'सम्यक्त्व की छह भावना' [ १४३
अथवा दुकान : धर्म-रूप क्रयारणक के लिए सम्यक्त्व-रूप दुकान (पापण) के समान है, क्योकि सम्यक्त्व-रूप दुकान के बिना धर्म-रूप क्रयाणक की रक्षा नहीं हो सकती।
४ पृथ्वी : धर्म-रूप जगत के लिए सम्यक्त्व पृथ्वी के समान है, क्योकि सम्यक्त्व-रूप पृथ्वी के बिना धर्म-रूप जगत टिक नही सकता।
५. भाजन (पात्र) : धर्म-रूप खीर के लिए सम्यक्त्व पात्र के समान है, क्योकि सम्यक्त्व-रूप भाजन के बिना धमरूप खोर ग्रहण नहीं की जा सकती।
६. निधि (पेटी): धर्म-रूप धन (आभूषणादि) के लिए सम्यक्त्व पेटी के समान है, क्योकि सम्यक्त्व-रूप पेटी के बिना धर्म-रूप धन की रक्षा नही हो सकती।
-अनेक सूत्र तथा प्रवचन सारोद्ध र से। इस स्तोक मे तीन-तीन के बोल दो, चार का बोल एक, पांचपांच के बोल तीन, छह-छह के बोल चार, पाठ का बोल एफ तथा दस का बोल एक है। ३४२=६+४४१%D४+५४३= १५, +६x४-२४.+८x१%D८+१०x१=१०। योग ६७ ।
सम्यवत्व के ६७ बोल समाप्त ।
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१४४ ]
जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
परिशिष्ट
तेरहवाँ बोल : 'सम्यक्त्व को दस रुचि'
रुचि : (जैसे प्रीपधि से भोजन की अरुचि मिट कर भोजन को
रुचि उत्पन्न होती है, वैसे ही) जिस बात से मिथ्यात्व की रुचि हटकर 'सम्यवत्व की रुचि' उत्पन्न हो अर्थात् सुंदव, सुगुरु, सुधर्म के प्रति रुचि उत्पन्न हो, उसे 'सम्यक्त्व की मचि' कहते है।
१. निमर्ग रुचि : किसी को जाति-स्मरणादि से अपने आप सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
२. उपदेश रुचि : किसी को सर्वज या छद्मस्थ के उपदेश सुनने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
३. आज्ञा रुचि : किसी को देव और गुरु की आज्ञा मानने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
४. सूत्र रुचि : किसी को सूत्रो का स्वाध्याय करने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
५. बीज रुचि : किसी को वीज-रूप एक ही पद पर विचार करते रहने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
अभिगम : किसी को सूत्रो के अर्थ पढने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
७. विस्तार रुचि : किसी को द्रव्यो और पर्यायो का, प्रमाणो और नयो से विस्तारपूर्वक अध्ययन करने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
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सत्त्व विभाग-चौदहा वोल : 'सम्यक्त्व के पांच भेद' । १४५
८. क्रिया रुचि : किसी को साधू-श्रावक की क्रिया (करणी) करते रहने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।।
६. संक्षेप रुचि : किसो को 'जो जिनेश्वरो ने कहा है, वही सत्य है और शका रहित है'-सक्षेप मे इतनी श्रद्धा करने से भी सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
१० धर्म रुचि • किसो को 'जिनेश्वरो द्वारा बताया हुआ जैन धर्म (अस्तिकाय धर्म, श्रुत धर्म, चारित्र धर्म) ही सच्चा है'--ऐसी श्रद्धा रखने से सम्यक्त्व उत्पन्न होती है।
-उत्तराध्ययन, अध्ययन २८ से।
चौदहवाँ बोल : 'सम्यक्त्व के पाँच भेद'
१. उपशम सम्यक्त्व : जो दर्शन मोहनीय की तीन तथा अनन्तानुबंधी कषाय की चौकडी-ये सात प्रकृतियाँ उपगम करने पर उत्पन्न हो।
२ क्षायिक सम्यक्त्व : जो इन्ही सात प्रकृतियों को क्षय करने पर उत्पन्न हो।
३. क्षयोपशम सम्यक्त्व : जो इन्हीं सात प्रकृतियो का कुछ क्षय तथा कुछ उपशम करने पर उत्पन्न हो ।
४ सास्वादन सम्यक्त्व : जो मिथ्यात्व को ओर जाते हुए सम्यक्त्व का कुछ स्वाद रह जाने से उत्पन्न हो।
५. वेदक सम्यक्त्व : जो क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने से पहले एक समय सम्यक्त्व मोहनीय का वेदन करने से उत्पन्न हो।
-अनुयोग द्वार प्रादि अनेक सूत्र तथा प्रवचन सारोद्धार से।
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१४६ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
पन्द्रहवाँ बोल : 'सम्यक्त्व के पाठ प्राचार'
प्राचार : सम्यक्त्वी को जिन आचारों का पालन करना चाहिए,
उन्हे सम्यक्त्व के प्राचार' कहते है ।
१. निःशकित : सूक्ष्म 'तत्व' समझ में न आने पर जिनवचनो मे सन्देह न करे।
२ निःकांक्षित : कुतीथियो के तप-याडवर, पूजादि देखकर 'अन्य मत' की चाह न करे।
३. निविचिकित्सक · धर्म-क्रिया के फल में सन्देह न करे, त्यागी साधू-साच्चियों के शरीर-वस्त्रादि मलिन देखकर घृणा न करे।
४. अमूढ दृष्टि · कुतीथियो के तप, पाटवर, पूजादि देखकर जिन-मत से विचलित न हो। ,
५ उपवृहरण (उवबूह) : सम्यक्त्वियो की प्रशंसा और वैयावृत्य करके उनको बढावा दे, स्वय भी अपने सम्यक्त्व को
पुष्ट करे।
६. स्थिरीकरण : जिन-शासन से डिगते हुए पुरुषों को जिन-शामन मे स्थिर करे।
७. वात्सल्य : चतुर्विध सघ से वत्सलता (प्रेम) रक्खे ।
८ प्रभावना : बहुश्रुतादि ८ बोलो से जिन-गासन को प्रभावना करे।
~~-उत्तराध्ययन, अध्ययन २८ से ।
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तत्त्व विभाग--श्रावकजी के २१ गुरण
सोलहवाँ बोल : 'सम्यक्त्वी के तीन प्रकार'
१. कारक : धर्म-क्रिया करे। २. रोचक : धर्म-क्रिया की रुचि रक्खे, पर करे नही।
३. दीपक : न धर्म-क्रिया करे, न रुचि रक्खे, केवल परोपदेश करे।
-अनेक सूत्र तथा विशेषावश्यक से ।
श्रावकजी क ११ गुण
१. तत्वज्ञ : जीवादि नव तत्व (और पच्चीस क्रिया) के जानकार हो।
२. असहाय : धर्म-क्रिया में किसी की सहायता के अभाव मे धर्म-क्रिया करना न छोडे ।
३. अनतिक्रमणीय : देव-दानव आदि से भी निग्रन्थ प्रवचन (जैन धर्म) से चलायमान न हो।
४. निःशंक : निर्ग्रन्थ प्रवचन (जैन धर्म) मे १ शका, २ काक्षा, ३ विचिकित्सा न करे।
५. गीतार्थ : १ लब्धार्थ, २ गृहीतार्थ, ३. पृष्ठार्थ, ४. अभिगृहीतार्थ और ५ विनिश्चितार्थ हो। (अर्यात् सूत्रार्थ को १ दूसरो से पाये हुए, २ स्वय ग्रहण किये हुए, ३ पूछे हुए, ४. समझे हुए तथा ५ निश्चय किए हुए हो)
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१४८ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १
६. धर्मानुरक्त : अस्थि-मज्जा तक धर्म-प्रेम के अनुराग से रगे हुए हो।
७. परमार्थज्ञ निर्ग्रन्थ प्रवचन (जैनधर्म) को ही परमार्थ समझे और अन्य सभी लौकिक सुख तथा अन्य मतो को अनर्थ समझे।
८. उच्छ्रितस्फटिक : स्फटिक रत्न के समान निर्मल अन्त करण वाले हो। _____. अपावृत्त द्वार : दान के लिए द्वार सदा खुले रखे।
१०. प्रतीत : राज अन्त.पुर, राज्य-भण्डार आदि मे प्रतीति-पात्र हो।
११. व्रती : पाँच अणुव्रत, तीन गुरण व्रत पाले, नित्य सामायिक-दिशावकाशिक व्रत अाराधे तथा अष्टमी, चतुदर्शी, अमावस्या, पूर्णिमा यो मास के छह दिन पौषध करे।
१२. सम्यक अनुपालक : लिए हुए अहिसादि व्रत तथा नमस्कार सहित (नवकारसी) आदि प्रत्याख्यान सम्यक् (निर्मल) पाले।
१३. अतिथि संविभागी : श्रमण निर्ग्रन्थो को १४ प्रकार का प्रासुक (अचित्त) एषणीय (आधा कर्म आदि रहित) दान दे।
-औपपातिक सूत्र से। १४. धर्मोपदेशक : निर्ग्रन्थ प्रवचन (जैनधर्म)का उपदेश दे।
१५. सुमनोरथी : (१ अल्प परिग्रह २. दीक्षा और ३. पडितमरण इन) तीन मनोरथो का नित्य चिन्तन करे ।
१६. तीर्थसेवक : चतुर्विध सघ की सेवा करे।
१७. उपासक : ज्ञानी की उपासना करते हए नित्य-नयेनये सूत्र सुनकर ज्ञान बढावे ।
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तत्त्व विभाग-श्रावकजी के चार विश्राम [ १४६ १८. स्थिरकारक : जिन-शासन से डिगते हुए पुरुषो को जिन-शासन मे स्थिर करे।
१६. प्रतिक्रमणकारी : उभयकाल दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण करे।
२०. सर्वजीव हितैषी : सब जीवो का हित चाहे । २१. तपस्वी : यथाशक्ति तपश्चर्या करे।
-अनेक सूत्रो से ।
श्रावकजी के चार विश्राम
जैसे १ भार ढोने वाला भार को एक कन्धे से दूसरे कंधे पर रक्खे और पहले कन्वे को विश्राम दे—यह पहला विश्राम है। २ भार को चबूतरे आदि पर रख कर मल-मूत्र की बाधा दूर करे, खा-पीकर भूख-प्यास की बाधा दूर करे-यह दूसरा विश्राम है। ३. रात्री को धर्मशाला, मन्दिर प्रादि मे रात भर रहे, सो कर दिन भर का श्रम दूर करे-यह तीसरा विश्राम है। ४ जहाँ पर भार पहुँचाना है, ठेठ वहाँ भार पहुँचा दे और निश्चिन्त हो जाय-यह चौथा विश्राम है।
इसी प्रकार १.बारह व्रत और नमस्कार सहित (नवकारसी) श्रादि का प्रत्याख्यान धारण करे, वह श्रावक का पहला विश्राम है। २ प्रतिदिन सामायिक और दिशावकाशिक व्रत सम्यक् पाले, वह श्रावक का दूसरा विश्राम है। ३. महीने मे छह दिन प्रतिपूर्ण पोषध सम्यक् पाले, वह श्रावक का तीसरा
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१५० ] जैन मुबोध पाठमाला-भाग १ विश्राम है। ४ अन्तिम समय मे सलेखना सथारा करके भक्त प्रत्याख्यान सहित समाधिमरण स्वीकार करे, यह श्रावक का चौथा विश्राम है।
चार गति के कारण
१. नरक गति के चार कारण
१. महा प्रारम्भ : अपरिमाण खेती आदि से पृथ्वकायादि का महा प्रारम्भ करना।
२. महा परिग्रह . महा तृप्णा, महा ममत्व और अपार धन रखना।
३. मांसाहार : मद्य, मास, अण्डे आदि अाहार करना।
४. पञ्चेन्द्रिय वध • शिकार करना, कसाई का काम करना, मछली, अण्डे आदि का व्यापार करना ।
२. तिर्यश्च गति के चार कारण
१. माया : माया करना या माया की बुद्धि रखना।
२. निकृति : गूढ माया करना अर्थात् भूठ सहित माया करना या माया का प्रयत्न करना।
३. अलीक वचन : कन्या, पशु, भूमि आदि के विषय मे झूठ बोलना।
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तत्त्व विभाग-चार गति के कारण ४. कूट तोल कूट माप : देते समय कम तोलना-मापना, लेते समय अधिक तोलना-मापना ।
३. मनुष्य गति के चार कारण १. प्रकृति भद्रता : प्राकृतिक (स्वाभाविक, बनावटो नही) भद्रता रखना।
२. प्रकृति विनीतता : प्राकृतिक विनयशीलता रखना। ३. सानुक्रोशता : अनुकम्पा (दया) भाव रखना।
४. अमत्सरता : मत्सरता (ईष्या-बुद्धि) का भाव न रखना।
४ देव गति के चार कारण
१. सराग-सयम : प्रमाद और कषाय सहित साधुत्व पालना।
२. संयमा-संयम : श्रावकत्व पालना।
३. बाल-तप : अजैन साधुओ और अजैन गृहस्थो का अज्ञान तप करना।
४. प्रकाम-निर्जरा : अभाव, पराधीनता आदि कारणो से अनिच्छापूर्वक परीषह और उपसर्ग सहन करना।
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___ १५२ ]
जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
मोक्ष के चार उपाय
१. सम्यग्ज्ञान, २. सम्यग्दर्शन, ३. सम्यग्चारित्र और ४. सम्यक्तप।
सात व्यसन
१. शिकार, २. चोरी, ३ पर-स्त्री-गमन, ४. वेश्यागमन, ५. मांसाहार, ६. मदिरा-पान और ७. धूत (जूबा)।
तत्त्व-विभाग समाप्त
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कथा-विभाग
व
१. भगवान् महावीर
देवानन्दा की कुक्षि में
भारतवर्ष के बिहार-उडीसा प्रान्त मे ब्राह्मण कुण्ड नामक नगर था। वहाँ ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण रहता था। वह वेद-पारगत और धनाढ्य भी था। उसकी देवानन्दा नामक सुरूपा और कुलीन भार्या थी ।
१०वे देवलोक से च्यवकर (उतर कर) भगवान महावीर स्वामी का जीव आषाढ शुक्ला ६ की रात्रि को देवानन्दा ब्राह्मणी के गर्भ मे ग्राया। उस समय आधी नीद मे सुखपूर्वक सोती हुई देवानन्दा को ये चौदह स्वप्न आये-१ हाथी, २ वृषभ, ३ सिंह, ४ लक्ष्मी का अभिषेक, ५ दो रत्नमालाएँ, ६ चन्द्र, ७. सूर्य, ८ ध्वज, ६ कुम्भ, १० पद्मकमलयुक्त सरोवर, ११ क्षीरसागर, १२ विमान, १३ रत्त की राशि और १४. धुएं रहित अग्नि की शिखा। इन स्वप्नों को देख कर देवानन्दा जग गई। उसने अपने पति के पास जाकर ये आए हुए स्वप्न सुनाये। ऋषभदत्त ने उन पर बुद्धि से विचार करके कहा : तुम्हे स्वप्नो के फल मे 'एक पुत्र की प्राप्ति होगी, जो वेदपारगत और हमारे कुल का तिलक होगा ।
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जैन सुबोध पाठमाला - भाग १
गर्भ संहरण
जब देवानन्दा को गर्भ धारण किये ८२ बयासी दिन श्रीर ८२ रात्रियाँ बीत गयी - ८३वी रात्रि चल रही थी, तब को बात है । पहले देवलोक के 'श' नामक इन्द्र अपने अवधि ज्ञान से भरत क्षेत्र को देख रहे थे । उस समय उन्होंने भगवान् को देवानदा दाह्मणी के गर्भ मे आये हुए देखा। देखते ही पहले उन्होंने सिद्धो को नमोत्युरण दिया फिर भगवान् महावीर स्वामी को नमोत्थुरण देकर नमस्कार किया ।
१५४ ]
1
पीछे उन्हे विचार हुआ कि तीर्थकर यदि उत्तम पुरुष, शूद्र कुल में, अधम कुल मे, अल्प परिवार वाले कुल दरिद्र कुल मे, कृपरण (ग्रदातार) कुल मे, भिखारी कुल मे या ब्राह्मण श्रादि के कुल मे नही प्राते, परन्तु क्षत्रिय कुन मे हो प्राते है । कभी-कभी ग्रनन्तकाल मे कोई उत्तम पुरुष अपने पुराने कमाये हुए अशुभ नाम - गोत्र-कर्म क्षय न होने पर यदि शूद्रादि कुल में ग्रा भी जायँ, तो वे उस योनि से बाहर नही निकलते, प्रत. मेरा कर्त्तव्य है कि- मै 'गर्भ महरण' (परिवर्तन) करूँ ।
यह विचार कर उन्होने अपने हरिनेगसैपो नामक देव को आदेश दिया कि तुम देवानन्दा नामक वाह्मणी के गर्भ मे रहे हुए चरम (अन्तिम) तोर्थंकर भगवान् महावीर को क्षत्रियकुण्ड नगर के महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशलादेवी के गर्भ मे पहुँचाओ और त्रिशलादेवी के गर्भ मे जो कन्या है, उसे देवानन्दा के गर्भ मे पहुँचाओ । हरिनेगमपी ने चक्र इन्द्र की ग्राज्ञा का पालन किया ।
त्रिशला की कुक्षि में थाने पर
जिस समय भगवान् का गर्भ सहरण हुआ, उस समय देवानन्दा को ऐसा स्वप्न ग्राया कि 'मेरे वे
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कथा विभाग-१ भगवान् महावीर [ १५५ १४ चौदह ही स्वप्न त्रिशला क्षत्रियाणी के पास चले गये।' और उमी रात्रि को त्रिशलादेवी को वे चौदह ही स्वप्न आये । महारानी ने उन स्वप्नो को सिद्धार्थ महाराज को जाकर सुनाये । महाराजा ने कहा-कि तुम्हे इसके फल मे एक ऐसा पुत्र प्राप्त होगा, 'जो आगे चल कर राजा बनेगा।' स्वप्न का फल सुनकर रानी प्रसन्न हई। उसने स्वप्न फल नष्ट न हो, इसलिए स्वप्न जागरण किया। महाराजा ने प्रात काल स्वप्न-पाठको को वुलाया और सम्मान के साथ उनसे स्वप्न का फल पूछा। उन्होने कहा-महाराज | ये चौदह स्वप्न तीर्थकर या चक्रवर्ती की माता को याते हैं। अत महारानी त्रिशला भविष्य मे तीर्थकर या चक्रवर्ती बनने वाले पुत्र को जन्म देगी। यह स्वप्त-फल सुनकर सभी को प्रसन्नता हुई। सिद्धार्थ ने स्वप्न-पाठको को सात पीढियो तक चले, इतना धन आदि देकर बिदा किया ।
वर्द्धमान नाम का हेतु
जिस रात्रि को भगवान् त्रिशला के गर्भ मे आये, तभी से शनेन्द्र की प्राज्ञानुसार जृ भक जाति के देवो ने सिद्धार्थ के यहाँ सोना-चाँदी का सहरण किया तथा सिद्धार्थ के धन, धान्य, राज्य, सेना, कोप अन्त पुर, यश, सत्कार ग्रादि की भी बहुत वृद्धि हुई। जिससे राजा रानी दोनो ने यह निश्चय किया कि हम अपने इस पुत्र का नाम 'वर्द्धमान' देगे। ऐसा था भगवान् का पुण्य प्रभाव ।
माता के प्रति अनुकंपा
(उसमे कुछ समय पीछे की बात है. गर्भ मे रहे हुए भगवान् महावीर स्वामी ने 'अंपगी माता को कष्ट न हो' इस
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१५६ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ अनुकपा-भाव से अगोपाग सकोच लिए और निश्चल हो गये। पर त्रिगला को यह विचार हो गया कि 'मेरा गर्भ या तो किसी ने चुरा लिया है या वह मर गया है, या वह गल गया है. क्योकि पहले वह हिलता-डुलता था, अब वह हिलता-डुलता नहीं।' इस विचार से त्रिशला को वहुत चिता हो गयी। रानी को चिता से सारा राजप्रासाट भी चिन्तित हो गया। उसमे होने वाले गाने-बजाने-नाचने आदि सभी वन्द हो गये। यह उल्टो स्थिति देखकर भगवान् ने गर्भ मे हिलना-डुलना प्रारभ कर दिया। तव त्रिगला को पुन सन्तोष और विश्वास हया। रानी के सन्तोष तथा विश्वास पर राजप्रासाद मे मो हर्प छा गया।
भगवान् को तव यह विचार हुया-जसे मेरा हित के लिए किया गया कार्य अहित के लिए हुग्रा, इसी प्रकार भविष्य मे लोग पराये का हित करेगे, फिर भी उन्हे प्रत्यक्ष (तत्काल) मे प्राय अहित मिलेगा। (कर्म तो शुभ ही बंधेगे।) उसके पश्चात् उन्होने ममतावा यह अभिग्रह (निश्चय) किया कि 'मैं माता-पिता के जीवित रहते दीक्षित नही बनगा ।'
भगवान का जन्म दोनो गर्भ के मिलाकर पापाढ शुक्ल ६ छठ की रात से चैत्र शुक्ला १३ तेरस की रात तक ६ महीने पीर साढे सात (कुछ अधिक सात) रात बीतने पर, जव ग्रह-नक्षत्र उच्च स्थान पर थे, दिशा निर्मल थी, शकुन उत्तम थे, वायु प्रदक्षिणावर्त थी, धान्य निपजा हुआ था और देश मुखी था, तब त्रिगला ने सुखपूर्वक भगवान् को जन्म दिया।
भगवान् का जन्म होते ही कुछ समय के लिए तीनों लोक मे प्रकाश और नारकीय आदि सभी जीवो को शान्ति
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कथा-विभाग-१. भगवान् महावीर [ १५७ मिली। ५६ छप्पन दिशा-कुमारियो ने आकर भगवान् का । शुचि-कर्म, सगल-गान आदि कार्य किया। उसी समय अच्युत प्रादि वेसठ इन्द्र तो अपने परिवार सहित मेरु पर्वत पर गये और शन्द्र भगवान् के जन्म-स्थान पर पहुँचे। वहाँ उन्होने भगवान् और माना त्रिगला को वदन किया। फिर त्रिशला माता की स्तुति करके उन्हे अपना परिचय देते हुए कहा- 'मैं भगवान् का जन्म-कल्याण मनाने आया हूँ, अत आप भयभीत न हो ।' यह कह कर उन्होने परिवार सहित त्रिशलाजी को 'अवस्थापिनी' नामक गाढ निद्रा दे दी। पश्चात् भगवान् का प्रतिविम्ब बनाया। उसे माता के पास रवखा और भगवान् को अपने हाथो मे उठाकर जय जयकार के मध्य मेरु पर्वत पर लाये। वहाँ जीताचार (अनादि रीति) के अनुसार सबने मिलकर भगवान् का जन्म-कल्याण मनाया।
मेरु कंपन
उस समय भगवान् को सैकडो घडो से स्नान कराने के पहले भगवान् का छोटा-सा शरीर देख शकेन्द्र के मन मे शका हुई कि 'भगवान् इतनी अधिक जलवार को कैसे सहन कर सकेगे ? भगवान् ने अवधि-ज्ञान से शक्रेन्द्र की इस शका को जानकर उस शका को दूर करने के लिए बायें पैर के अँगूठे से ही मेरु पर्वत को कँपा दिया। यह देखकर शक्र के मन की शका दूर हो गई। ऐसा था भगवान् का बाल्यकाल का शारीरिक बल ।
भगवान का जन्म-कल्याण महोत्सव हो जाने पर शक्रन्द्र ने उसी रात मे भगवान् को माता के पास ले जा कर
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१५८ ] जन सुबोध पाठमाला भाग १ रख दिया तथा दी हुई अवस्थापिनो निद्रा हटाकर वे अपने स्थान को चले गये।
मिद्धार्थ द्वारा जन्मोत्सव
महाराजा सिद्धार्थ ने प्रात काल होने पर भगवान् का जन्मोत्सव मनाने का आदेश दिया। वन्दी छोडे गये। मानउन्मान (तोल-माप) मे वृद्धि की गई। नगर को सजाया गया। शुल्क-कर आदि रोके गये। नाट्य वाद्य, गीत, नृत्य प्रादि के साथ दस दिन विताये गये। पुरजनो ने हर्प से सिद्धार्थ गजा को सहस्रो लाखो स्वर्ण-मुद्राएँ आदि भट की। राजा ने भी प्रतिदान में इसी प्रकार दिया। ग्यारहवे दिन अच-कर्म निवारण करके बारहने दिन महागज ने सभी नाति मित्र आदि को भोज दिया और उनके सामने अपने पूर्व निश्चय को प्रकट करते हुए भगवान का नाम वर्द्धमान रक्खा ।
पाँच धायपूर्वक पालन
उसके पश्चात् महाराजा सिद्धार्थ ने भगवान् के मरक्षण के लिए ये पाँच धाएँ रक्ती-१ दूध, अन्न यादि पिलाने खिलाने वाली, २. स्नान, मजन, शुद्धि प्रादि करने वाली, ३ याभूपण, वन्न, केश, पुष्प आदि का अलकार करने वाली, ४ क्रीडा कराने वाली और ५ अक (गोद) मे रखने वाली। ये सब धाये गिद्धार्थ ने अपने हर्प और कुल-रीति आदि के लिए ही रक्खी। क्योकि शक्रन्द्र भगवान् के अगूठे मे अमृत भर देते है और भगवान् उस अगूठे को ही चूसते है तथा भगवान् के गरीर मे किसी प्रकार अगुचि न तो रहती है, न लगती है तथा भगवान् वाल-अवस्था मे भी रोते आदि नही है।
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कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर
१५६
इस प्रकार भगवान् चम्पक वृक्ष की भॉति क्रमशः सुखपूर्वक बढने लगे।
बालक वर्धमान को देव-परोक्षा
आठ वर्ष के होने से पहले की बात है। भगवान् यद्यपि क्रीडा की इच्छारहित थे, पर समान वय वाले बालको के प्रागह से वे नगर के बाहर खेलने के लिऐ गये। वहाँ वृक्ष पर चढने-उतरने का खेल प्रारम्भ हुना।
__इधर देवलोक में केन्द्र ने सभा के बीच यह प्रशसा की ~-'भगवान् यद्यपि इतने छोटे बच्चे हैं, परन्तु उन्हे कोई भयभीत नही कर सकता।' यह सुनकर एक मिथ्यादृष्टि देव इन्द्र के वचनो को असत्य करने के लिए वहाँ आया और शयकर सर्प का रूप बना कर जहाँ वर्धमानादि खेल रहे थे, उस वृक्ष को लिपट गया। सभी बच्चे उस भयकर सर्प को देखकर भयभीत हुए और भागने लगे। परन्तु निर्भय वर्धमान ने उस भयकर सर्प को हाथो से उठाया और एक ओर ले जा कर रख दिया। यह देखकर वालक फिर से लौट आये और वर्धमान के साथ कन्दुक (गेंद) का खेल खेलने लगे। उससे यह पण (गर्त) थी कि जो हारे, वह बैल-घोडा बनेगा और जीतने वाला ऊपर चठेगा। देव भो एक वालक का रूप बनाकर साथ ही खेलने लगा। कुछ क्षण मे ही वह जान-बूझ कर हार गया और वोला--- 'वधमान ने मुझे जोत लिया है, इसलिए ये मेरे कन्धे पर चढे ।' वधमान उसके कन्धे पर चढे । देव ने वर्धमान को भयभीत करने के लिए तत्काल सात-आठ ताड जितना ऊंचा शरीर बना लिया। तब भगवान् ने उसकी वास्तविकता जानकर उसकी पीठ पर वज्र के समान मुट्ठी-प्रहार किया। उससे वह पीड़ित
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१६० ]
होकर शीघ्र ही छोटा बन गया । उसने शक्रेन्द्र के वचन को सत्य माना और भगवान् को अपने ग्राने यादि का कारण
चला गया ।
जैन मुन्रोध पाठमाला – भाग १
-
बताकर तथा क्षमा मांगकर स्वस्थान पर
ऐसी थी भगवान् की बाल अवस्था की निर्भयता ।
।
लेखशाला में
जव भगवान् कुछ अधिक ग्राठ वर्ष के हो गये, तब महाराजा सिद्धार्थ इस बात का विचार किये बिना ही कि 'भगवान् जन्म से अवधि ज्ञानी होते हैं, भगवान को बड़े समारोह के साथ लेखगाला मे पढने को ले गये । प ण्डतजी भी उनको लेख प्रारम्भ कराने की सामग्री जुटाने लगे । जव शक्रेन्द्र को यह जानकारी हुई, तो वे वहाँ ब्राह्मण का रूप लेकर ग्राये और भगवान् को पण्डित योग्य श्रासन पर बिठा कर उनसे ऐसे विकट प्रश्न पूछे, जिनके सम्बन्ध मे पण्डित को भी ग्रव तक समय या । पर भगवान् ने उस वाल - ग्रवस्था मे भी उनका उत्तर बहुत सुन्दरता से तथा शीघ्रता से दिया । यह देखकर वहाँ के सभी उपस्थित लोग चकित रह गये । तव केन्द्र ने लोगो को ज्ञान कराया कि भगवान् जन्म से प्रवधि- ज्ञानी होते है | अन्त मे पण्डित ने वडे सम्मान से भगवान् को वहाँ मे विदाई दी और सिद्धार्थ उन्हें अपने घर लेकर आये | ऐसा था भगवान् का वाल-ग्रवस्था का ज्ञान |
यशोदा का पाणिग्रहण
धीरे धीरे जब भगवान् युवावस्था मे ग्राये, तब मातापिता ने लग्न के लिए वहुत आग्रह किया । उस समय भोगफल देने वाले कर्मों के उदय को जानकर भगवान ने यशोदा
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X
कथा-विभाग-१. भगवान् महावीर १ २२२ [ १६१ नाम वाली राज-कन्या से पाणिग्रहण किया। कुछ काल के पश्चात् उनके एक पुत्री का जन्म हुअा। उसका नाम 'प्रियदर्शना' रक्खा गया। भविष्य मे उसका जमाली नामक अत्रिय पुत्र के साथ विवाह किया गया।
माता-पिता का स्वर्गवास
। भगवान् महावीर स्वामी अट्ठावीस वर्ष के हुए, तब की बात है-उनके माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ के मानने वाले श्रावक-श्रविका थे। उस समय उन्होंने अन्तिम समय जानकर सथारा सलेखना करके अनशन किया ३ काल करके वे बारहवे देवलोक में उत्पन्न हुए। वहाँ से वे मनुष्य बनकर दीक्षा लेकर सिद्ध होगे।
- भगवान के सुपार्श्व नामक काका थे । नन्दिवर्वन नामक __ सगे बड़े भाई थे और सुदर्शना, नामक सगी बडीं बहन थी। ये
और अन्य सभी जाति,मित्र आदि सिद्धार्थ राजा और त्रिशला रानी के स्वर्गवासी हो जाने पर बहुत शोकाकुल हुए। तब भगवान् ने स्वय शान्ति रक्खी और सभी करे धैर्घ दिलाया।
राजपद अस्वीकार माता-पिता के स्वर्गवास के पश्चात् नन्दिवर्धन ने भगवान् से कहा-'पिता का राज-भार तुम स्वीकार करो। तुम बुद्धिमान, बलवान और सर्वगुण सम्पन्न हो । अतः राज्य तुम्हे ही करना चाहिए।' तब राज्यादि के निस्पृही भगवान् ने उन्हें कहा-'राज नियम के अनुसार वडा भाई ही राज्य करता है, अत तुम्ही राज्य करो।' जब अन्त तक भगवान् राजा बनने के लिए तैयार नहीं हुए, तो मन्दिवर्धन को राजा बनना पडा।
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१६२ ] जन सुवोध पाठमाला--भाग १
दो वर्ष और गृहवास माता-पिता के स्वर्गवास हो जाने पर भगवान् का गर्भावस्था मे कर्मो के उदय से ममतावश लिया हुया अभिग्रह पूरा हो चुका था। तब विनयशील भगवान् ने वडे भाई से दीक्षा की अनुमति मांगी। दीक्षा की बात सुनकर नन्दिवर्धन को आँसू
आ गये। उन्होने कहा-'भाई | अभी माता-पिता का स्वर्गवास हुआ ही है। हम अभी उनका वियोग भूल भी नही पाये कि 'तुम यह क्या कह रहे हो?' भगवान् ने कहा -'भाई सभी जीव सभी जीव के साथ सभी नाते अनन्त वार कर चुके है, अत इसको लेकर गृहवास में रहना उचित नहीं।' तव नन्दिवर्धन बोले-'भाई ! यह सब मैं भी जानता हूँ, परन्तु मुझे तुम प्राणो से भी अधिक प्यारे हो, अतः तुम्हारा विरह का गव्द भी मुझे बहुत पीडित करता है । इसलिए अधिक नहीं, तो कम-से-कम मेरे कहने से दो वर्ष और गृहवास में ठहरो। तव भगवान् ने कहा-'तथास्तु, परन्तु मैं आज से भोजन-पान अचित ही करूँगा तथा लौकिक कार्यों में भी मेरी कोई सम्मति अादि नहीं होगी।' नन्दिवर्धन ने इसको स्वीकार किया । भगवान् अपने कहे अनुसार उपर्युक्त अभिग्रह सहित तथा ब्रह्मचारी होकर रहे ऐसा करके भगवान ने-'वैरागी को ससार मे रहना पडे, तो कैसा रहे'इसका आदर्श प्रकट किया।
वाषिक दान इस घटना को लगभग एक वर्ष हो जाने पर भगवान ने एक वर्ष पश्चात् दीक्षा लेने का विचार कया। तब लोकान्तिक देवो ने उपस्थित होकर भगवान् से धर्मतीर्य प्रवर्तन (चालू) करने की प्रार्थना की। भगवान् ने तभी से नित्य प्रातःकाल
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कथा-विभाग-१. भगवान् महावीर [ १६३ एक प्रहर तक वार्षिक दान देना प्रारम्भ किया। इन्द्र की
आज्ञा से जम्भक जाति के देवों ने भगवान् के भण्डार भर दिये। नित्य एक करोड आठ लाख स्वर्णमुद्रा दान देने की गणना से भगवान् ने एक वर्ष मे तीन अरब ८८ करोड ८० लाख स्वर्णमुद्राएँ दान मे दी। इस प्रकार भगवान् दान धर्म प्रकट किया और जैनधर्म का गौरव बढ़ाया।
दीक्षा
वार्षिक दान की समाप्ति पर नन्दीवर्धन को दो वर्ष तक और गृहवास में रहने का दिया हुआ वचन पूर्ण हो गया, तब विनयशील भगवान् ने पुनः नन्दीवर्धन से दीक्षा की अनुमति मागी। विवेकी नन्दीवर्धन ने बडे दुःख के साथ अनुमति दी। राजा नन्दिवर्धन और इन्द्रो ने मिल कर बडे समारोह के साथ भगवान् का निप्क्रमरण (गृहवास से निकलने का) उत्सव मनाया। भगवान् सभी लौकिक वस्तुएँ परित्याग कर तथा सबधियो को धनादि बॉट कर ज्ञात-खण्ड उद्यान मे पधारे। वहाँ सब आभूषण त्याग कर छ? (वेले) के तप मे पञ्च-मुष्ठि-लोच करके भगवान् ने मृगशीर्ष कृष्णा १० को पिछले प्रहर मे दीक्षा ग्रहण की। दीक्षा लेते ही भगवान् को मन.पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ। दीक्षा हो जाने पर नन्दिवर्धन व इन्द्रादि सब भगवान् को नमस्कार करके स्व-स्थान पर चले गये। इधर भगवान् वहाँ से कूर्मग्राम को विहार कर गये।
ग्वाले का उपसर्ग और इन्द्र सहायता अस्वीकार
वहाँ पहुँच कर गांव के बाहर भगवान् कायोत्सर्ग करके खटे हो गये। वहाँ एक ग्वाला सारे दिन बैलो को हल मे चला
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___ १६४ ] जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
कर सध्या के समय आया और भगवान् के पास बैलो को छोड कर गाये दुहने चला गया। इधर वैल भी चरने के लिये दूसरी ओर चले गये। लौटने पर ग्वाले ने वेलो को नही देख कर भगवान् से पूछा - "आर्य | वैल कहाँ है ?" भगवान् मौन रहे । तव वह-'यह (भगवान्) जानता नही होगा'---यह सोचकर वन मे वैलो को ढूंढने गया। इधर वैल चरते चरते
और रात पूरी होते-होते पून. भगवान के पास आ गये। उधर बैलो को ढूंढते-ढूंढते जव ग्वाला भी पून प्रात.काल भगवान् के निकट आया और बैलो को भगवान् के पास वहाँ पाया, तव उमे बहुत क्रोध आया। उसने सोचा- "इसने जानते हुए भी सारी रात मुझे व्यर्थ घुमाया।" वह रस्से का कोड़ा बना कर भगवान को मारने दौडा। उसी समय शक्रेन्द्र अवधि-ज्ञान से यह जान कर वहाँ पहूँचे और ग्वाले को हटाया।
फिर भगवान् को निवेदन किया कि "भगवान् । अभी आपको केवल-ज्ञान उत्पन्न होने मे १२॥ वर्प (कुछ कम १३ वर्ष) समय लगेगा । जब-पहली ही रात्रि को आपको ऐसा उपसर्ग हुआ है, तो इतने समय मे आपको न जाने कितने उपसर्ग आयेंगे ? इसलिए मैं केवल-ज्ञान उत्पत्ति तक आपकी सेवा मे आपकी सहायता के लिये रहना चाहता हूँ। भगवान् ने कहा- "देवेन्द्र । न कभी ऐसा हुआ, न कभी ऐसा होता है तथा न कभी ऐसा होगा किकोई तीर्थंकर देवेन्द्र, असुरेन्द्र या नरेन्द्र की सहायता से केवल-ज्ञान उत्पन्न करे। वे स्वय के पराक्रम से ही केवल-ज्ञान उत्पन्न करते हैं।" शक्रेन्द्र भगवान के इन वचनो को सुन कर निराश हो लौट गये। तीर्थंकर ऐसे पराक्रमी हुआ करते हैं।
अपने पर कोड़ा उठाने वाले पर भगवान् ने द्वेष नही किया तथा अपनी रक्षा के लिए आये हुए इन्द्र पर राग नही
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कथा-विभाग-१. भगवान् महावीर [ १६५ किया । इस प्रकार भगवान् छद्मस्थ (केवल ज्ञान रहित) अवस्था मे भी वीतराग के समानरहे। धन्य है, ऐसे वीतराग प्रभु को ! -
प्रथम पारगा दूसरे दिन प्रात काल 'कोनाक' ग्राम मे 'बहले' नामक ब्राह्मण के यहाँ भगवान् का परमान्न (खोर) से पारणा हुया। देवो ने तब पञ्च दिव्य प्रकट किये। पारणा करके भगवान् वहाँ से चले गये और ममता यादि जन्य रुकावट रहित अप्रतिबन्ध विहार करने लगे।
उपसर्ग प्रारंभ दीक्षा के समय भगवान् के शरीर पर देवादिको ने चन्दनादि का लेप किया था। चार मास से अधिक समय तक उसकी गध से आकृष्ट भौंरे भगवान् के शरीर मे तेज दंश देते रहे, परन्तु भगवान् उन्हे समतापूर्वक सहन करते रहे। कुछ विलासी युवक भगवान् से गन्धपुटी माँगते और भगवान् के मौन रहने पर क्रोध मे आकर प्रतिकूल (इन्द्रिय मन शरीर को भले न लगने वाले) उपसर्ग (कष्ट) देते। कुछ स्त्रियाँ उनके दिव्य रूप को देखकर दुर्भावना प्रकट करती। कोई नग्न होकर प्रालिगनादि भी करती। परन्तु भगवान् उन प्रतिकूल-अनुकूल सभी उपसर्गों को सहते हुए अहिसा व ब्रह्मचर्य आदि का पालन करते रहे। शूलपाणि का उपसर्ग तथा उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति
सबसे पहले चातुर्मास के लिए भगवान् 'अस्थिक' ग्राम पधारे। वहाँ उन्होने स्थान के लिए 'शूलपारिग यक्ष' के
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जैन सुवोध पाठमाला--भाग १
मन्दिर की याचना की। गाँव के लोगो ने कहा- 'इस मन्दिर का शूलपाणि यक्ष अपने मन्दिर मे रात्रि विश्राम करने वाले को मार डालता है, अत. आप यहाँ न ठहरे।' भगवान् जान रहे थे कि 'यह बोध पाने वाला है, अत. उन्होने कहा-अस्तु, आप इसका विचार न करे, मुझे आज्ञा दे दे।' एक पुरुष चातुर्मासवास के लिए दूसरी वसति देने लगा, परन्तु भगवान् उसे स्वीकार न करके वही ठहरे । सध्या-पूजा के लिए प्राये हए इन्द्रशर्मा पूजारी ने भी भगवान् को वहाँ न ठहरने की बहुत प्रार्थना की, परन्तु भगवान् ने उसकी प्रार्थना स्वीकार नहीं की।
शूलपाणि यक्ष को यह देख वहत ही क्रोध पाया-'गाँव । के लोग और पूजारी के कहने पर और दूसरी वसति मिलते हुए भी यह यही ठहरा, अत इसको इसका अच्छा फल दिखाना चाहिए।' उसने सूर्यास्त होते ही भीम अट्टहास से भगवान् को । भयभीत करने का प्रयत्न किया, पर वह सफल नही हुया । तब उसने १. हाथी, २ पिशाच और ३. सर्प के रूप से उपसर्ग किये। (इन उपसर्गों के विस्तृत वर्णन के लिए कामदेव की कथा देखो।) इससे भी जब वह भगवान् को डिगा न सका, तब उसने क्रमश भगवान् के १. शिर, २. कान, ३. आँख, ४. नाक, ५ दाँत, ६ नख और ७ पोठ- इन सात अगोपांगो मे ऐसी भयकर वेदना उत्पन्न की, जिस एक-एक वेदना से सामान्य मनुष्य मर सकता था, परन्तु उन वेदनाओ मे भी भगवान् निर्भय, शान्त और दृढ रहे। तब वह यक्ष भगवान् की महत्ता जानकर उनके पैरो गिर पड़ा और उसने बार-बार क्षमा याचना की। अन्त मे वह बोध पाकर धर्मी वना और उसने सदा के लिए हिंसा छोड़ दी।
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कथा-विभाग-१. भगवान महावीर
देवदूष्य का त्याग चातुर्मास पूर्ण हो जाने पर भगवान् ग्रामानुग्राम (एक गाँव से दूसरे गाँव) विचरने लगे। जब भगवान् दीक्षित हुए, तब इन्द्र ने उनके कन्चे पर एक 'देवदूष्य' नामक लाख स्वर्णमुद्रा मूल्य का वस्त्र रक्खा था। वह तीनो ऋतुओ के अनुकूल सुखदाई था। शीतकाल मे ऊष्ण, ऊष्णकाल मे शीत और वसत ऋतु मे शक्तिप्रद था, परन्तु भगवान् ने कभी उसका उपयोग नहीं किया। दीक्षा लिए जब एक वर्ष और एक महीना पूरा हुआ, तब वह भगवान् के कन्धे से अपने पाप गिर कर कॉटो मे जा पडा। भगवान ने उसे जीवादि रहित स्थान मे गिरा देख कर वोसिरा दिया। भगवान का वह देवदूष्य वस्त्र काँटो मे गिरा, यह इसका प्रदर्शक था कि भगवान् का भावी गासन बहुत कॉटो वाला होगा। अर्थात् १. उसमे बखेडा करने वाले बहुत होगे, २. शासन विभिन्न सप्रदायो मे बँट कर चालनी-सा बन जायेगा और ३ अच्छे साधुओ को सम्मान, वस्त्र, पात्र आदि दुर्लभ होगे।
चण्डकौशिक का उपसर्ग व उसको बोध
, एक समय भगवान् दक्षिणी 'वाचाल' से उत्तरी 'वाचाल' को सीधे मार्ग से जा रहे थे। मार्ग मे ग्वालो ने कहा-'आप इस सीधे मार्ग से न जाइये। इस मार्ग मे दृष्टिविष (जिसे भी क्रोध मे आकर देखे, उसी को विष चढ जाय-ऐसी विषभरी दृष्टिवाला) सर्प रहता है। आप उस दूसरे घुमाव वाले मार्ग से पधारे।' भगवान जान रहे थे कि वह सर्प बोध पाने वाला है, अतः वे उसी मार्ग से गये और उसके विल के निकट कायोत्सर्ग करके नडे हो गये।
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१६८ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १
वह सर्प पहले के भव मे एक तपस्वी मुनि था । वह क्रोधी था। एक बार वह पारणे मे वासी भोजन के लिए जा रहा था। सार्ग मे उसके पैर से एक मेढकी दव कर मर गयी। शिष्य के कहने पर उसने दूसरो के परो से मरी मेढकियाँ दिखाकर'कहा-'क्या ये भी मैने मारी है ?' अर्थात् जैसे ये दूसरों के परो से मर गई हैं, वैसे ही यह भी (जो स्वय के पर से दवकर मर गई थी) दूसरो के परो से मर गई है। शिप्य ने मोचा-भी ये क्रोध मे आ गये हैं, इसलिए ऐसा कहते है, पर सध्या को प्रतिक्रमण मे प्रायश्चित कर लेगे। पर तपस्वी ने प्रतिक्रमण मे उसका प्रायश्चित नहीं किया। जव शिष्य ने उसे स्मरण कराया, तो वह पूरे क्रोध मे आ गया और मारने दौडा, परन्तु बीच मे सभा आ जाने से टकरा कर उसकी मृत्यु हो गई। वहाँ से वह ज्योतिषी जाति का देव वना। वहाँ से च्यवकर वह अस्थिक और श्वेताम्बिका के मार्ग मे रहे हुए एक पाश्रम के कुलपति के घर जन्मा। उसका नाम 'कौशिक' रक्वा गया। वहाँ भो वह चड (क्रोध) स्वभाव का था। अतः उसे लाल चण्डकौशिक कहने लगे। पिता के मर जाने पर वह कुलपति बना। क्रोधी स्वभाव के कारण सभी तापस उसके ग्राम से चले गये। एक बार श्वे म्बिका के राजपूत्र इस पाश्रम की अोर आये थे। चण्डकौगिक उन्हे परशु लेकर माग्ने दौडा, परन्तु मार्ग मे खड्डा अाया। उसमे वह परशु के प्रभिमुख गिर पडा। परशु मे उसके सिर के दो भाग हो,गये । उससे वह मरकर वहो सर्प के रूप मे जन्मा था।
भगवान् को देखकर उस सर्प को बहुत क्रोध याया। उसने क्रोधयुक्त दृष्टि से भगवान् को तीन बार देखा, पर भगवान् जले नही। तब उसने भगान् के अगले मे तोन चार दश
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कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर [ १६६ दिया, पर भगवान् को विष चढा नही, परन्तु दूध-सा सफेद लोही निकला। यह देखकर वह आश्चर्य और ईर्ष्या के साथ भगवान् को देखने लगा । भगवान् की सौम्य देह-काति से- उसकी आँखों का विष बुझ गया। भगवान् ने उसे उपदेश दिया"चडकौशिक | क्रोध का उपशम कर।" यह सुन कर व विचार करते-करते उसे पूर्व भव का स्मरण हुआ और 'तीर्थंकरो का लोही सफेद होता है'- इस लक्षण को स्मरण कर वह भगवान् को 'पहचान गया। उसने भगवान् को भाव-वदना कर क्षमा मागी। उसे अपनी क्रोध-वृत्ति पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। 'स्वय से हुई मेढकी की विराधना को स्वीकार न कर शिष्य पर क्रोध करने से मैं जैनमत से गिरकर अन्य मत मे पहुँचा और वहाँ भी 'क्रोध करने से मैं मनुष्य गति से गिरकर अव तियञ्चगति मे पहुँचा। विकार है मुझे । धन्य है, तरण-तारण भगवान् को, जिन्होने मेरे उद्धार के लिए स्वय उपसर्ग सहा।'
उसने अपने पापो को नष्ट कर डालने के लिए सलेखना करके अनशन किया। 'मेरी दृष्टि मे पहले विष था, वह अब यद्यपि नष्ट हो गया है, पर लोगो को इसकी जानकारी न होने से चे अब भो मुझ से भयभीत होगे-यह सोचकर उसने अपना मुंह बाबी मे डाल दिया।' ऐसी दशा देख ग्वालो के बच्चे कुतूहलवश उसे दूर से कंकरादि फेक कर मारने लगे। फिर भी वह निश्चल तथा क्षमाशील रहा। यह बात उन बच्चों ने बडो को जाकर कही। तब बड़े लोगो ने उसकी ऐसी सुन्दर दगा देखकर घी, मिठाई, फल, फूल आदि से उसकी पूजा की। उन वस्तुओं की गध से उसके शरीर पर चढकर कई कीडियाँ उसे काटने लगी। तब भी वह निश्चल तथा क्षमाशील रहा । अन्त मे पन्द्रह दिनो मे कान करके वह ८ वें देवलोक में .देवरूप से उत्पन्न हुआ।
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१७० ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
__ भगवान की वाणी से उसका उद्धार हो गया। क्रोध छोडकर क्षमा अपनाने से वह पशुगति से देवगति मे पहुंच गया। इस प्रकार भगवान् पशुयो के भी उद्धारक थे।
सामुद्रिक पुष्य की प्राशापूर्ति एक बार बालू में चलते हुए भगवान् 'स्थूणा' सन्निवेश (उपनगर) के बाहर पधारे और उन्होंने वहाँ कायोत्सर्ग किया। उनके बालू मे बने हुए अत्यन्त सुलक्षणयुक्त पैर के चिह्नों को देख कर 'पुष्य' नामक सामुद्रिक (अग-रेखा का जानकार) उन पर-चिह्नो के सहारे-सहारे भगवान् के पास पहुँचा। उसे विश्वास था कि 'ऐसे पैर वाला चक्रवर्ती होता है। वह अकेला कुमार-अवस्था में इधर से गया है। उसकी सेवा मे पहुँचने से मुझे धन-राज्यादि की प्राप्ति होगी। परन्तु उसे भगवान् को पूर्ण नग्न देखकर पूरी निराशा हुई और उसका सामुद्रिक विद्या पर विश्वास उठ गया। तव गक्रन्द्र ने पाकर उसे मनोवांछित धन दिया, सामुद्रिक विद्या पर विश्वास जमाया और 'भगव न चक्रवर्ती से भी बढकर त्रिलोकीनाथ हैं-सका परिचय दिया।
गौशालक की प्रार्थना अस्वीकार वहाँ से विहार करके भगवान् दूसरे, चातुर्मास के लिए राजगृह पवार यार वहाँ 'नाला ' नामक मतिविग की तनुवार (वुनकर) की गाला मे बाजा लेकर व्हरे। वहाँ पर मवलो पिता और भद्रा माता का पुत्र 'गोगालक' भी मख (चित्रपट) से ग्राजीविका करता हुया चातुर्मास के लिए आया और ठहरा।
उस चातुर्मास मे भगवान ने मास मास क्षमण (तय) किया। प्रथम मासक्षम्मा के पारणे के लिए भगवान् विजय
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कथा-विभाग-१. भगवान् महावीर [ १७१ गाथापति (गृहस्थ) के घर पधारे। विजय ने भगवान को विधि आदि सहित दान दिया। (दान विधि आदि के विस्तृत वर्णन के लिए सुवाहुकुमार की कथा देखो।) दान से पॉच दिव्य प्रकट हुए। गोशालक ने इस समाचार को सुनकर तथा रत्नवृष्टि प्रादि देखकर भगवान् को पहचाना और भगवान से शिष्य बनाने की प्रार्थना की । पर भगवान् उसकी प्रार्थना को स्वीकार न करते हुए मौन रहे।
गोशालक की प्रार्थना स्वीकृत । चातुर्मास समाप्त होने पर कार्तिकी पूर्णिमा के पश्चात् की प्रतिपदा(एकम) को भगवान् वहाँ से विहार कर 'कोल्लाक' सन्निचेश मे पहुंचे और उन्होने बहुल ब्राह्मण के यहाँ पारणा किया। भगवान् को पुनः तन्तुवायशाला मे न लौटे देखकर गोशालक ने अपने चित्र और नेषादि उपकरण किसी अन्य ब्राह्मण को दे दिये और मुण्डित होकर भगवान् को ढूंढता हुआ वह कोल्लाक सन्निवेश मे पहुँचा। वहाँ पच दिव्य आदि देख उसने निश्चय किया-'ये दिव्य आदि मेरे धर्माचार्य भगवान् महावीर को हो प्राप्त हैं, अन्य किसी को भी नहीं । अतः भगवान् यही है। इसके पश्चात् उसने भगवान् को कोल्लाक सन्निवेश के बाहर ही पा लिया । वहाँ भी उसने भगवान से प्रार्थना की कि 'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य है और मैं आपका अतेवासी (शिष्य) हैं।' भगवान् ने उसे जब अन्य मत के वेषादि से रहित देखा, तब उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। उसके पश्चात् वह गोशालक भगवान् के साथ छह वर्ष तक रहा।
गोशालक का स्वभाव व गमनागमन
वह गौशालक बहुत उच्छृङ्खल (मर्यादा तोड़ने वाला) और उद्दण्ड (मर्यादाहीनता को सिद्ध करने वाला) था। कभी वह
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१७२ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १ बच्चो को भयभीत करता, कभी किसी की हँसी उडाता, कभी किसी की निन्दा करता, कभी किसी से' 'अरे-तुरे' करता और कभी स्त्रियो से छेडछाड भी करता था। अत: कई स्थानो पर वह राजकुमारो, कोटवालो तथा गाँव वालो के द्वारा पीटा जाता था। परन्तु अन्त मे भगवान् का सेवक आदि समझकर लोग उसे छोड देते थे।
एक बार उसने भगवान् से कहा : 'मैं तो पीटा जाता हूँ और आप कायोत्सर्ग मे ही खडे रहते हैं, अत: मैं आपके साथ नहीं रहूँगा।' यह कह कर वह चला गया। छह महीने तक वह स्वच्छन्द घूमता रहा। पर उसकी. उच्छृङ्खल और उद्दण्ड वृत्ति. से वह सर्वत्र पीटा जाता था। वहाँ उसे भगवान् के नाम पर भी कोई छुडाने वाला नही मिलता था। इससे वह हताम होकर पुन. भगवान् की सेवा मे आ गया।
तिल-पौधे संबंधी भविष्यवाणी सफल .
एक बार की बात है। शरद् ऋतु मे,भगवान् गोशालक के साथ सिद्धार्थ- गाँव से कूर्म गाँव जा रहे थे। मार्ग मे एक पत्र-फूल आदि सहित हरा-भरा सुन्दर तिल का पौधा देखकर गोशालक ने वन्दन-नमस्कार कर भगवान् से पूछा : १. इस पौधे मे तिल लगेंगे या नहीं तथा २. इस पौधे के सात फूल के जीव मरकर कहाँ जाकर उत्पन्न होगे ?' भगवान् ने उत्तर दिया : '१ इस पौधे मे तिल होगे' और २ ये सात फूल के जीव मरकर इस पौधे की एक फली मे सात तिल के रूप में उत्पन्न होगे।'
तव वह कुशिष्या भगवान् के इन वचनों पर श्रद्धा न करते हुए भगवान् को मिच्छावादी (भूठा) ठहराने के लिए वहाँ
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कथा-विभाग-१. भगवान महावीर . [ १७३ से खिसका, तिल-पौधे के पास पहुंचा और उसने उसे मिट्टी के ढेले सहित समूल उखाड कर एकान्त मे फेक दिया। फिर वह भगवान् से जा मिला।
तत्क्षण ही आकाग मे बादल घुमड़ आये। बिजली व कडाके के साथ वर्षा हुई। पानी और कीचड को पाकर वह पौधा पुन. प्रतिष्ठित हो गया (जम गया)। कालान्तर से उस पौधे के सात तिल-फूल के जीव मर कर उसी की एक फली मे सात तिल के रूप मे उत्पन्न हो गये।
गोशालक की रक्षा
इधर भगवान् गोगालक के साथ 'कूर्म गांव के बाहर पहुंचे। वहाँ निरन्तर बेले-बेले (दो-दो उपवास), करने वाला, 'वैश्यायन' नामक बाल-तपस्वी सूर्य के सामने खडे होकर, आँखे खोलकर तथा भुजाओ को ऊँची उठाकर आतापना ले रहा था। गर्मी से घबराकर उसके मस्तक की जटा से बहुत-सी जुएँ नीचे गिर जाती थी। वह उनकी रक्षा के लिए उन्हे उठाकर फिर से अपने मस्तक मे रख देता था।
चचल गोशालक उसे इस प्रकार देखकर भगवान् के पास से खिसका और उससे जाकर बोला • 'अरे, तू मुनि है या , राक्षस है या जूओ का शय्यातर (घर) है ?' गोशालक के द्वारा एक, दो और तीसरी बार भी ऐसा कहे जाने पर वैश्यायन क्रुद्ध । हो गया। उसने गोशालक पर उष्ण तेजोलेश्या फेकी। (भस्म कर देने वाले तैजस शरीर से निकलने वाले जड-पुद्गल फेके) तब अनुकम्पाशील भगवान् ने गोशालक को बचा लेने के लिए अनुकम्पा करके शीतल तेजोलेश्या द्वारा उस उष्ण तेजोलेश्या को नष्ट कर दी।
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१७४ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १
वैश्यायन ने अपनी लेश्या को नष्ट और गोशालक को सुरक्षित देख कर भगवान् से कहा . 'भगवन् ! मैंने जाना, जाना, जाना।' उसके इस कथन का भाव यह था कि 'पाप मुझसे महान् है तथा आपके प्रभाव से यह गोगालक नही जला है --यह मैंने जाना।'
गोशालक ने यह सुनकर भगवान् से पूछा · 'यह-जाना, जाना, जाना - क्या कहता है ?' तव भगवान् ने गोगालक को उसके द्वारा वैश्यायन को देखना, खिसकना, हँसी उडाना और वैश्यायन द्वारा उस पर लेश्या फेकना, उसकी स्वय रक्षा करना श्रादि सव बाते बताते हुए 'जाना, जाना, जाना' का अर्थ वताया। तव गोगालक ने भगवान् से तेजोलेश्या-प्राप्ति की विधि पूछो । भगवान् ने भावीवण उसे विधि बताई।
गोशालक का पृथक् होना
. उसके पश्चात् की बात है। पुन भगवान् कूर्म गॉव से सिद्धार्थ गॉव पधार रहे थे। गोशालक साथ मे था। उसने भगवान् की हँसी उडाने के लिए कहा 'भगवन् ! ग्राप जो पौधा फलने आदि की वाते कर रहे थे, वे अव प्रत्यक्ष सूठी दिखाई दे रही हैं।' तव भगवान् ने उसे 'उसकी झूठा ठहराने की भावना और अपने वचन कसे सत्य हुए' आदि सारी वाते कह सुनाईं। फिर भी उसे विश्वास नहीं हुआ। तब उस घृष्ट ने भगवान के ही सामने जाकर उस तिल के पौधे को देखा और उसकी फली तोड़ कर तिल गिने। भगवान् की बात सच्ची निकलने पर भी, भगवान् पर श्रद्धा करना दूर रहा, वह भगवान् से भिन्न हो गया।
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कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर
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गोशालक के वाद और पन्थ
उसने इस घटना से १. नियतिवाद (जो होना है, वह होता ही है और अपने आप ही होता है। वह न तो पुरुषार्थ से होता है, न वह पुरुषार्थ से रुकता है।) तथा २. परिवर्तपरिहारवाद (विना मरे जीव का अन्य शरीर में परिवर्तित होना और पूर्व शरीर का परित्याग करना)—ये दो सिद्धान्त बनाये।
इसके पश्चात् उसने भगवान् से जानी विधि करके छह महीने मे तेजोलेश्या प्राप्त की तथा उसे एक दासी पर प्रयोग करके उसके मर जाने पर उसकी प्राप्ति पर विश्वास किया। उसके पश्चात् उसे भगवान् पाश्र्वनाथ के छह पाश्वस्थ (ज्ञानक्रिया को एक ओर रख कर चलने वाले) मिले। उनसे उसने भूत मे हुए व भविष्य मे होने वाले १. लाभ, २ अलाभ, ३ सुख, ४ दुख, ५ जीवन और ६. मरण इन छह बातो को जान लेने की विद्या सीख ली।
इस प्रकार वह तेजोलेश्या और निमित्त-विद्या को जान कर अपने आपको झूठ-मूठ सर्वज्ञ व तीर्थकर कह कर विचरने लगा।
अनार्य देश के उपसर्ग
छमस्यकाल के पाँचवे वर्ष मे और नववे वर्ष मे इस प्रकार दो वार भगवान् अनार्य देश में अपने कठिन एव बहन कर्मों की निर्जरा के लिए पधारे थे। वहाँ के लोग स्वभाव से कर थे। वे भगवान् को गाँव मे वुसने नही देते थे, रोटी-पानी नहीं देते थे, उन्हे मुण्डा मुण्डा आदि अपशब्द कहते थे, उनके पीछे कुत्ते भी छोड देते थे। कहो ध्यान लगाये देखते, तो ठोकर
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१७६ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १ मार कर लुढका देते थे। कोई रात्रि मे उन्हे कायोत्सर्ग मे खडे देखकर पूछते कि 'तू कौन है ?' जब इस प्रश्न का भगवान् से
उत्तर नही मिलता, तो वे उन्हे कोडे आदि से मारते और वॉध “भी देते थे। कोई उन्हे गुप्तचर समझ कर कष्ट देते। परन्तु - भगवान् 'वहाँ गीत, ताप, भूख, प्यास, अपशब्द, वध आदि सभी प्रकार के स्पसर्ग समतापूर्वक सहते रहे।
संगम द्वारा इन्द्र-प्रशंसा का विरोध
छद्मस्थकाल के ग्यारहवे वर्ष की बात है। भगवान 'पेढाला' नगरी के 'पोलास चैत्य' में तेले की रात्रि को एक ही अचित्त पुल पर दृष्टि जमा कर खडे हुए थे। उस समय गक्रेन्द्र ने देवसभा मे भगवान् की उपसर्ग-दृढता की प्रशसा करते हुए कहा कि 'भगवान् को देव-दानव कोई भी नहीं डिगा सकता। तव शक्रन्द्र का सामानिक (समान ऋद्धि वाला) 'संगम' नामक अभव्य (कभी भी मोक्ष 'मे न जाने वाला) देव वोला 'भगवान के प्रति राग (ममता) के कारण ही देवेन्द्र इस प्रकार वर्धमान की मिथ्या प्रशसा कर रहे है, अन्यथा कौन ऐसा मनुप्य है, जो देव से विचलित न हो? मैं अभी वर्धमान को विचलित करके बताता हूँ।'
'मैं यदि इसे रोकंगा तो, 'भगवान् के रागो भगवान् की मिथ्या प्रशसा करते है'-यह भाव अधिक दृढ हो जायगा'-यह सोचकर हृदय को वहुत दुख पहुँचने पर भी, भगवान् को उपसर्ग देने के लिए जाते हुए सगम को इन्द्र रोक न सके।
संगम द्वारा एक रात्रि में बोप उपपर्ग
भगवान् के पास पहुँच कर सगम ने पहला १ चूलि-वर्षा का उपसर्ग दिया, जिमसे भगवान् का गरीर, कान, अाँख, नाक
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क्थ -विभाग - १ भगवान् महावीर [ १७७ प्रादि भर गये, परन्तु भगवान् विचलित नहीं हुए। तब उसने भगवान् को, विचलित करने के लिए दूमरा, दूसरे से भी विचलित न होने पर तीसरा, तीसरे से भी विचलित न होने पर चौथायो क्रमशः एक ही रात्रि में आगे लिखे जाने वाले २० उपसर्ग दिये। १. धूल-वर्षा की। २ कीडिये बन कर भगवान् के शरीर को चालनी-सा छिदवाया। ३ डाँस और ४ कीडे बनकर काटा। ५ विच्छू और ६ सर्प बन कर दश दिये। ७. नौले और ८ चूहे वनकर काटा । है हाथी और १० हथिनी वनकर उछाला, रोदा। ११ पिशाच होकर खड्ग से खण्डखण्ड किये। १२ व्याघ्र बनकर फाडा । १३ सिद्धार्थ और १४: त्रिशला, बनकर करुण क्रन्दन किया। १५. पैरों पर खीर पकाई। १६ पक्षी वनकर मॉस नोचा। १७ खरवात से भगवान्, को उठा-उठाकर पटका। १८. कलकलीवात से चक्रवत् घुमाया। १६. कालचक्र बनाकर आकाग में ले जाकर पटका। २० 'तुम मेरे उपसर्गों से नही डिगे, इसलिए वर माँगो । मैं तुम्हे स्वर्ग या मोक्ष भी दे सकता है।' बीसवे उपसर्ग मे इस प्रकार कहा। परन्तु भगवान् इन चीस उपसर्गो में से एक उपसर्ग से भी विचलित नही हुए।
जब ये वीस उपसर्ग करके भी सगम भगवान् को डिगा नहीं सका तो उसे बहुत क्रोध पाया।
सगा के छह भासिक उपसर्ग
रात्रि पूर्ण होने पर भगवान् वहाँ से विहार कर गये। परन्तु वह पीछे ही पड़ा रहा। कहो चोर बनकर उन्हे उपसर्ग देता। कभी गौचरी गये हुए भगवान् के शरीर को ढक कर स्त्रियो के सामने अपने ऐसे रूप बनाता, जिससे स्त्रियो को ऐसा
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१७ जन सुवोध पाठमाला--भाग १ लगता 'कि यह नगा हमसे कानी ऑख करता हैं (ऑखें लडाता है), यह हाथ यादि जोड कर हमसे काम-भोग की प्रार्थना करता है, यह पिशाच की भाँति उन्मत्त है। यह हमें कष्ट देता है, यह हमारे समक्ष विकृत रूप मे खडा है।' इस प्रकार दिखाई देने पर कुछ तला स्त्रियाँ स्वय भगवान् को पीटती, कुछ, स्त्रियाँ अपने पति आदि को कह कर पिटवाती। सगम के ऐसे दुष्कृत्य देखकर भगवान् उपसर्ग से तो विचलित नहीं हुए पर । 'इससे जैन धर्म का महान् अपमान होता है, उसके प्रति लोग अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देखते है'-यह सोच कर उन्होंने गाँव आदि मे भिक्षार्थ जाना ही बन्द कर दिया।
फिर भी उस दुरात्मा ने भगवान् को उपसर्ग देना नहीं छोडा। भगवान् गॉव के बाहर कायोत्सर्ग करके खड़े रहते। पर वह उनका वालक गिष्य वन कर गाँव मे जाता। वहाँ कही सेव लगाता। कभी सेव लगाने ग्रादि का स्थल ढूँढता। तव लोग उसे पकड कर मार-पीट करते। वह कहता : 'मैं स्वय कुछ, नहीं करता, मुझे तो गाँव के बाहर खड़े मेरे गुरु जो कहते है, वही करता हूँ।' तक लोग गाँव के वाहर पाकर भगवान् को मार-पीट करते। परन्तु भगवान् तव भी उसे सहते रहे।
भगवान् को सहिष्णुता व अनुकम्पा
अपराधी न होते हुए भी दूसरों के समक्ष अपराधी बताना, वह भा असदाचारी के रूप मे-उसे सहन करना कितना कठिन होता है ? पर भगवान् ने उसे भी महा। अपराध में प्रेरक न होते हुए भी भगवान् को प्ररक वनाग, तव भी भगवान् गात रहे। धन्य है, ले परीपह सहिष्णु प्रभु को सगम ने भगवान् को इस प्रकार छह मान तक कष्ट दिये। छह मास
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कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर [ १७६ समाप्त होने पर भगवान् छह-मासी तप के पारणे मे गोकूल मे गये। पर वहाँ भी उस महा पापी ने घर अशुद्ध (असूझता) कर दिया। पर भगवान् तब भी अविचल रहे। अन्न में वह हरा। प्रभु का धैर्य जीता। पैरो मे पड कर उसने भगवान् ने बार-बार क्षमा याचना की। उसने कहा : 'भगवन् । शक ने जो
आपकी प्रशसा की, वह मिथ्या प्रशसा नही थी, पर यथार्थ प्रशमा थी। मेरी प्रतिमा विफल गई और प्रापका धैर्य विजयी रहा। मैं हारा और पाप जीते। अब आप पारणे के लिए पधारिये ।' भगवान् ने उत्तर दिया 'सगम ] मै पारणे के लिए जाऊँ, चाहे न भी जाऊँ, परन्तु तुमने जा मुझे उपसर्ग दिये, उस सम्बन्ध मे किसी से कुछ न कहना, अन्यथा मेरे रागो तुम्हें वहत दुख दो।' अहा । धन्य है, भगवान् की भगवत्ता। कष्ट देने गले के प्रति भी कितनी अनुकम्पा १
परन्तु कष्ट देने वाले का मुंह छुपा नहीं रहता। जब सगम अगवान् को कष्ट देकर देवलोक मे पहुंचा, तो शक्रेन्द्र ने मुंह फेर लिया और उसे देवलोक-निकाला दे दिया। उसके साथ केवल उमकी देवियाँ हो जाने दी। शेष सारा परिवार वह अपने साथ नहीं ले जा सका।
जोर सेठ की आदर्श दान-भावना
भगवान् ग्यारहवे चातुर्मास के लिए चौमासी तपपूर्वक 'विशाला' नगरी के 'बलदेव' के मन्दिर मे बिराजे। वहाँ श्रावक 'जिनदास सेठ' रहते थे। कुछ वेभव कम हो जाने से लोग उन्हे 'जीर्ण सेठ' कहते थे। वे भगवान् की सेवा करते हुए नित्य शिक्षा के समय अपने घर पर भगवान् की प्रतीक्षा करते कि 'भगवान् पारणे के लिए मेरे घर पधारे, तो
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१८० ] जन सुबोध पाठमाला--भाग १ मैं कृतार्थ हो जाऊँ।' परन्तु चार मास हुए, उनकी पागा नहीं फली। चातुर्मास समाप्ति के दिन जीर्ण सेठ ने स्वय भी इस अागा मे पारणा नही किया कि 'भगवान् आज तो पारणा करेंगे ही। क्या ही अच्छा हो, यदि भगवान् मेरे हाथ से कुछ ग्रहण करे और फिर मैं खाऊँ" वे इस मनोरथ मे अपने द्वार पर ही खडे रहे, परन्तु भिक्षा के समय भगवान् ने वहाँ के एक दूसरे पूर्ग नामक सेठ के यहाँ पधार कर पारणा कर लिया। उस समय वजी हुई देव-दुन्दुभि सुन कर जीर्ण सेठ अपने आपको मन्द-भाग्य समझ कर वहुत पश्चात्ताप करने लगे। भगवान् को दान देने के लिए जीर्ण सेठ के परिणाम इतने उत्कृष्ट (बढकर) थे कि 'यदि जीर्ण सेठ को दुन्दुभिनाद एक घडी भर और न सुनाई देता और उनके उत्कृष्ट परिणामो का वह प्रवाह वर्धमान (वढता) रहता, तो उन्हे उस समय केवल-ज्ञान प्राप्त हो जाता।'
कठिन अभिग्रह का चन्दनबाला द्वारा पारणा
पूरण सेठ के यहाँ पारणा करके भगवान् वैगाली से विचरते हुए 'कौशाम्बी' पधारे। वहाँ भगवान ने कठिन अभिग्रह किया। वह 'चन्दनबाला' के हाथो से फला। (इसके विस्तृत वर्णन के लिए ३. चन्दनवाला की कथा देखो।)
ग्वाले का उपसर्ग
कौशाम्बी से विचरते हुए भगवान् 'षण्मानि' नामक गाँव के वाहर पधार कर कायोत्सर्गपूर्वक खडे रहे। वहाँ एक ग्वाला भगवान् के पास बैलो को छोड कर गाये दुहने के लिए गया। इधर बैल भी चरने के लिए वहाँ से चले गये। ग्वाले ने लौटने पर बैलो को न देख कर भगवान् से उनके विपय मे
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कथा-विभाग- १ भगवान महावीर [ १८१ पूछा। भगवान् के मौन रहने से क्रुद्ध होकर उसने भगवान् के दोनो कानो मे दो कट-शलाकाएँ (चटाई की शलियाँ) डाल दी और किसी को वे न दिखे- इस प्रकार उन्हे बाहरी भाग से काट कर सम कर दी। परन्तु भगवान् ने उस समय नि श्वास तक न छोडा। पूर्व भव मे इस ग्वाला के जीव के कान मे भगवान् ने उकलता शीशा डलवाया था, जिसके कारण भगवान् को यह उपसर्ग मिला।
सिद्धार्थ व खरक द्वारा वंय्यावृत्य
वहाँ से विहार कर भगवान् 'अनापापुरी' मे 'सिद्धार्थ' वगिक के यहाँ भिक्षार्थ पधारे। वहाँ पर बैठे खरक नामक वैद्य ने भगवान् के कानो मे रही हुई कट-शलाकाओ को देखकर सिद्धार्थ को बतलाईं। सिद्धार्थ ने खरक को उन्हे निकाल देने के लिये कहा। फिर सिद्धार्थ ओर खरक वैद्य ने भगवान को कट-गलाकाएं निकालवाने की प्रार्थना की, परन्तु भगवान् ने स्वीकार नही की। भगवान् पारणा करके गाँव के बाहर जाकर कायोत्सर्ग करके खडे हो गये। तब सिद्धार्थ और खरक ने वहाँ जाकर ध्यानस्थ खडे भगवान् को सुलाकर उनके कानो से उन्हे निकाल दी और सरोहणी औषध लगाकर भगवान् के कानो के घाव पूर दिये।
वह ग्वाला मर कर सातवी नरक गया और सिद्धार्थ और वैद्य देवलोक गये।
महावीर नाम का हेतु
__“जो भी तीर्थकर होते हैं, प्राय वे तप द्वारा ही चार घाति कर्म क्षय करते हैं। उन्हे छद्मस्थ अवस्था मे प्राय. 'उपसर्ग नही
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१८२ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ पाते। पर भगवान् को छद्मस्थ अवस्था मे कई उपसर्ग आये, जिनमे सगम जैसे महा कठिनतम उपसर्ग भी थे। पर भगवान् ने उन आये हुए सभी उपसर्गों को निर्भय होकर शान्ति के साथ धैर्यतापूर्वक सहे। (मेरु पर्वत का कम्पन किया, बाल-अवस्था मे भी देव द्वारा की गई परीक्षा मे भयभीत नही हुए।) इस कारण से भगवान् का नाम देवतायो ने 'महावीर' रखा। भगवान् का यही नाम आगे चलकर अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ।
केवलज्ञान को प्राप्ति वहॉ से विचरते हुए भगवान् 'जम्भक' गॉव के बाहर 'ऋजुबालिका' तट के ऊपर रहे श्यामाक गाथापति के खेत मे पधारे और वहाँ साल-वृक्ष के नीचे गोदोह जैसे कठिन अासन को लगाकर वेले के तप मे अातापना ले रहे थे। उस समय, जव कि भगवान् को सर्वथा प्रमादरहित तप करते और उपसर्ग सहते १२ वर्ष, छ महीने और एक पक्ष (१५ दिन) हो गए, तव वैशाख शुक्ला दशमी के दिन पिछले प्रहर को भगवान् को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। उस समय कुछ समय तक के लिए सर्वत्र प्रकाग हुआ और सभी नारकीय आदि दुखी जीवो को शान्ति मिली।
प्रथम देशना विफल
केवल ज्ञान उत्पन्न होने के पश्चात् सभी इन्द्र अपने परिवार और देवों सहित भगवान् को वन्दन करने और वाणी सूनने के लिए आये। समवसरण के कुतूहल से आकृष्ट कई मनुष्य और विशिष्ट तिर्यंच भी वहाँ एकत्रित हुए। भगवान ने अतिशयपूर्ण उपदेश सुनाया, परन्तु किसी ने श्रावक या साधुधर्म स्वीकार नहीं किया।
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कथा विभाग-१ भगवान् महावीर [ १८३ तीर्थंकरो की पहली वाणी मे कोई न कोई व्रत-धर्म अवश्य स्वीकारते है, परन्तु भगवान् की वह पहली वाणी सफल न हुई। यह इसकी प्रदर्शक हुई कि 'भगवान् के शासन मे उपदेशको का उपदेश सफल कम होगा।' ऐसी घटना कभी अनन्त काल से घटती है।
श्री इन्द्रभूति व चन्दनबालाजी को दीक्षा
जम्भक गाँव से विहार करके भगवान् 'पापापानगरी' पधारे। वहाँ 'श्री इन्द्रभूति' आदि ग्यारह गरगधर दीक्षित हुए। ( विस्तृत वर्णन के लिए २ श्री इन्द्रभूति की कथा देखो।) महासती 'श्री चन्दनबालाजी' भी वही दीक्षित हुई और अनेको श्रावक-श्राविकाएँ भी वहाँ बनी। उसके बाद भगवान् वहाँ के जनपद (देश) मे विहार करने लगे।
श्री ऋषभदत्त व देवानन्दा को दोक्षादि
भगवान् विचरते हुए एक बार ब्राह्मणकुण्ड' ग्राम में पधारे। वहाँ ऋषभदत्त ब्राह्मण और देवानन्दा ब्राह्मणी भी भगवान् के दर्शनार्थ आई। .
'मेरे स्वप्न त्रिशला के यहाँ गये'--इमसे देवानन्दा को यह अनुमान था कि 'भगवान् पहले मेरी कुक्षि मे ८२॥ रात्रि बिराजे थे।' अत उसे भगवान् के दर्शन पाकर रोमांच हो याया। स्नेह (तेल) से तलने पर जैसे पदार्थ तत्काल फूल जाते हैं, वैसे ही पुत्र स्नेह से देवानन्दा का शरीर फूल गया। स्नेह (पानी) के वढने पर जैसे कमल तत्काल ऊपर उठ जाता है, वैसे ही पुत्रस्नेह से देवानन्दा के स्तन ऊपर उठ गये, उनमे दूध भर आया ।
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१८४ ] जन सुबोध पाठमाला--भाग १
यह देखकर गौतम स्वामी ने इसका कारण पूछा। तब भगवान् ने देवानन्दा को अपनी माता बतलाते हुए पिछला सारा इतिहास प्रकट किया।
भगवान् का उपदेश सुन कर ऋषभदत्त और देवानन्दा दोनो दीक्षित हए और सयम पालन कर कर्म-क्षय करके सिद्ध
हुए।
जमाई जमाली की दीक्षा व फिर अश्रद्धा
जव देवानदा व ऋषभदत्त दीक्षित हुए, उसी समय की वात है। 'क्षत्रियकुण्ड' ग्राम में रहने वाले भगवान् की सासारिक पुत्री प्रियदर्शना के पति, सासारिक जमाई जमाली ने भी भगवान महावीर स्वामी के उपदेश को सुनकर अत्यन्त वैराग्य के साथ प्रव्रज्या (दीक्षा) ली थी। उनके साथ ५०० अन्य कुमार भी दीक्षित हुए थे।
पढ-लिख कर विद्वान हो जाने के पश्चात् भगवान् की श्राज्ञा न होते हुए भी वे अपने साथ दीक्षित हुए सन्तो को साथ मे लेकर स्वतन्त्र विचरण करने लगे। एक बार उन्हे बीमारी हुई। उस समय उनकी श्रद्धा पलट गई । वे भगवान के प्रतकूल रहने और कहने लगे।
जमाली ने जीवन मे दृढतापूर्वक श्रेष्ठ क्रिया की, परन्त विपरीत श्रद्धा और भगवान के प्रतिकल रहने-कहने से वे कि िवषी (पापी) देव बने । जब तक उन्होने भगवान की वाणी पर श्रद्धा रखते हए भगवान् के अनुकूल रह कर धर्म-क्रिया की, तब तक उन्हे अच्छा फल प्राप्त हुआ। यदि वे जीवन भर वसे ही रहते, तो उसी भव मे माक्ष प्राप्त कर लेते। पर वैसे न रहने के कारण अव वे चार गति के चार-पाँच भव करके मोक्ष प्राप्त करेंगे।
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[ १८५
फथा-विभाग-१ भगवान् महावीर
गोशालक को क्रोध
वहाँ से विचरते हुए भगवान् श्रावस्ती नगरी पधारे। छमस्थ अवस्था मे भगवान् के पास से निकला हुआ गोशालक भो तेजोलेश्या और अष्टाग महानिमित्त (भूत-भविष्य को प्रकट करने वाली विद्या) के बल पर अपने आपको सर्वज्ञ व तीर्थकर बताता हुया 'श्रावस्ती' नगरी मे आया।
गोचरी के लिए श्रावस्ती मे पधारे हुए गोतम स्वामी ने जब गोशालक का सर्वज्ञवाद तथा तीर्थकरवाद सुना, तो उन्होने गोचरी से लौटने पर भगवान् से गोशालक का पिछला सम्पूर्ण वृत्तान्त पूछा। भगवान् के द्वारा बताये जाने पर वह वृत्तान्त एक कान से दूसरे कान होता हुआ सारे नगर में पहुँच गया। इस समाचार को पाकर ऋद्ध हुए गोशालक ने गोचरी के लिए गाँव मे आये हुए 'पानन्द' नामक भगवान् के शिष्य से कहा "तेरे धर्माचार्य से जाकर कह दे कि यदि वह मेरी निन्दा करेगा, तो मैं उसे जलाकर भस्म कर दूंगा।"
आनन्दमुनि ने लौटकर भगवान् को गोशालक की कही बात सुनाई और पूछा--"क्या भगवन् । वह ऐसा कर सकता है ?" भगवान् ने कहा-'नही, वह तोथंकरो को जला नहीं सकता, कष्ट अवश्य दे सकता है।' उसके पश्चात् भगवान् ने सभी साधुनों को प्राज्ञा दी कि 'अभी गोशालक साधूनो के प्रति शत्रु-भाव अपनाए हुए है, अत उसके विषय मे कोई कुछ कहा-सुनी या चर्चा नही करे ।
गोशालक द्वारा मिथ्यावाद व मुनि-हत्या
इतने में गोशालक अपने संघ के साथ भगवान् के पास अाया और अपने को छुपाते हुए कहने लगा-"काश्यप !
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१८६ ] जन सुवोध पाठमाला--भाग १ (काश्यप गोत्र वाले भगवान् काश्यप गोत्र वाले थे।) तेरा गिप्य गोगालक तो मर चुका है और में दूसरा जीव हूँ, परन्तु गोगालक के शरीर को दृढ समझकर, मैं उममे प्रवेश करके रह
भगवान ने कहा-'गोगालक तू इन भूठी वातो से अपने प्रापको जीते जी दूसरा बताना चाहता है, परन्तु तू छुप नहीं सकता।' यह मुन वह अत्यन्त क्रोध में आकर असभ्य वचन कहने लगा। तब 'सर्वानुभूति' नामक मनि ने उससे कहा : 'गोगालक ! गुरु से एक भी आर्य-वचन (शिक्षा) पानेवाला गुरु को वन्दना-नमस्कार करता है, पर्युपासना करता है। जब कि तुझ पर भगवान् का अपार उपकार हे, तू भगवान् के विपरीत गत्रु बन गया है " इन वचनो से गोगालक ने शिक्षा न लेते हए तेजोलेल्या का प्रयोग करके उन मुनि को ही जला डाला। और फिर से भगवान् के प्रति असभ्य वचन वोलने लगा। नत्र दूसरे 'सुनक्षत्र' नामक मुनि ने उसे समझाया, परन्तु उन्हें भी उसने जला डाला और भगवान् के प्रति फिर से असभ्य वचन बोलने लगा।
भगवान् पर तेजोलेश्या का प्रयोग
तब भगवान् ने पुनः उसे गिक्षा के रूप मे कुछ, कहा। तब उसने इस बार पूरी शक्ति के माथ भगवान् पर ही तेजोलेश्या डाली। भगवान् तो जले नहीं, पर वह लेश्या भगवान् की प्रदक्षिणा करके लौटकर मोगालक के हा शरीर मे प्रवेश कर, गोगालक को जलाने लगी।
ऐसा होने पर भी गोगालक ने न सुधरते हुए भावान् से कहा--'तु मेरे तप, तेज द्वारा छह महीने के भीतर ही छद्मस्थ (केवलुजान रहित) अवस्था में मर जायगा।' भगवान् ने कहा
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कथा-विभाग-१. भगवान् महावीर
[ १८७
___ 'मैं अभी सोलह वर्ष और सुखपूर्वक जोऊँगा, परन्तु तू स्वय सात दिन मे दाह-ज्वर द्वारा मर जायगा।'
यह देखकर कुछ बुद्धिहीन कहने लगे कि 'श्रावस्ती नगरी __ मे दो तीर्थकर पायस मे कहते है- 'तूं पहले मरेगा, दूसरा कहता है-नही; तूं पहले मरेगा।' कौन जाने, उनमे कौन सच है और कौन झूठ है ?' परन्तु वुद्धिमान जानकार जानते थे कि 'भगवान् महावीर सच्चे हैं और गोशालक झूठा है।'
गोशालक को हार भगवान् पर पूरी शक्ति से तेजोलेश्या का प्रयोग करने के कारण जब गोशालक शक्तिहीन हो गया, तब भगवान ने अपने सन्तो को आज्ञा दी कि 'अब गोशालक से चर्चा करो ।' तब सन्तो ने उससे चर्चा आरम्भ की। अपने आपको सर्वज्ञ व तीर्थकर बताने वाला गोशालक उनका कोई उत्तर नहीं दे सका तथा तेजोलेश्या की शक्ति पूर्ण नष्ट हो जाने के कारण वह उन चर्चा करने वाले सन्तो को जला भी न सका। इससे गोशालक अत्यन्त ऋद्ध होकर अाँखे लाल करके दाँत किटकिटाने लगा और हाथ-पैर पटकने लगा। यह देख गोशालक के कई प्रमुख साधु और श्रावक गोशालक को झूठा और भगवान् को सच्चा समझ गोशालक को छोड भगवान् के सघ मे आ मिले।
अन्तिम घड़ियाँ सुधरो तब गोशालक वहाँ से चल दिया। सातवें दिन तक दाह-ज्वरयुक्त वह झूठी-सच्ची बाते करके अपने को सही बताता रहा, परन्तु अन्त मे मृत्यु के समय उसकी बुद्धि सुधरी। उसे सम्यक्त्व प्राप्त हुई। उसे बहुत पश्चात्ताप हुआ। "अरे रे, मैंने मेरे महोपकारी भगवान् 'की अाशातना की। मैं सांधुनो
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१८८ ] जैन सुवोध पाठमाला--भाग १ का हत्यारा बना! मैने झूठी-सच्ची वाते घडी 11 वारवार धिक्कार है मुके।" उस पश्चात्ताप और सम्यक्त्व दशा मे उसका अायुवध हुआ। उसकी मोक्ष की नीव लगी और वह मरकर १२ वे देवलोक मे पहुंचा।
भगवान् की कृपा से इस प्रकार गोशालक कष्टो से बचा। उसके जीवन की रक्षा हुई और एक दिन- 'वह मोक्ष मे पहुँचे'--ऐसी नीव भी लग गई।
इधर भगवान् को गोगालक की तेजोलेश्या जला तो नहीं सकी, पर उसकी हवा से भगवान् को रक्तस्राव (मल के साथ लोही का बहाव) की पीडा हो गई । वीतराग भगवान् उसे शान्त भाव से सहते रहे।
रेवती को सम्यक्त्व-प्राप्ति
वहाँ से विचरते हुए भगवान् छह मास मे 'मेंढिक' गाँव मे पधारे। वहाँ 'सिंह' नामक एक मुनि को भगवान् की इस पीडा से बहुत ही रोना आ गया। तब भगवान् ने उसे बुलाकर सान्त्वना दी और कहा-'मैं अभी १५॥ वर्ष और सुखपूर्वक जीऊंगा, अतः चिन्ता न करो। तुम यहाँ की 'रेवती' गाथापली के यहाँ जायो। उसने मेरे लिए जो 'कोलापाक' बनाया है, वह न लाते हुए, जो घोडे की वायुनाश के लिए 'बिजौरापाक' बनाया है, वह लाओ।'
सिंह मुनि उसके यहाँ पधारे। रेवती ने कोलापाक देना प्रारम्भ किया, तो मुनिराज ने उसे दोषी बताकर उसका निषेध करके बिजौरापाक माँगा। रेवती को वडा ही आश्चर्य हुआ। उसने पूछा-'आपको यह कैसे जानकारी हुई कि यह दोषी है ?' मुनि ने उत्तर दिया-'भगवान् से।' रेवती को यह जानकर
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कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर [ १८६ भगवान् पर और जैनधर्म पर बडी ही श्रद्धा हुई। 'धन्य है ऐसे भगवान्, जो घट-घट के अन्तर्यामी है । धन्य है ऐसा धर्म, जिसके देवाधिदेव भी निर्दोष आहार लेते है ।' उसने बड़ी ही श्रद्धापूर्वक उत्कृष्ट भाव से दान दिया। उससे उसे सम्यक्त्व प्राप्त हुई और तीर्थकर नामकर्म जैसी पुण्य प्रकृति का बध भी हुआ।
मुनिराज ने वह बिजौरापाक लाकर भगवान् के हाथो मे दिया। उसका उपभोग कर भगवान् नोरेग बने। तब चतुर्विध सघ मे छाई उदासी दूर होकर हर्प छा गया। उसके पश्चात् १५॥ वर्ष और गधहस्ती के समान विचर कर भगवान् ने बहत जीवो का उद्धार किया। अरिहत उपसर्ग की घटना भी अनन्त काल से होती है।
निर्वाण लगभग तीस वर्ष तक केवली अवस्था भोग कर ७२ वर्ष की आयु मे 'पावापुरी में' 'हस्तिपाल' राजा की लेखशाला मे सोलह प्रहर तक चतुर्विध सघ को अन्तिम देशना(वाणी) सुनाकर भगवान् कार्तिकी कृष्णा अमावस्या की रात्रि जब दो घडी शेष थी, तब बेले के तप सहित काल करके मोक्ष पधार गये। उस समय सम्पूर्ण लोक मे कुछ समय के लिए अन्धकार हो गया और देवता भी दुखमग्न बन गये। अन्त मे देवताओ ने भगवान् के शरीर की बहुत श्रेष्ठ द्रव्यो से दाह-क्रिया की।
भगवान का परिवार और परम्परा
भगवान् के सन्तो की ऊँची सख्या १४,००० चौदह सहस्र पर पहुँची। सतियो की ऊँची सख्या ३६,००० छत्तीस सहस्र तक पहुँची। भगवान् के शख, कामदेव आदि श्रावको की
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___१६० ] जैन मुवोध पाठमाला--भाग १
ऊँची सन्या एक लाख, उनसाठ सहस्र तक पहुँची और सुलसा, रेवती आदि श्राविकाओ की ऊंची संख्या तीन लाख, उन्नीस सहस्र तक पहुँचो। (६ कामदेव और ७ सुलसा की कथा आगे देखो। रेवती की कथा इसो कथा मे पहले या चुकी है।) भगवान् के ७०० शिष्य और १४०० शिप्याएं मोक्ष पहुंची। भगवान् के पश्चात् उनके पाट पर श्री सुवर्मा नामक पाँचवे गणधर विराजे और उनके पाट पर श्री जम् स्वामी विराजे । जम्बू स्वामो तक जीव धर्म-क्रिया करके मोक्ष जाते रहे। अव धर्म-क्रिया करके जीव एक भव अवतारी तक बन सकते हैं ।
॥ इति भगवान् महादीर की कथा समाप्त ॥
-श्री प्राचाराग स्थानाग, भगवती, जम्यूद्वीप, कल्प, आवश्यक श्रादि सूत्रो से, उनकी वृत्तियो से तथा अन्य ग्रन्थो से । भगवान के छमस्थकाल के तप
दिन -पारगा सत्या
सख्या सख्या १. पूरे छह महीने का तप १ .. १८० .... २ पांच दिन कम छह मासिक तप
१ .... १७५ .... ३. चौमासिक तप
१०८० ४ तीन मासिक तप
२ .... ५ ढाई मासिक तप ६ दो मासिक तप
३६० ७ डेढ मासिक तप ८. मासिक तप
१२ .... ३६० ६. अर्द्ध मासिक तप
७२ .... १०८० ... १०. अष्टम (तेला) तप
.... ३६
तप
तप
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....
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१८० १५०
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६०
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कथा-'वभाग- १. भगवान महावीर [ १६१ ११. षष्ठ (बेला) तप २२६ .... ४५८ .. २२६ १२ भद्र प्रतिमा तप १ ... २ . ० १३ महाभद्र प्रतिमा तप १४ सर्वतोभद्र प्रतिमा तप १ ... १० .. १
कुल योग ३५१ ... ४१६५ ... ३४६ तप दिन ४१६५,+पारणक दिन ३४६,+ दीक्षा दिन १ = कुल दिन ४५१५ हुए, जिसके बारह वर्ष छह मास और पन्द्रह दिन होते हैं।
शिक्षाएँ १ कर्म किसी को भी नही छोडते यह देख कर्म करने मे भयभीत रहा।
२ तीर्थकर भी गृह त्याग कर साधु-धर्म स्वीकारते है, तो बिना धर्म हमारा कल्याण कसे होगा ?
३. भगवान् ने जब इतना दीर्घ और उग्र तप किया, तो हमे भी गक्ति अनुसार तप करना चाहिए।
४. जब भगवान् ने उपसर्गों के सामने जाकर उपसर्ग सहे, तो कम-से-कम हमे आये हुए उपसर्ग तो सहने ही चाहिएँ।
५ जो भगवान के पैरो के पीछे चलता है, वह कभी निराश नहीं होता।
प्रश्न १ भगवान् की गृह-अवस्था की विशिष्ट घटनानों का वर्णन कीजिए।
२ भगवान् की छयस्थ-पर्याय की विशिष्ट घटनाओ का वर्णन फीजिए।
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___ १९२ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
३. भगवान् को केवलि पर्याय की विशिष्ट घटनाओं का वर्णन कीजिए।
४. भगवान् के चरित्र की विषय-तालिका लिखिये । ५. भगवान् के जीवन से आपको क्या शिक्षाएँ मिलती हैं ?
२. गणधर श्री इन्द्रभूतिजी (श्री गोतमस्वामीजी)
देशादि
मगध देश में 'गोवर' नामक एक गाँव था । वहाँ १. 'श्री इन्द्रभूति' नामक ब्राह्मण रहते थे। उनके पिता का नाम 'वसुभूति' तथा माता का नाम 'पृथ्वी' था। वे 'गोतम' गौत्रीय थे । उनके दो छोटे भाइयो का नाम क्रमशः २. 'श्री अग्निभूति' तथा ३. 'श्री दायुभूति' था।
तीनो भरे-पूरे शरीर वाले थे। शरीर का रूप-रंग देवतायो को भी लज्जित करने वाला था। शरीर शक्तिसम्पन्न था, मानो वज्र का हो वना हो। पद्म-गर्भ के समान उनके शरीर का गोर वर्ण देखते ही बनता था। उनके मुख पर वडी दिव्य प्रतिभा थी।
तीनो वैदिक धर्म के उपाध्याय थे। वेद-वेदाग के रहस्य को जानने वाले थे। तीनो के ५००-५०० छात्र थे। श्री इन्द्रभूति उन सब मे तेज थे। उस युग में उनके समान कोई विद्वान् न था। वे अपने युग के सभी विषयो के उच्चस्तरीय
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कथा विभाग-२ गणधर श्री-इन्द्रभूतिजी [ १६३ जानकार थे। चर्चा मे भी सदा ही उन्ही की विजय हुआ करती थी।
यज्ञ-प्रसंग
एक वार मध्य प्रपापा' नामक नगरी में 'सोमिल' ब्राह्मण ने यज्ञ करवाया ३ उसमे उसने श्री इन्द्रभूति आदि तीनो भाइयों को निमन्त्रित किया। तीनों अपने-अपने छात्रो के साथ यज्ञ में सम्मिलित हए। श्री व्यक्तभूति आदि आठ विद्वान् उपाध्यायो को वहाँ भी बुलाया गया था। ४. श्री व्यक्तभूति और ५ श्री सुवर्मा ५०० ५०० छात्रो के साथ आये। ६ श्री मण्डितपुत्र व ७ श्री मौर्यपुत्र ३५०-३५० छात्रो के साथ ग्राये। ८. श्री अकम्पित, ६. श्री अदलभ्राता, १०. श्रीमैतार्य व ११. श्री प्रभासजी ३००-३०० छात्रो के साथ आये।।
. यज्ञ बहुत ठाट-बाट के साथ प्रारभ हुआ। उसमें सहस्रो लोग आये। भत्र पढ़े जाने लगे। आहुतियाँ दी जाने लगी। यज्ञ के धुएं ने नाकाश को घेरना प्रारम्भ किया।
देव-दर्शन
. इधर केवलज्ञान उत्पन्न होने पर श्री भगवान् महावीर स्वामी उसी नगरी के बाहर के महासेन नामक वन मे पधारे। वहाँ उनका बड़ा भारी समवसरण लगा। (सहस्रो-लाखों लोग उनके उपदेश के सुनने के लिए इकट्ठे हुए।) अगणित देव और इन्द्र भी उनकी वाणी सुनने के लिए सोमिल के यज्ञमण्डप की ओर से होते हुए भगवान् के समवसरण में आने लगे।
उन देवो और इन्द्रो को अपने यज्ञ-मण्डप को ओर आते देख कर श्री इन्द्रभूति प्रादि ११ ही उपाध्याय ब्राह्मण बडे
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१९४ ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ प्रसन्न हुए। वे कहने लगे- 'देखो। हमारे यज्ञ का कितना प्रभाव है । हमारा यज्ञ कितनी उत्तम विधि से किया जा रहा है कि, आज उसे देखने के लिए और हवन लेने के लिये देव ही नहीं, साथ मे इन्द्र भी पा रहे है ।'
पर कुछ ही समय मे जब देवो और इन्द्रो को यज्ञमण्डप से आगे जाते देखा, तो वे सभी विचार मे पड गये-'अरे, यह क्या हो रहा है? ये देव और इन्द्र कहाँ जा रहे है ? यन तो यहाँ हो रहा है ? कही ये यज्ञ के इस स्थान को भूल तो नही गये अथवा विनानो को अन्य स्थान पर छोड़कर यहाँ पाने के लिए तो कही नही जा रहे है ?' ।
'प
श्री गौतम को अहकार को उत्पत्ति
लोगो में जक जानकारी हुई कि 'यहाँ भगवान् महावीर स्वामी पधारे हुए हैं। उनका उपदेश अनूठा है। उनकी वाणी वहत मनोहर हैं। वे अद्वितीय अतिशय वाले है। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त है। वे सर्वत है। ये देर और इन्द्र तुम्हारे लिए नहीं, किन्तु भगवान् महावीरस्वामो के दर्शन करने व वागो सुनने के लिए आये हैं।' तो श्री इन्द्रभूति को इन गव्दो को सुनकर तत्काल तीव्र ईर्ष्या उत्पन्न हुई। उनसे 'सर्वज्ञ' शव्द तो मानो मुना ही नहीं गया। उन्हे अहकार था कि 'इस विश्व मे मैं अद्वितीय हूँ। मेरी कोई समता नहीं कर सकता हैं। फिर कोई मुझ से बढकर केते हो सकता है ? इसलिए देव और इन्द्र मुझे छोड़कर किसी दूसरे के पास जायें- यह नही हो मकता। लगता है, यह कोई महान् इन्द्रजालिक है। इसने सव को भ्रम मे डाल दिया है। देवता और इन्द्र भी इसकी महामाया मे आ गये हैं। पर इससे क्या हुआ? मैं अभी
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कथा-विभाग-२. गणधर श्री इन्द्रभूतिजी [ १९५ जाता हूँ। जब तक सूर्य का उदय नहीं होता, तब तक ही अन्धकार रह सकता है, सूर्योदय के बाद नही। चर्चा करके उसे हराते ही उसको यह सारी माया सिमट जायगी और उसकी सर्वज्ञता का ढोग उड जायगा।'
प्रभु के चरणों में
श्री इन्द्रभूति अहकार और ईर्ष्या के साथ भगवान् के समवसरण की ओर चले। पर दूर से समवसरण की सोभा देखते ही वे चकित हो गये । -'ऐसी शोभा तो मैने कही नही देखो' समवसरण के निकट पहुँच कर भगवान् की मुख-मुद्रा देखते ही तो उनका अहकार भी गल गया, ईर्ष्या की भावना भी मिट गई। 'अहा ! यह कसा दिव्य रूप । इस सूर्य के सामने तो मैं जुगनू-सा भी नही हूँ। और इनकी वाणी मे कितना प्रोज। कितना प्रभाव ।। कौन ऐसा है, जो इनकी ऐसी मधुर वाणी सुनकर हरिण-सा बन कर इनके पास खिंचा चला न आवे "
__ भगवान् के पास पहुंचने पर भगवान् ने उन्हे "हे | इन्द्रभूति गौतम ।' कहकर बुलाया। गौतम ने यह सबोधन सुनकर सोचा-'लोग इन्हे सर्वज्ञ कहते थे~वह बात सच दिखती है। भेरा कभी इनसे परिचय नही, कभी इन्हे देखा भी नही, तो इन्हे मेरा नाम और गौत्र कसे ज्ञात हुआ ? अथवा मैं तो जगत्प्रसिद्ध हूँ। इस विश्व मे मुझे कौन नहीं जानता? इसलिए मात्र मेरा नाम और गोत्र बता देने से ही इन्हे सर्वज्ञ मान लेना भूल है। यदि ये मेरे मन मे रहा संशय बता दे और दूर कर दें, तो, मैं इन्हे सर्वज्ञ समझू ।'
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१९६ ] " जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
श्री इन्द्रभूति आस्तिक थे। उन्हे जीव आदि का ज्ञान था। पर वे वेद पर विश्वास करते थे। और वेद मे पाये हुए एक वाक्य का अर्थ उन्हे ऐसा समझ में आ गया था कि 'जीव नही है, इसलिए उन्हे संशय था कि 'जीव है या नही ?'
श्री इन्द्रभूति मन मे- ऐसा- विचार कर हो रहे थे कि, भगवान् ने इन्द्रभूति के विचार को जानकर वहा---'गौतम ! तुम्हे जीव के विपय मे सशय है, पर उसे निकाल डालो। जीव के अस्तिव मे सन्देह न करो।'
भगवान् के इन वचनो को सुनते ही गौतम को विश्वास हो गया कि 'सचमुच ये सर्वज्ञ हैं।' नही, तो मेरे मन मे छपा सशय ये कैसे जान पाते? मेरा नाम-गोत्र तो प्रसिद्ध है, पर मेरे मन का सशय कोई नही जानता। क्योकि- मैंने उसे दूसरों को तो क्या? अपने भाइयो को भी नहीं बताया। इसलिए उसे सर्वज्ञ से अन्य कोई नहीं जान सकता। वे प्रभु के चरणो मे नत मस्तक हो गये। फिर जव भगवान् महावीर स्वामी ने वेद के उस वाक्य का वास्तविक अर्थ बताया और जीव के अस्तित्व की सिद्धि करके वताई, तव उन्होने अपने मन मे भगवान् का शिष्य बनने का निर्णय करके अपने साथ पाए हए ५०० छात्रो से कहा- मैं तो भगवान का शिप्य वनता हूँ, वोलो, तुम्हारी क्या भावना है ?'' उन्होने कहा-'हम तो आपके 'गिष्य हैं, जिनको आप गुरु मानेंगे, उनको हम भी गुरु मानेंगे।' - । - प्रथम गणधर : प्रथम शिष्य
श्री इन्द्रभूतिजी ने भगवान से प्रार्थना की कि 'पाप मुझे और इनको दीक्षा दे।' भगवान ने उन्हे दीक्षा दी। उसके पश्चात् गौतम को '१. उत्पन्न, २. विगम और ३. ध्रुव'-ये तीन
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कथा-विभाग-२ गणधर श्री इन्द्रभूतिजी [ १६७ शब्द सुनाये, जिससे उन्हे सम्पूर्ण शास्त्रज्ञान (चौदह पूर्व का ज्ञान) हो गया। तीन शब्दो से सम्पूर्ण शास्त्र-ज्ञान हो जाने पर भगवान् ने उन्हे गणधर पद दिया और वे ५०० छात्र,, उनके शिप्य बना दिये।
इधर जव अग्निभूति आदि १० उपाध्यायो ने देखा कि 'बहुत समय हो गया है, पर, अब तक इन्द्रभूति लौटकर नही आये', तो सोचा कि 'क्या बात है? वे अब तक इस इन्द्रजालिक महावीर को हरा कर क्यो नही पाये ?' अग्निभूति ने कहा · 'अस्तु, मैं जाता हूँ, देखता हूँ और अभी हराकर आता हैं।' इस प्रकार विचार करके वे सभी क्रमश भगवान् के चरणों मे पहँचते रहे और मभी की शकाए मिटतो गई। २ श्री अग्निभूतिजी,को-कर्म के, अस्तिव मे, ३ श्री वायुभूतिजी को जीवशरीर की भिन्नता मे, ४ श्री व्यक्तभूतिजी को अजीव-जड के अस्तित्व मे, ५. श्री सुधर्मा स्वामी को योनि-परिवर्तन में, ६. श्री मण्डितपुत्रजी को कर्मों के बध-मोक्ष मे, ७ श्री मौर्यपुत्रजी को देवो के अस्तिव मे, ८. श्री अकम्पितजी को नारकी'जीवो के अस्तित्व मे, ६:श्री अचलभ्राताजी को कर्मों के दो रूप १ पुण्य, २ पाप के अस्तित्व मे, १०. श्री मैतार्यजी को परलोक के अस्तित्व मे तथा ११. श्री प्रभासजी को मोक्ष-प्राप्ति मे
सन्देह था। . . . . . . ! : - सभी अपनी-अपनी शिकाएँ मिटने पर अपने-अपने शिष्यो
के साथ भगवान के शिष्य बनते रहे। इस प्रकार भगवान् 'महावीरस्वामी के पास एक ही दिन मे ४४०० (५००+५००+ ५००+५००+५००+३५०+३५०+३०० + ३०० + ३००+ ३00-४४००) शिष्यो की दीक्षा हुई और ग्यारह गणधर हुए। सबसे बडे शिप्य और प्रथम गणधर श्री. इन्द्रभूतिजो हुए )
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१६८ ]
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
प्राये थे सभी भगवान् को हराने पर सभी भगवान् मे हारे । ऐसी हार सदा ही सव की हो । जिस हार से सत्य की प्राप्ति हो, वह हार 'हार' नही, सत्य की 'विजय' है ।
पुराना सम्बन्ध
भगवान् के चरणो मे पहुँचने से पहले श्री गौतमस्वामी को भगवान् के लिए 'सर्वज्ञ' शव्द भी सहन नही हुआ था । पर अब उन्हे भगवान् के प्रति परम ग्रनुराग उत्पन्न हो गया । वे सदा भगवान् की प्रशंसा करते । सदा उनके ही निकट परिचय से रहते, सेवा करते । प्राय साथ-साथ विहार करते श्री भगवान् की प्राज्ञा का पूर्ण पालन करते । श्री इन्द्रभूति गीतम को भगवान् के साथ ऐसा परम अनुराग जुडने का कारण यह था कि, वे कई भवो से भगवान् के साथ सारथि ग्राद नाना प्रकार के सम्बन्ध करते चले ग्रा रहे थे ।
राजगृही की वात है । परिपदा व्याख्यान सुनकर चली गई थी । तव भगवान् महावीरस्वामी ने स्वय गौतमादि को वुलाकर यह रहस्य प्रकट किया था । उन्होने कहा .
'गौतम । तुम बहुत पुराने समय से मुझ पर स्नेह रखते चले आ रहे हो । मेरी प्रशसा, मेरा परिचय, मेरी सेवा, मेरा अनुगमन प्रौर मेरी ग्राज्ञानुसार बर्ताव करते चले आ रहे हो । कई मनुप्य-भव और कई देव भव तुमने मेरे साथ किये हैं । पिछले देव भव मे भी तुम मेरे साथ थे । श्रव यहाँ इस भव तक ही नही, भविष्य मे भी सदा के लिए साथ रहोगे और काल करके हम दोनो ही मोक्ष मे एक समान भी वन जायेंगे ।' ( भगवती शतक १४, उदेशक ७) ।
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कया-विभाग-२ गणधर श्री इन्द्रभूतिजी
[ १९६
ज्ञान-रुचि
श्री गौतम स्वामीजी तीन शब्द सुनकर सम्पूर्ण शास्त्र ज्ञान पा गये थे। उन्हे दोक्षा लेते ही चौथा 'मन पर्याय' ज्ञान भी उत्पन्न हो चुका था। फिर भी वे सदा अगवान् की वाणी • सुनते और प्रश्न पूछते रहते। भव्य (मोक्ष पाने योग्य) जीवो के हित के लिए उन्होने भगवान् से सहस्रो-लाखो प्रश्न पूछे। उनके वे प्रश्न उस समय विश्व के लिए बहुत उपकारी सिद्ध हुए। आज भी उनके वे प्रश्नोत्तर हम पर बहुत ही उपकार कर रहे है। क्योकि आज जो शास्त्र है, उन मे से कई और कई के बहुत से भाग श्री इन्द्रभूतिजी के प्रश्न और श्री महावीरस्वामीजी के उत्तरो के सग्रह से ही बने है। इन प्रश्नोत्तरो का सग्रह पॉचत्रे गरावर श्री सुधर्मास्वामीजी ने किया था।
तपस्वी और निष्पह
श्री गौतमस्वामीजी ने जिस दिन दीक्षा ली, उस दिन से ही उन्होने यावज्जोवन वेले-वेले पारणे (दो-दो उपवास के अन्तर से भोजन) करने का अभिग्रह (निश्चय) किया और जीवन भर बेले-वेले करके निभाया। इस प्रकार श्री गौतम स्वामी मात्र बहुत ज्ञानी ही नहीं, घोर तपस्वी भी थे। ज्ञान का सार यही है कि-कपायो को जोते, इन्द्रियो का दमन करे और शक्ति अनुसार तप भी करे। तप के कारण उन्हे कई लब्धियाँ (गक्तियाँ) प्राप्त हो चुकी थी। जैसे 'कटोरी भर बहराई हुई खीर मे यदि उनका अगूठा लग जाता, तो उस खीर से. सैकडो सन्तो का पारणा हो जाता, फिर भी वह खीर अक्षय
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२०० ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १ - रहती थी। उनके अंगूठे मे ऐसा अमृत प्रकट हो गया था। फिर भी वे कभी अपनी ऐसी किसी लब्धि का प्रयोग नही करते थे। इस प्रकार गौतस्मवामी निष्पृह (इच्छारहित) भी थे।
निरभिमानी . ऐसे ज्ञानी, तपस्वी, भगवान् के सबसे बडे गिष्य और 'प्रथम गणधर होते हुए भी गौतमस्वामी को अभिमान का लवलेश भी छू नही गया था। वे अपना काम स्वय करते थे । जैसे बेले-वेले के पारणे मे भी वे स्वय गोचरी लाते थे। श्री गौतमस्वामीजो से कभी भूल हो जाती, तो भी वे उसे तत्काल स्वीकार कर लेते थे। वाणिज्यग्राम नगर की बात है . एक बार बेले के पारणे मे श्री गौतमस्वामी प्रानन्द श्रावक के घर पधारे थे। अानन्द श्रावक ने कहा :' 'भन्ते । मुझे वडा अवधिज्ञान हुया है।' तब गौतमस्वामी ने कहा 'श्रावक को अवधिनान हो सकता है, पर इतना वडा नहीं।'
__जब भगवान् के पास लौटने पर भगवान् से जाना कि 'पानद श्रावक का कहना ठीक था, पर उपयोग न पहुंचने के कारण मुझ से ही भूल हुई, तो वे विना पारणा किये ही तत्काल प्रानन्द श्रावक को खमाने (क्षमा-याचना करने) गये। .. अहा ! कितने निरहकारी और सरल बन गये थे, गौतमस्वामी।
सबसे मधुर
श्री गौतमस्वामी छोटो से भी वहत मधुर वर्ताव करते थे। पोलासपुर की बात है। एक वार वे गोचरी गये। वहां छ: वर्ष
के वच्चे अतिमुक्त (एवता) कुमार ने जब उन्हे देखा ीर पूछा-- , 'श्राप घर-घर क्यो घूमते है ?' तो स्वय इतने बड़े होते हुए भी
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कथा-विभाग-२ गणधर श्री इन्द्रभूतिजी [२०१ उस बालक तक को उत्तर दिया। उसका भी समाधान किया। उसने गौतमस्वामी से कहा-'पायो ! मैं तुम्हें भिक्षा दिलाऊँ'। इस प्रकार कह कर वह गौतमस्वामी की अंगुली पकड कर उन्हें अपने घर ले जाने लगा, तो वे उसका विरोध न करते हुए उसके पीछे-पीछे चले गये । गोचरी लेकर भगवान के पास लौटते समय उसने पूछा- 'आप कहाँ रहते हो ?' तो कहा-'मेरे गुरु भगवान महावीर वाहर बगीचे में पधारे हैं, मैं उनके चरणो में रहता हूँ।' वह चलने को तैयार हुआ, तो श्री गौतमस्वामी उसको चाल चलते हुए लौटे। अतिमुक्त को ऐसे गौतम कितने म.ठे लगे होगे ? (ये अतिमुक्त दीक्षित होकर मोक्ष गये।)
स्वधर्मो-वत्सल
श्री गौतमस्वामी को धर्म-प्रेम बहत था। वे स्वधर्मी बनने वाले का बहुत आदर करते थे। कृतगला नगरी की बात है। एक बार भगवान् महावीरस्वामी ने गौतमस्वामी से कहा: 'गौतम | आज तुम अपने मित्र को देखोगे।'
गौतम-'कौन है वह ?' महावीर-'स्कन्दक सन्यासी।' गौतम "उसे कब, कहॉ, कितने समय से देखेंगा?' महावीर-'बस, वह अभी आ ही रहा है । गौतम-'क्या वह दीक्षित बनेगा ?" महावीर-'हाँ।'
यह सुनकर श्री गौतमस्वामीजी को 'मित्रता के नाते नहीं, पर मेरा मित्र दीक्षित बनेगा'- इस नाते बहुत प्रसन्नता हुई। वे स्वय स्कन्दक के सामने गये और उनका स्वागत किया तथा उन्हें
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२०२ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १ अपने साथ मे भगवान् के चरणो में लाये। स्वधर्मी बनने वाले के प्रति वे ऐसा आदर करते थे !
मर्यादा-पालक श्री गौतमस्वामी मर्यादापालक भी थे। एक बार वे स्वय जिस श्रावस्ती नगरी मे पधारे, उसी नगरी के दूसरे बगीचे मे भगवान् पाश्र्वनाथ की परम्परा के प्राचार्य श्री केशीकुमार श्रमण भी पधारे हुए थे। उनसे श्री गौतमस्वामी कई अपेक्षाओं से बडे थे, परन्तु उन्होने सोचा कि 'मैं २४ वे तीर्थकर का शिष्य हैं और वे २३ व तीर्थंकर की परम्परा के है, इसलिए वे वडे कुल के है और मैं छोटे कुल का हूँ। इसलिए मुझे उनकी सेवा मे जाना चाहिए।' इस प्रकार विचार कर वे स्वय अपने शिष्यो सहित उनकी सेवा में गये। ऐसे थे गौतमस्वामी मर्यादा के पालक !
आयु प्रादि श्री इन्द्रभूतिजी के कितने गुण वाये जाये ? वे गुणों के भंडार थे। जैन साहित्य मे उनके इतिहास के विषय में वहुत-कुछ लिखा गया है।
श्री इन्द्रभूतिजी ५० वर्ष की आयु में दीक्षित हुए । ३० वर्ष तक छद्मस्थ (ज्ञानावरणीयादि चार कर्म सहित) रहे। भगवान् महावीरस्वामी का दीपावली की जिस रात्रि को निर्वाण हुया, उसी रात्रि को गौतमस्वामीजी को केवलज्ञान उत्पन्न हृया। वे बारह वर्ष तक केवलजानी रहे । कुल ६२ (५०+ ३०-१२-९२) वर्ष की आयु भोगकर श्री गौतमस्वामी मोक्ष पधारे और मुक्ति मे पहुँच कर श्री भगवान महावीरस्वामी के समान बन गये।
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कथा - विभाग- २. गरवर श्री इन्द्रभूतिजी
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श्री इन्द्रभूतिजी को भगवान् महावीरस्वामीजी 'गोतम ।' कहकर बुलाते थे, इसलिए ये गौतमस्वामीजी के रूप मे प्रसिद्ध हुए | बोलो, श्री गौतमस्वामी की जय !
॥ इति २. गणधर श्री इन्द्रभूतिजी की कथा समाप्त ॥
शिक्षाएँ
१ तीर्थंकर के चरणों मे सभी झुक जाते हैं । २. जीवादि सभी तत्व वास्तविक है । ३ सदा ही ज्ञान-पिपासा बनाये रक्खो । ४. ज्ञान के साथ तप भी करो ।
५. नत्र, मधुर, स्वधर्मी - वत्सल, मर्यादापालक आदि गुरणयुक्त बनो ।
प्रश्न
१. श्री इन्द्रभूति के देशादि का परिचय दो।
२ श्री इन्द्रभूतिजी भगवान् के शिष्य कब व कैसे बने ? ३. श्री गौतमस्वामीजी से मिलने वाली शिक्षाएँ सप्रसग
लिखिये |
४ श्री गौतमस्वामीजी और भगवान् महावीरस्वामीजी का परस्पर संबंध बताओ ।
५. श्री गौतमस्वामीजी के श्रायु-विभाग का वर्णन करो ।
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२०४ ] जन सुवाघ पाठमाला-भाग १
३. महासती श्री चन्दनबालाजी
देशादि
'चम्पानगरी' मे महाराजा 'दधिवाहन' राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम 'धारिणी' था। धारिणी की कुंख से एक पुत्री का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया 'वसुमति'।
वसुमति वडी हुई। वहवहुत सुलक्षणा थी। रूप भी उसका बहुत सुन्दर था। साथ ही वह शीलवती भी थी। गुणवती होने से वह सवको प्यारी लगती थी। राजा-रानी उसे अपना जीवन-धन समझते थे। 'वसुमति' का अर्थ ही होता है 'धनवाली'। प्रेम के कारण राजा-रानी वसुमति को वहुत सुख मे रखते थे। उसे उष्ण वायु भी नही लगने देते थे।
पिता का विरह
'कौशाम्बी' नगर मे 'शतानीक' राजा राज्य करता था। उसकी महारानी का नाम था 'मृगावती' । दधिवाहन, शतानीक राजा का सगा साढू था। दोनो की रानियाँ आपस मे वहिनें थी। फिर भी शतानीक ने एक समय छुपी तैयारी करके रात को (नौ सेना से) चम्पानगरी पर आक्रमण कर दिया। दधिवाहन को इस आक्रमण का पहले कुछ ज्ञान न हुआ। अचानक हुए आक्रमण का वे पूरा सामना नही कर सके । अन्त मे युद्ध में उनकी हार हुई। इसलिए दधिवाहन को वन में भाग जाना पड़ा। राजा शतानीक अपनी इस दुर्विजय से बहुत प्रसन्न हुआ। उसने अपने सैनिको और सुभटो को इस विजय के उपलक्ष्य मे
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कथा - विभाग - ३ महासती श्री चन्दनबालाजी
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घोषणा की कि - 'तुम इस चम्पानगरी मे जहाँ, जो पात्रो, वह ले सकते हो। वह ली गई वस्तु तुम्हारी समझी जायगी ।' सैनिक और सुभटो ने यह घोषणा सुनकर चम्पानगरो को तेजी से लूटना आरंभ कर दिया ।
माता की मृत्यु
महारानी धारिणी और वसुमति ने देखा कि 'महाराजा वन मे भाग गये हैं और नगरी तेजी से लूटी जा रही है, तो हमे भी अपनी रक्षा के लिए यहाँ से भागकर चला जाना चाहिए । अब यहाँ ठहरना शील के लिए ठीक नही होगा ।' यह विचार कर वे राजप्रासाद को छोडकर भाग ही रही थी कि, एक नाविक ( श्रथवा सारथी या ऊँटवाले) ने उन दोनो को पकड लिया और वह अपने साथ ले जाने लगा । मार्ग मे उसने अपने साथ चलने वाले लोगो से कहा कि 'इन दोनो मिली हुई स्त्रियो मे से इस बडी सुन्दरी को तो मैं अपनी पत्नी बनाऊँगा तथा इसकी इस कन्या को कही बाजार में बेच कर पैसा कमाऊँगा ।'
धारिणी को यह सुनकर हृदय मे बडा आघात लगा - 'जिस पुत्री को जीवन-धन की भाँति पाली, वह राजप्रासाद मे रहने वाली पुत्री मार्ग मे खडी करके बेची जायगी' - यह उसे सहन न हुआ । फिर शील- नाश की शका ने तो उसका हृदय पूरा कपा दिया । पुत्री के भावी दुख की चिन्ता और अपने शील-नाश की आशका से उसे हृदयाघात हो गया और उसके प्राण छूट गये ।
बाजार में बिक्री
वसुमति अब अपने आपको अनाथ अनुभव करने लगी । १ पिताजी छोड़कर चले गये । २. राजप्रासाद छूट गया ।
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२०६ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १
३. माता सिधा गई। अव उसके लिए कौन रहा? उसका __ मुंह कुम्हला गया। 'हा | अव मेरी कैसो दशा होगी? यह
दुष्ट मेरी माँ को तो मार चुका, अव मुझे न-जाने किम हाथ वेचेगा? मेरे कुल-शील की रक्षा कैसे होगी?' वह इन सङ्कट की घडियो मे धर्य के साथ नमस्कार-मन्त्र का स्मरण करने लगी।
नाविक वसुमति को लेकर कौशाम्बी नगरी मे पहेचा । वहाँ उसने वसुमति को चार मार्ग मे (चौराहे पर) खडी की। उसके मस्तक पर घास रखा और २० लाख सोने को मोहरो मे दासी के रूप मे वेचने लगा। उधर से 'धनावह' नामक सेठ निकले। उन्होने वमुमति को विकते देखा। वमुमति के १ रूप-रङ्ग को, २. वेश को, ३ लक्षण को और ४. मुखाकृति को देखकर धनावह सेठ ने अनुमान लगा लिया कि 'यह कोई राजपुत्री अथवा सेठ की लडकी दिखती है। कही कोई हीन कुल वाला इसे खरीद न ले और इसके कुल-गील पर आपदा न आवे, इसलिए मै ही इसे खरीद लूं। हो सकता है कि कुछ दिनो तक यह मेरे घर रहे और उसके पश्चात् इसके माता-पिता भी इसे पा मिले।'
धनावह सेठ के घर में
धनावह सेठ ने इन विचारो से उस नाविक को मुंहमांगा धन देकर वसुमति को ले ली। धनावह सेठ उसे लेकर अपने घर पहुँचे । उनकी पत्नी का नाम 'मूला' था। मूला से कहा'लो प्रिये । यह गुणवती कन्या। हमारी कोई सन्तान नही है, इससे अव हम अपनी सन्तान की भावना पूरी करे।' मूला ने भी वसुमति को पुत्री के रूप मे स्वीकार कर लिया।
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कथा विभाग-३. महासती श्री चन्दनवालाजी [ २०७
वसुमति को यह देखकर बहत प्रसन्नता हुई। वह १. पिता का विरह, २. घर का छूटना, ३ माता की मृत्यु और ४. अपना बिकना, सब-कुछ भूल-सी गई। उसे सन्तोष हुआ कि 'अब मै कुलोन वराने में हैं। यहाँ मेरे धर्म की समुचित रक्षा होगी तथा मैं धर्म-ध्यान कर सकूँगी।'
नया नाम--चन्दनबाला
धनावह सेठ ने वसुमति को पूछा-'बेटी । तुम्हारा नाम क्या है ?' पर उसने कोई उत्तर नही दिया। उसकी मधुर और ऊँची बोली, सबसे विनय-व्यवहार तथा सुशीलता ने सब लोगो को वश कर लिया था। इसलिए लोग उसे चन्दन के समान अनेक गुणवाली देखकर 'चन्दना' (चन्दनबाला) कहने लगे। उसका यही दूसरा नाम आगे चलकर अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ।
सेवा और कृतज्ञता उन्हाले के दिन थे। धनावह सेठ बाहर से चलकर थके हुए घर पर आये थे। उस समय उनके हाथ-पैर धुलाने के लिए वहाँ कोई सेवक उपस्थित न था। इसलिए चन्दनबाला ही पात्र में पानी लेकर सेठ के पास पहुँच गई। सेठ ने उसे बहुत निषेध किया कि 'बेटी । तुम रहने दो। मुझे कोई शीघ्रता नही है। अभी कुछ समय मे कोई सेवक आ जायगा। 'तुम मेरे पैर धोनो'--यह ठीक नहीं है।'
चन्दना ने कहा-'पिताजी। यदि पुत्री पिता की सेवा करे, तो उचित कैसे नही ? आपने तो मुझे मातो दूसरा जीवन ही दिया है। आपदा की घडियो में आपने अपार धन देकर मुझे खरोदा और मेरे कुल-शील की रक्षा की। ऐसे महारक्षक
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२०८ ] जैन सुवोध पाठमाला-भाग १ पिताजी की तो मुझे सेवा अवश्य ही करनी चाहिए।' इस प्रकार कहते हुए चन्दना ने धनावह सेठ के निषेध करते हुए भो उनके पर धोना प्रारम्भ कर दिया।
पैर धोते-धोते उसके केा खुल गये। चन्दना ने उन्हें सम्भालने का विचार किया, तब तक सेठ ने उन केगो को गीली मिट्टी वाली भूमि पर पडते हुए बचा लिए और अपने ही हाथो से उन्हे पकड कर वाँध दिये।
मूला का दुष्ट विचार गवाक्ष (झरोखे) मे वेठी मूला ने सेठ और चन्दना का परस्पर वार्तालाप तो सुना नही, केवल यह केश-बन्धन का दृश्य देखा। उसके हृदय में कुछ दिनो पहले से ही यह सन्देह हो चला था कि 'सेठ इस लडकी पर वहत स्नेह रखते है और यह लडकी रूपवती भी है तथा नवयुवती भी है। इसके सामने मेरा रूप और अवस्था, दोनो ही कुछ नही है। इसके कालेकाले मनोहर लम्बे केश प्रत्येक पुस्प को मोहित कर सकते है । इसलिए कही सेठ इसके साथ लग्न न कर ले । यदि ऐसा हो गया, तो मेरी दासी से भी अधिक दुर्दशा हो जायगी।'
आज जव उसने केवल यह दृश्य देखा, तो उसकी यह असत्य गड्डा पक्की हो गई । उसने सोचा-'अवश्य ही इस लड़की पर सेठ की भावना विगडी हई है। मुंह से तो 'वेटी-बेटी' कहते है, पर मन से भावना कुछ दूसरी ही है। नही, तो 'ये युवावस्था वाली इस लडकी के केगो को क्यो हाथ लगाते और क्यो उन्हे वाँधते ?' ऐसा कार्य करना इनके लिए सर्वथा अनुचित था।
और इस लडकी को भावना भी विगडी हुई ही दिखती है, नही, 'तो 'यह सेठ के द्वारा केगो पर हाथ लगाना और चोटी बाँधना कैसे सहन करती ?' अस्तु, अव तक तो यह रोग छोटा ही है।
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कथा-विभाग-३ महासती श्री चन्दनबालाजी जब तक यह रोग अधिक न बढे, उसके पहले ही इसकी औषधि कर लेना बुद्धिमानी होगी।'
कष्ट के साथ तीन दिन तलघर में
एक समय सेठ बाहर गये हुए थे। मूला ने वह उचित अवसर समझा। उसने १ नाई को बुलवाया और चन्दना के केश कटवा डाले। २. आभूषण उतार कर हाथो मे हथकडी तथा ३. पैरो मे बेडी डाल दी और ४. कपडे उतार कर उसे काछ पहना दी। इस प्रकार दुर्दशा करके तथा ५ उसे मारपीट कर उसने चन्दनबाला को ६ भोयरे मे डाल दी और ऊपर ताला लगा दिया। घर के सब दास-दासियो से कह दिया कि 'कोई भी सेठ को यह बात न बतावे। यदि कोई बतावेगा, तो मैं उसके प्राण ले लंगी।' इतना सब करके वह अपने मायके (पीहर) चल दी।
उड़द के बाकुले सेठजी दुपहर को भोजन के लिए घर लौटे। दासदासियो से पूछा 'सेठानी कहाँ हैं ? और चन्दना कहाँ है ?' उन्होंने 'सेठानी मायके गई हैं'-यह तो बता दिया, परन्तु मृत्यु के भय से किसी ने भी चन्दना की स्थिति नहीं बताई। सेठजी ने सोचा 'ऊपर होगी या कही खेलती होगी।' वे भोजन करके चले गये। सन्ध्या को फिर पूछा- 'चन्दना कहाँ है ?' पर किसी ने 'उत्तर नहीं दिया। सेठ ने सोचा-'अाज शीघ्र सो गई होगी।' इस प्रकार सेठ को प्रश्न करते और सोचते तीन दिन बीत गये। चौथे दिन सेठजी से रहा न गया। उन्होंने ' दास-दासियो से कहा- 'यदि कोई जानता हुआ भी
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__ २१० ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १
चन्दना की स्थिति नही वतावेगा, तो याद रखो, उसके प्रारण नहीं रहेगे।'
यह सुनकर एक बुड्ढी दासी ने सोचा 'दोनो ओर प्राणो का सङ्कट है। बताऊँ, तो सेठानी की ओर से तथा न बताऊँ, तो सेठ की ओर से। अस्तु, मै बुड्डी हो ही गई हूँ, यदि मेरी मृत्यु से भी चन्दना वच जाय, तो उस सुगील कन्या को बचा लेना चाहिए।' यह विचार कर उसने सेठ को सारी बात बता दी। वह स्थिति सुन कर सेठजी को बहुत ही दुख हुआ। उन्होने पत्थर से ताला तोडा और चन्दना को भोयरे से वाहर निकालो, तथा उससे दु ख को वाते पूछने लगे। चन्दना ने कहा-'पिताजी। मुझे कडी भूख लगी है। मैं तीन दिन से भूखी हूँ, पहले मुझे कुछ भोजन ला दो।' उस समय केवल उडद के वाकुले ही तयार थे। सेठजी ने वे सूपडे मे रखकर भोजन के लिए उसे दे दिये और उसकी हथकडी-वेडी तुःवाने के लिए लुहार को बुलाने स्वय ही लुहार के यहाँ चल दिये।
. आँखो में आँसू चन्दना भूप मे रहे हुए उन उडद के वाकुलो को लेकर देहली मे पहुँची। एक पैर देहली के भीतर तथा एक पैर देहली के बाहर रख कर बारसाख (द्वारगाखा) का सहारा लेकर खड़ी हो गई। उस दगा मे उसे अपनी सारी पिछली वात स्मरण मे आने लगी। 'कहाँ तो मेरो माता धारिणी
और कहाँ यह मूला? कहाँ मेरा वह राजघराना ? और कहाँ यहाँ भोयरे मे तीन दिन तक कारागृह (जेल) जेसी मेरी यह दुर्दगा? अरे, रे ! मैंने पूर्व भव मे न जाने कैसे कर्म कमाये ? जिनका मुझे ऐसा फल भुगतना पड़ रहा है। मैं सोचती थी
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कथा विभाग-३ महासती श्री चन्दनबालाजी [ २११ कि-'अब यहाँ धनावह सेठ के घर पर पहुँच कर मेरे दुख का अन्त आ गया है, परन्तु कर्म न जाने कितने कठोर है कि, वे अधिक-से-अधिक दुख दिखा रहे है।' यह सोचते-सोचते उसको ऑखो से आँसू बह चले।
भगवान् का पारणा इधर भगवान् महावीरस्वामी को दीक्षा लेकर ग्यारह वर्ष हो चुके थे। अब उन्हे केवलज्ञान उत्पन्न होने मे एक वर्ष से कुछ अधिक समय शेष था। भगवान् अपने पूर्व भवो के कठोर कर्मो को क्षय करने के लिए कठोर तपश्चर्याएँ कर रहे थे। इस बार उन्होने १३ बोल का घोर अभिग्रह ग्रहण किया। द्रव्य से--१ सूप के कोने मे, २. उडद के बाकुले हो, क्षेत्र से, ३ बहराने वाली (दान देने वालो) देहली से एक पैर बाहर तथा दूसरा पर भीतर करके बारसाख (द्वारशाखा) के सहारे खडी हो। काल से ४ तीसरे प्रहर मे जब सभी भिखारो भिक्षा लेकर लौट गये हो । भाव से-बाकुले देने वाली, ५ अविवाहिता, ६ राजकन्या हो, परन्तु फिर भी ७ बाजार मे बिकी हुई हो (दासी-अवस्था को प्राप्त हो), सदाचारिणी और निरपराध होते हुए भी उसके ८ हाथो मे हथकडी और ह पैरो मे बेडी हो, १०. मूंडे हुए शिर हो और ११. शरीर पर काछ पहने हुए हो, १२. तीन दिन की भूखी १३. रो रही हो, तो उसके हाथ से मैं भिक्षा लूंगा। अन्यथा छह महिने तक निराहार रहूँगा।'
इस अभिग्रह को लिए भगवान् को ५ पॉच मास और २५ पच्चीस दिन हो चुके थे। भगवान् प्रतिदिन घर-घर घूमते और अभिग्रह पूर्ण न होने से पुन लौट जाते थे। कौशाम्बी की महारानी मृगावती और महामन्त्री की स्त्री ने बहुत उपाय किया। उनके कहने से महाराजा और महामन्त्री ने भी
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२१२ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १ नैमित्तिको से पूछ कर अभिग्रह जानने का पूरा प्रयत्न किया, पर कार्य सफल नहीं हो सका।
भगवान् अभिग्रह के लिए वूमते हुए २६वे दिन चन्दना के यहाँ पधारे। चन्दना को यह जानकारी थी कि 'भगवान् को अभिग्रह चल रहा है और अभिग्रह बहुत ही कठोर दिखता है, क्योकि कई प्रयत्न होने पर भी वह फल नही पा रहा है। अब लगभग छह मास पूरे होने जा रहे है।' अत वह सोचती थी कि ऐसा कठोर अभिग्रह मेरे हाथ से क्या फलेगा? परन्तु फिर भी जव भगवान् द्वार पर पधारे, तो उसने सूप मे रहे उडद के बाकुलो को दिखाते हुए कहा-भगवन् । यद्यपि ये आपको दान मे देने योग्य नहीं हैं, फिर भी यदि ये आपको कल्पते हो, तो इन्हे ग्रहण करे।' भगवान ने अवधि-जान से देख लिया कि 'मेरे अभिग्रह के सभी बोल इसमे मिल रहे है, तो उन्होने अपने हाथो को खोभा बनाकर (नाव की प्राकृति के वना कर) चन्दना के सामने किये। चन्दना ने अत्यन्त हर्ष के साथ भगवान् को उन सभी उडद के बाकुलो को बहरा दिये। अन्य मान्यतानुसार चन्दनवाला की आँखो मे भगवान् पधारे तब तक ऑसू नही थे। इसलिए अभिग्रह मे एक वोल कम देख कर एक वार भगवान् लौट गये थे। जव भगवान् को फिरते देखकर चन्दनवाला की आँखो मे आँसू आ गये, तव दुवारा भगवान् चन्दना के घर लौटे और अभिग्रह पूर्ण होने से आहार ग्रहण किया।
दुःख का अन्त
भगवान् का अभिग्रह चन्दनवाला के हाथो पूरा हुआ देखकर देवता चन्दनवाला पर बहुत प्रसन्न हुए। उन्होने देव-दुन्दुभि के साथ चन्दना के घर १२।। करोड़ सौनेयो की वृष्टि
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कथा-विभाग-३ महासती श्री चन्दनबालाजी [ २१३ बरसाई और चन्दना के शिर पर बाल बनाये। उसका काछ हटाकर उसे सुन्दर वस्त्र पहनाए तथा उसकी हाथ-पंरो की हथकडी-बेडी तोडकर उसे मूल्यवान आभूषण पहनाये। देवदुन्दुभि बजी हुई सुनकर और चन्दना के हाथो अभिग्रह फैला जानकर महाराजा महारानी सहित सहस्रो पुरजन भो वहाँ प्रा पहुंचे। सभी ने चन्दना की बहुत प्रशसा को।
जब महारानी को जानकारी हुई कि 'यह मेरो बहन की सौत की लडकी वसुमति है, तथा राजा ने जाना कि 'मेरी साली की लडकी है, तो उन्हे वहुत दुख हुप्रा कि 'इसकी ऐसो दशा हुई ।' उन्होने इसके लिए उससे बार-बार क्षमा याचना की और बहुत आग्रह करके उसे राज गसाद मे ले गये। फिर शतानीक ने दधिवाहन की खोज कराई और उनका राज्य उन्हे पुनः लौटा दिया।
चन्दनवाला अब शतानीक राजा के यहाँ कन्यायो के अन्त पुर मे रहने लगी। उसे अब वैराग्य हो चुका था। वह इसी प्रतीक्षा मे ससार मे रह रही थी कि 'जब भगवान् को केवल-ज्ञान उत्पन्न होगा, तब मैं दीक्षा ले लूंगी।' कुद्ध
दीक्षा उस समय के एक वर्ष बाद जब भगवान् को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ, तब उसने राज्य-सुख को छोडकर कई स्त्रियो के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। वे भगवान् की सबसे बडी शिष्या हुई और उनकी शिष्याओ की ऊँची सख्या ३६,००० छत्तीस सहस्र तक पहुँची।
अनुशासन महासती श्री चन्दनबालाजी का अनुशासन बहुत अच्छा था। कौशाम्बी की ही बात है। उनके पास उनकी मौसी
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२१४ ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ मृगावतीजी भी दीक्षित हो गई थी। एक दिन वे कुछ महासतियो के साथ भगवान् महावीरस्वामीजी के दर्शन के लिए 'चन्द्रावतरण' नामक उद्यान मे गई हुई थी। वहाँ पर सूर्यास्त तक चन्द्र और सूर्य देवता उपस्थित थे। उनके प्रकाश से मृगावतीजी को समय की जानकारी न रह सकी। जब वे देवता सूर्यास्त होने पर वहाँ से चले गये, तो मृगावतोजी अन्य साध्वियो के साथ उपाश्रय (सन्त/सतियाँ जहाँ ठहरी हुई हो) पहुँची। वहाँ पहुँचतेपहुँचते अँधेरा हो चला था।
चन्दनवालाजी ने प्रतिक्रमण के पश्चात् मृगावतीजी को मौसी होते हुए भी विलम्ब से पाने के लिए योग्यतापूर्वक उपालम्भ देते हुए कहा-'पाप जैसी उत्तम कुल-शीलवाली महासतो को उपाश्रय के वाहर इतने समय तक ठहरना शोभा नहीं देता।'
विनय
__ मृगावतीजी ने अपने इस अपराध के लिए पैरो मे पडकर क्षमा याचना की । उसके बाद महासतीजी श्री चन्दनवालाजो को तो गय्या पर सोते हुए नीद आ गई, पर मृगावतीजी उनके पैरो मे ही पड़ी अपने अपराध पर वहुत पश्चात्ताप करती रही। अन्त मे इससे उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया।
इधर सोती हुई चन्दनवालाजी का हाथ सथारे से (बिछाये हुए विस्तर से) वाहर हो गया था। उधर एक सर्प या निकला। मृगावतीजी ने केवलज्ञान से वह देख लिया। सर्प हाथ को काट न खावे, इसलिए उन्हाने हाथ को सथारे मे कर दिया। इससे चन्दनवालाजी की नीद खुल गई। उन्होने पूछा-'मृगावतीजी . आप अव तक सोई नही? आपने मेरा हाथ हटाया क्यो ?' मृगावतीजी ने कहा-'हाथ को सर्प से बचाने के लिए।
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कथा-विभाग-३ महासती श्री चन्दनबालाजी [ २१५ चन्दनबालाजी-'क्या आपको कोई ज्ञान पैदा हुआ है ?' मृगावतीजी-'हाँ।'
चन्दनबालाजी - 'प्रतिपाति (नाश होने वाला) या अप्रतिपाति (अमर) ?'
मृगावतीजी-'अप्रतिपाति ।'
चन्दनबालाजी यह सुनते ही मृगावतीजी के चरणो मे गिर पड़ी। 'एक केवलज्ञान हो अमर ज्ञान है। वह जिन्हे उत्पन्न हुआ, उन केवलज्ञानी की मुझसे आशातना हुई। मैंने उन्हे उपालभ दिया। अहो कैसी भूल हुई ।' चन्दनबालाजी ने मृगावतीजी से बार-बार क्षमा-याचना की। इस प्रकार चन्दनबालाजी मे दूसरो पर अमुशासन के साथ स्वय के जीवन मे महान् विनय भी था।
मोक्ष
चन्दनबालाजी अन्त समय मे सभी कर्मों का क्षय करके मोक्ष पधारी।
॥ इति महासती श्री चन्दनदालाजो की कथा समाप्त ॥
शिक्षाएँ
१ पुण्य सदा का साथी नहीं। २. कर्त्तव्य से सच्चा नाम प्राप्त करो। ३ सेवा और कृतज्ञता सीखो। ४ भगवान् को भी कठिन तपश्चर्याएँ करनी पड़ी। ५. जीवन मे अनुशासन और विनय, दोनो सीखो।
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२१६ ]
, जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
प्रश्न
१ वसुपति का नाम चन्दनवाला क्यों पडा ? २. चन्दनवालाजी को क्या-क्या कण्ट पाये ? ३. भगवान् महावीरस्वामी को क्या अभिग्रह था ? ४ चन्दनबालाजी के दुःख का अन्त कंसे हुआ ? ५ श्री चन्दनवालाजी से क्या शिक्षाएँ मिलती हैं ?
४. श्री मंघ-कमार (मुनि)
माता-पिता आदि
मग धदेश और 'राजगृह' के महागजा 'श्रेणिक' के __ 'धारिणी' नामक एक रानी थी। शरीर, इन्द्रिय और मन के
अनुकूल शय्या पर आधी नीद लेती हुई उस महारानी को किसी रात्रि की पिछली घडियो में एक ऐसा स्वप्न पाया कि-'एक सुन्दर सुडौल 'हाथी' प्राकाग से उतर कर लीला के साथ मेरे मुख मे प्रवेश कर गया।' पञ्चात् वह जाग गई।
उसने यह स्वप्न अपने पति को जाकर सुनाया। गजा ने कहा- 'तुम्हे एक कुलीन और भविष्य मे राजा बनने वाला पुत्र प्राप्त होगा।' यह सुनकर रानी को हर्ष हुआ। उसने स्वप्न-जागरण किया।
प्रातकाल स्वप्न-पाठको (स्वप्न के फल बतलाने वालो) को पूछने पर उन्होने कहा-'रानी को एक कुलीन और भविष्य
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कथा-विभाग-४ श्री मेघ-कुमार (मुनि) [ २१७ में राजा या श्रेष्ठ मुनि बनने वाला पुत्र उत्पन्न होगा।' राजारानी को यह सुनकर बडी प्रसन्नता हुई। रानी यत्नपूर्वक अपने गर्भ का पालन करने लगी।
'मेघ' नाम का हेतु
गर्भ के तीसरे महीने मे, जब कि मेघ-वर्षा का काल नहीं था, तब रानी को ऐसा दोहला उत्पन्न हुआ कि 'वर्षाकाल का दृश्य उपस्थित हो और मैं महाराज श्रेणिक के साथ हाथी पर चढकर राजगृह के पर्वतो के पास वर्षाकाल का दृश्य देखू ।' यह दोहला पूर्ण होना असभव समझ कर रानी दिनो-दिन सूखने लगी।
महाराजा श्रेणिक को दासियो के द्वारा जब यह जानकारी हुई, तो वे बहुत चिन्तित हुए। अन्त मे श्रेणिक के ही पुत्र 'अभयकुमार' जो बडे बुद्धिशाली और राजा के प्रधानमन्त्री भी थे, उन्होने देव की सहायता से अपनी छोटी माता का यह असभव दोहला पूरा कराया।
गर्भकाल पूर्ण होने पर महारानी ने एक सर्वाग सुन्दर बालक को जन्म दिया। महाराजा श्रेणिक ने उसका जन्म बहुत उत्सव से मनाया और बारहवे दिन 'माता को अकाल मे मेघ आदि का दोहला आया था, इसलिए उसका नाम 'मेघकुमार' रखखा।
लग्न
अाठ वर्ष के हो जाने पर, महाराजा ने मेघकुमार को कलाचार्य के पास भेज कर, उन्हे ७२ कलाएँ सिखाईं। पश्चात्
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२१८ ] जन सुबोध पाठमाला--भाग १ . योग्य वय वाले हो जाने पर महाराजा ने पाठ सुन्दरी कन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण कराया। युवक मेघकुमार अव अपनी अनुरागिनी रानियो के साथ अपने लिए स्वतन्त्र बनाये हुए राजभवन मे अत्यन्त सुख के साथ रहने लगे।
वैराग्य
कुछ समय के बाद भगवान महावीर वहाँ राजगृही में पधारे। मेघकुमार भी वन्दन-श्रवण के लिए समवसरण में गये। भगवान् का उपदेश सुनकर उन्हे वैराग्य हो गया। उन्होने भगवान् से कहा 'भगवन् । मैं माता-पिता को पूछ, कर आपके पास दीक्षा लंगा।' भगवान् ने कहा-'तुम्हे जैसे सुख हो, वैसा करो (अर्थात् जिस प्रकार के धर्म को निभाने मे तुम आत्मग्लानि का अनुभव न करो, उसे स्वीकार करो), पर इस धार्मिक कार्य में प्रतिबन्ध (किसी प्रकार की रुकावट या विलम्ब) मत करो।
आज्ञा के लिए माता-पुत्र की चर्चा
मेघकुमार ने वहाँ से राजभवन मे पहुँच कर माता-पिता से दीक्षा की याज्ञा मागो। महारानी धारिगो अपने पुत्र के मुख से दीक्षा की पाना के अप्रिय वचन सुन कर मूछित हो गई। दासियो के द्वारा चेतना लाने पर उसने कहा-'१. पुत्र ! जव हम काल कर जाये, तब तुम दोक्षा ले लेना। हम तुम्हारा वियोग क्षगा भर भी सहन नही कर सकते।' मेघकुमार ने कहा--'माता-पिता ! यह पायुप्य बिजली आदि के समान चचल है। इसका कोई विश्वास नहीं कि 'यह कव तक रहेगा?' कौन जानता है, माता-पिता ! कि कौन पहले जायगा और कौन पीछे ?'
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कथा-विभाग-४ श्री मेघ-कुमार (मुनि) [ २१६ माता-पिता ने कहा--'२. बेटा ! ये आठ तेरो नवविवाहिता सुन्दरी स्त्रियाँ है, उन्हे पहले भोग ले, पीछे दीक्षा लेना।' मेघकुमार ने कहा-'माता-पिता । मनुष्य के काम-भोग अत्यन्त अशुचिमय है और कौन जानता है कि कुछ वर्षों तक इन स्त्रियो के काम-भोगो को भोग कर मैं इन्हे छोड़ सकूँगा या ये पहले ही मुझे छोड़कर चली जायेगी ?'
माता-पिता ने कहा '३ बेटा। हमारे पास सात पीढियो तक चले - इससे भी अधिक धन है और जनता मे हमारा आदर-सत्कार भी बहुत है। पहले तू इस धनसत्कार को भोग ले, फिर दीक्षा ले लेना।' मेघकुमार ने कहा-'माता-पिता। यह धन, अग्नि, वाढ, चोर आदि किसी से भी कभी भी नष्ट हो सकता है और राजा सदा राजा ही बने नही रहते। कौन जानता है कि, कुछ ही वर्षों तक धनसत्कार भोगकर मैं इन्हे छोड सकूँगा या ये पहले हो मुझे छोड़ कर चले जायेगे?'
जब माता-पिता सासारिक सुखो से मेघकुमार को लुभा नही सके, तो उन्होने उसे दीक्षा के कष्टो को बताया। उन्होने कहा-'मेघ । दोक्षा पालना कोई खेल नही है। वह १ लोहे के चने चबाने के समान कठिन है। २. बालू फाँकने के समान नीरस (स्वादरहित) है। ३. महासमुद्र को भुजानो से तैरने के समान अशक्य है। ४. खड्ग की धार पर चलने के समान दुखद् है। उसमें पाँच महाव्रत पालने होते है। रात्रि-भोजन त्यागना होता है। बावीस परीषह सहने होते हैं। उपसर्ग
आने पर समता रखनी होती है। केश-लोच करना पड़ता है। नगे पैर चलना होता है। अपने लिए बना भोजन काम मे नही आता। रोग उत्पन्न होने पर सदोष औषधि नही ली
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२२० ] जैन सुवोध पाठमाला-भाग १ जा सकती। तुम सुकुमार हो, सुख मे पले हो, अतः तुमसे ऐसी दीक्षा नही पल सकेगी। इसलिए वेटा । तुम दीक्षा न लो।' मेघकुमार ने कहा-'माता-पिता । ये सव वाते कायरो की हैं। जो वीर पुरुष मन मे धार लेते है, उनके लिए कुछ भी कठिन नहीं होता।'
दोक्षा जब माता-पिता अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी प्रकार को बातो से पुत्र को रोकने में सफल नही हुए, तो उन्होने मेषकुमार को अनिच्छापूर्वक प्राज्ञा दी और निष्क्रमण (दोक्षा) महोत्सव मनाया। एक लाख रुपये देकर नाई से मेघकूमार के दीक्षा के योग्य गिखा के बाल रख कर शेष बाल कटवाये। उन बालो को महारानी ने मेघकुमार की अन्तिम स्मृति के रूप में अपने पास सुरक्षित रक्खे। फिर दो लाख रुपये देकर मेघकूमार के लिए रजोहरण और पात्र मोल लिये। फिर सहस्र पुरुप मिलकर उठावे-ऐसी शिविका (पालकी) मे बिठाकर मेघकुमार को भव्य दीक्षा-यात्रा निकाली।
भगवान् के पास पहुँचकर वहुत रोते हुए माता-पिता ने मेघकुमार को भगवान् को शिष्य-रूप मे सौंप दिया। तब मेघकुमार ने अत्यन्त वैराग्य के साथ स्वय सभी बहुमूल्य सासारिक अलकार उतार दिये और साधू-वेष धारण किया। उस समय माता-पिता ने मेवकुमार को दोक्षा को भली-भांति दृढतापूर्वक पालने का उपदेश दिया और 'हम भी कभी दीक्षित बने-ऐसा शुभ मनोरथ (मन की अभिलाषा) प्रकट किया।
उसके पश्चात् मेघकुमार ने भगवान् से कहा-'भगवन् ! यह सारा ही ससार दुख-अग्नि से अत्यन्त जल रहा है। जिस प्रकार गृहस्थ अपने घर में आग लगने पर उसमे से
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कथा - विभाग – ४ श्री मेघ - कुमार (मुनि)
[ २२१
बहुमूल्य सार - वस्तुएँ निकाल लेता है, उसी प्रकार मैं इस जलते हुए ससार मे से अपनी आत्मा को बचा लेना चाहता हूँ । अत. आप कृपा करके स्वयं अपने हाथो से मुझे दीक्षा दे और स्वय अपने श्री मुख से सयम योग्य शिक्षा दे । भगवान् ने मेघकुमार की प्रार्थना स्वीकार कर के उसे स्वय दीक्षा- शिक्षा दी ।
।
रात्रि का दुःखद् प्रसंग रात्रि का समय हुआ । भगवान् के सभी साधुप्रो ने छोटे-बडे के क्रम से सथारे ( बिछौने) लगाये । मेघमुनि का सबसे अन्तिम सथारा (विछौना) द्वार पर श्राया । रात्रि को समय होने पर मेघमुनि सोये, परन्तु उन्हे नीद नही आया । क्योकि सन्तो का द्वार पर से आना-जाना होता रहता था | कभी कोई सन्त दूसरे स्थान पर रहे हुए किसी अन्य सन्त से कुछ सोखने के लिए बाहर निकलते, तो कोई सुनाने को निकलते, तो कोई पूछने को निकलते, तो कोई सन्त शरीर के कारण से भी बाहर निकलते । सन्त ध्यान रख कर आते-जाते थे, फिर भी अन्धकार और द्वार मे ही सथारा होने के कारण कुछ सन्तो के द्वारा मेघकुमार मुनि को ठोकर लग ही जाती थी । किन्ही सन्त के द्वारा सयारे को, तो किन्ही के द्वारा पैर को, तो किन्ही के द्वारा हाथ को, तो किन्ही सन्त के द्वारा मेघकुमार के मस्तक तक को ठोकर लग जाती थी। साथ ही सन्तो के गमनागमन से मेघकुमार के सथारे मे और शरीर पर धूल भी भरती रही । इसलिए मेघमुनि की आँखो की पलके क्षण भर भी सुखपूर्वक आपस मे मिल न सकी ।
'तब और ब'
मेघकुमार ससार मे राजप्रासाद मे सोते थे । वहाँ उनके लिए १. राजशय्या मक्खन-सी चिकनी और फूलो-सी कोमल हुआ
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२२४ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ आई ? क्या उस कष्ट से तुम्हारे विचार गृहस्थ बनने के हुए ? क्या मुझसे यही कहने के लिए तुम मेरे पास आये हो ?' मेघ मुनि ने कहा-'हाँ।'
मेघकुमार के पहले के दो भव
भगवान् ने तव उनका पूर्व भव सुनाना प्रारम्भ किया'मेघ तुम्हारे इस भव से तीसरे भव की बात है। तुम श्वेत रग के, छह दाँत वाले, सहस्र हथिनियो के स्वामी, सुमेरुप्रभ नामक हस्तिगज थे। एक वार उपरण ऋतु मे वृक्षो के पापस मे टकराने से वन मे आग लगी। तव तुम उससे बचने के लिए भागते हुए थोडे पानी और अधिक कीचड वाले एक सरोवर मे पहुंचे। वचने और पानी पीने की इच्छा से तुम उसमे घुसने लगे। पर कीचड मे ही फंस गये। न पानी के पास पहुँच सके, न पून तीर पर पहुँच सके। बहुत ही सङ्कट की स्थिति उत्पन्न हो गई।
उस प्रसङ्ग से पहले तुमने अपने यूथ के एक छोटे बालक हाथी को निरपराध मार कर अपने हाथी-समूह मे निकाल दिया था। वह उस समय बालक था और तुम युवा थे। इस समय वह युवा था और तुम वृद्ध थे। तुम्हारे प्रति उसके हृदय मे रहा हुआ पुराना वर तुम्हे देखकर जग गया। क्रुद्ध होकर उसने पुराना वैर निकालने के लिए तुम्हे तीखे दांतो से बार-बार प्रहार करके घायल कर दिया। उससे तुम्हारे शरीर मे अत्यन्त वेदना हई और पित्तज्वर उत्पन्न हो गया। उससे सात रात्रि मे मृत्यु प्राप्त कर तुम दूसरे भव मे पुन विध्याचल मे एक हथिनी के पेट से लाल रंग के चार दाँतवाले 'मेघप्रभ' नामक हाथी के रूप मे
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कथा-विभाग---४ श्री मेघ कुमार (मुनि) [ २२५ उत्पन्न हुए और युवक होने पर स्वय ७०० हथिनियो के स्वामी बन गये।
एक बार वहाँ भी उष्ण ऋतु मे वन मे आग लगी। उसे देखकर विचार करते-करते तुम्हे जाति-स्मरण(पूर्व भव का स्मरण) हो पाया। तब भविष्य मे आग से बचने के लिए, तुमने एक क्षेत्र चुना और हथिनियो की सहायता से वहाँ के सभी वृक्ष और घास का तिनका-तिनका उखाड डाला । वर्षा से जब-जब वहाँ पुन वनस्पति उगती, तो पुन तुम हथिनियो से मिलकर उन्हे उखाड़कर एक ओर डाल देते।
उसके बाद पुन एक बार वन मे आग लगी। तब तुम और तुम्हारी हथिनियाँ आदि उस आग से बचने के लिए पहले बनाए हुए तृण-काप्ठहित सुरक्षित स्थान पर पहुँचे। वन के दूसरे-- सिह से शृगाल तक-अनेक पशुप्रो ने भी वह स्थान पहले देख रक्वा था। वे तुम सभी से पहले आग से बचने के लिए वहाँ पहुँच गये थे। उन सवसे वह क्षेत्र बहुत भर चुका था। सभी छोटे-से बिल मे लूंस-ठूसकर भरे हुए चूहो की भॉति वहाँ सिकुड़ कर बैठे हुए थे। तुम भी किसी भाँति हथिनियो के साथ वहाँ एक ओर स्थल बनाकर आग से सुरक्षित खडे हो रहे ।
शश (खरगोश) को रक्षा
वहाँ खडे रहते-रहते तुम्हारे शरीर मे खुजाल चली। तव तुम अपना एक पैर उठाकर शरीर खुजालने लगे। इसी बीच एक शश (खरगोग) दूसरे-दूसरे बलवान पशुत्रो से धक्के खाता हुआ, तुम्हारे पैर के उठाने से खाली हुए स्थान पर आकर बैठ गया। शरीर खजलाकर तुम जब पैर रखने लगे, तो वहाँ नीचे तुमने वह शश (खरगोश) बैठा पाया। उस समय तुम्हे जीव
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२२२ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ करती थी। शय्या-भवन मे २ अगर-तगर की सुगन्ध चारो ओर मँडराती रहती । दासियो के द्वारा ३ पड़ो से मन्द-मन्द वायु भी प्राप्त होती रहती। किसी भी आवश्यकता के होने पर उसे पूरी करने के लिए ४ दास भी पैरो पर जगे खडे रहते थे।
किन्तु अाज सब मे परिवर्तन था। भगवान् जहाँ बिगजे थे, वही १ वगीचे के स्थान मे सोना पड़ा, वह भी धरती पर । आज २ सुगन्ध के स्थान पर धूल थी और ३ वायु के झोको के स्थान पर थी ठोकरे। सयोग की वात है, ४ किसी साधू ने उनसे इस सम्बन्ध मे सुख-दुख भी न पूछा। उन्हे वह दीक्षा की पहली रात वहुत ही वडो लगी। वे अपने-अापको मानो 'मैं नरक मे हूँ'-ऐसा अनुभव करने लगे।
गृहस्थ बनने का निर्णय
उन्होने विचार किया कि- 'जव में गृहस्थवास मे था, तव सभी साधु मेग आदर करते थे। मधुरता से प्रश्नोत्तर करते थे। शिष्ट व्यवहार करते थे। पर आज मै ठुकराया जा रहा हूँ । मेरी कूडे-कर्कट के ढेर-सो अवस्था वनाई जा रही है । जब प्रथम ही दिन की यह अवस्था है, तो आगे और न जाने क्या होगा? यह जीवन भर का प्रश्न है और मुझसे सदा ऐसा सहन न होगा। अच्छा है, प्रातःकाल होते ही मै भगवान् से पूछ कर पुनः गृहस्थ वन जाऊँ।' इस प्रकार विचार करके बडे कष्ट के साथ उन्होने उस वैरिणी रात्रि को पूरी की।
__प्रात काल होने पर 'मेघमुनि भगवान् महावीरस्वामी के चरणो मे पहुँचे। उन्होने भगवान् को वन्दन-नमस्कार किया। अव भी उनके हृदय मे रात्रि मे किया हया निर्णय दृढ था । , जब उन्होने माता-पिता से आज्ञा माँगी थी, तब उनके हृदय
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कथा-विभाग-४. श्री मेध कुमार (मुनि) [ २२३ में ज्ञान-वैराग्य की ज्योति तेजी से चमक रही थी। मातापिता ने सासारिक १. शरीर, २ स्त्री, ३ धन-सत्कार आदि का प्रलोभन बताया, तो ज्ञान-वैराग्य के कारण निप्पृह (इच्छारहित) होकर उन्हे ठुकरा दिया। इसी प्रकार जब माता-पिता ने दीक्षा के दु ख बताये, तो ज्ञान-वैराग्य के कारण धेर्य धारण कर उन्हे सह लेने का साहस प्रकट किया। परन्तु इस रात्रि मे ज्ञान-वैराग्य की ज्योति मन्द हो जाने से उन्हे राजप्रासाद के सुख स्मरण आ गये तथा रात्रि का नगण्य कष्ट भी नरक-सा लगा।
जघन्य पुरुष और उत्तम पुरुष जान-वैराग्य की ज्योति जब मन्द हो जाती है, तब ऐसा ही होता है। जघन्य पुरुष (हीन कक्षा के प्राणो) ऐसी अवस्था मे दूसरो को देखकर उसके ज्ञान-वैराग्य का उपहास करते हैं। उसकी को हुई प्रतिज्ञा पर हँसी करते है। ऐसा करने से ज्ञानवैराग्य की मन्द हुई ज्योति चमकती नहीं है, पर और अधिक मन्द पड जाता है। कुछ जघन्य पुरुष ऐसे भी होते है, जो ऐसे उदाहरणो को लेकर व्रतादि को लेने वाले का उत्साह मन्द कर देते है। 'चले हो दीक्षा लेने ! ज्ञान-वैराग्य की बाते छॉटना सरल है, परन्तु उसे निभाना हँसी-खेल नहीं है।' उनकी ऐसी बाते भी दीक्षार्थी को हानि पहुंचाती है।
भगवान् तो उत्तम पुरुष ही नही, सबसे अधिक उत्तम पुरुष थे। उन्होंने मेघकुमार को उपालम्भ भी दिया, पर मधुर उपालम्भ दिया, जिसमे मेघमुनि की मन्द हुई ज्ञान-वैराग्य की ज्योति फिर से तेज हुई और जीवन भर के लिए तेज हो गई।
उन्होने मेघमुनि को मधुर स्वर मे कहा-'मेघ । क्या साधुनो के आवागमन आदि के कारण तुम्हे आज नीद नही
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२२४ ] जन सुबोध पाठमाला--भाग १ पाई ? क्या उस कष्ट से तुम्हारे विचार गृहस्थ वनने के हए ? क्या मुझसे यही कहने के लिए तुम मेरे पास आये हो ?' मेघ मुनि ने कहा-'हाँ ।'
मेघकुमार के पहले के दो भव
भगवान् ने तव उनका पूर्व भव सुनाना प्रारम्भ किया__'मेघ । तुम्हारे इस भव से तीसरे भव की बात है। तुम श्वेत
रङ्ग के, छह दॉत वाले, महल हायनियो के स्वामी, सुमेरुप्रभ नामक हस्तिराज थे। एक बार उष्ण ऋतु मे वृक्षो के आपस मे टकरान से वन मे आग लगी। तब तुम उससे बचने के लिए भागते हए थोडे पानी और अधिक कीचड वाले एक सरोवर मे पहुंचे। वचने और पानी पीने की इच्छा से तुम उसमे घुसने लगे। पर कीचड मे ही फँस गये। न पानी के पास पहुँच सके, न पुन तीर पर पहुँच सके। बहुत ही सङ्कट की स्थिति उत्पन्न हो गई।
उस प्रमङ्ग से पहले तुमने अपने यूथ के एक छोटे बालक हाथी को निरपराध मार कर अपने हाथो-समूह से निकाल दिया था। वह उस समय वालक था और तुम युवा थे। इस समय वह युवा था और तुम वृद्ध थे। तुम्हारे प्रति उसके हृदय मे रहा हुआ पुगना वर तुम्हे देखकर जग गया। क्रुद्ध होकर उसने पुगना वर निकालने के लिए तुम्हे तीखे दांतो से बार-बार प्रहार करके घायल कर दिया। उससे तुम्हारे शरीर मे अत्यन्त वेदना हुई और पित्तज्वर उत्पन्न हो गया। उससे सात रात्रि मे मृत्यु प्राप्त कर तुम दूसरे भव मे पुन विध्याचल मे एक हथिनी के पेट से लाल रंग के चार दाँतवाले 'मेघप्रभ' नामक हाथी के रूप मे
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कथा-विभाग-४ श्री मेघ-कुमार (मुनि) [ २२५. उत्पन्न हुए और युवक होने पर स्वय ७०० हथिनियो के स्वामी बन गये।
एक बार वहाँ भी उष्ण ऋतु मे वन मे आग लगी। उसे देखकर विचार करते-करते तुम्हे जाति-स्मरण (पूर्व भव का स्मरण) हो पाया। तब भविप्य मे आग से बचने के लिए, तुमने एक क्षेत्र चुना और हथिनियो की सहायता से वहाँ के सभी वृक्ष और घास का तिनका-तिनका उखाड डाला । वर्षा से जव-जब वहाँ पुन वनस्पति उगती, तो पुन तुम हथिनियो से मिलकर उन्हे उखाड़कर एक ओर डाल देते।।
उसके बाद पुन एक बार वन मे आग लगी । तब तुम और तुम्हारी हथिनियाँ आदि उस आग से बचने के लिए पहले बनाए हुए तृण-काप्ठहित सुरक्षित स्थान पर पहुँचे। वन के दूसरेसिंह से शृगाल तक-अनेक पशुत्रो ने भी वह स्थान पहले देख रक्खा था। वे तुम सभी से पहले आग से बचने के लिए वहाँ पहुँच गये थे। उन सवसे वह क्षेत्र बहुत भर चुका था। सभी छोटे-से बिल मे लूंस-ठूसकर भरे हुए चूहो की भाँति वहाँ सिकुड कर बैठे हुए थे। तुम भी किसी भॉति हथिनियो के साथ वहाँ एक ओर स्थल बनाकर अाग से सुरक्षित खडे हो रहे ।
शश (खरगोश) को रक्षा वहाँ खडे रहते-रहते तुम्हारे शरीर मे खुजाल चली। तव तुम अपना एक पैर उठाकर गरीर खुजालने लगे। इसी बीच एक शश (खरगोग) दूसरे-दूसरे बलवान पशुओ से धक्के खाता हुआ, तुम्हारे पैर के उठाने से खाली हुए स्थान पर पाकर बैठ गया। शरीर खुजलाकर तुम जब पैर रखने लगे, तो वहॉ नीचे तुमने वह शग (खरगोश) बेठा पाया। उस समय तुम्हे जीव
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२२६ ] जैन सुवोध पाठमाला---भाग १ अनुकम्पा (प्राणी-दया) की भावना उत्पन्न हुई और उस से तुमने उसकी रक्षा के लिए पैर को वीच मे रोक लिया। हे मेघ ! उस समय उस जीव-अनुकम्पा की भावना और क्रिया से तुम्हारा ससार परित्त (कम) हुआ।
(जिससे ससार घटे, ऐसी उत्कृष्ट अनुकम्पा आदि की भावनाएँ वहुत श्रेष्ठ और विशुद्ध होती हैं। यदि उनमे से किसी उत्कृष्ट, श्रेष्ठ, विशुद्ध भावना मे श्रायु का बध हो, तो वह जीव वैमानिक बनता है (विमान से देवता बनता है)। परन्तु हायी को उस समय प्रायु का वन्ध नही हुआ। पीछे जव कुछ समय के लिए उसमे मिथ्यात्व उदय मे आ गया, तब हे मेघ ! तुम्हे मनुष्य-आयु का वध हुआ।
अढाई रात-दिन के पश्चात् जव उस नावानल के बुझ जाने पर, सभी पशु आग के भय से मुक्त हो गये, तव वे भूख-प्यास के मारे चारे-पानी आदि के लिए सभी दिशायो मे इधर-उधर बिखर गये। शग भी वहाँ से चला गया। तव तुमने भी वहाँ से चले जाने के लिए वह उठाया हया पैर नीचे रखना प्रारम्भ किया। पर अढाई दिन-रात तक एक सरोखा ऊँचा रहने से वह अकड गया था। अत वह पर तो टिका नहीं, पर तुम पर्वत की भांति 'घडाम' शब्द करते हुए सारे अगो से नीचे गिर पडे। वहाँ तुम्हे तीव्र वेदना हुई और पित्तज्वर हो गया। उससे तुम्हारी तीन दिन-रात मे मृत्यु हो गई।
वहाँ से मर कर तुम महाराजा श्रेणिक की धारिणी गनी के यहाँ हाथी-स्वप्न के साथ जन्मे और क्रमश बडे होने के बाद वैराग्य आने पर मेरे पास दोक्षित हए।'
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कथा-विभाग-४ श्री मेघ-कुमार (मुनि) [ २२७
भगवान की मेघकुमार को शिक्षा इस प्रकार मेधकुमार के दोनो पूर्व जन्मो की घटनाग्रो सुना कर भगवान् उन्हे शिक्षा देने लगे-'मेघ । पूर्व जन्म मे तुम पशु थे। उस समय तुम्हे सम्यक्त्व (धर्म-श्रद्धा) नई-नई ही पायी थी। उस पशु और नई श्रद्धा की अवस्था मे भी तुमने उस शश की रक्षा के लिए अढाई रात-दिन तक अपने एक पैर को उठाये का उठाये रक्खा और महान् कष्ट सहा ।
पर १ प्राज तुम पशु नही, ऊँचे राजघराने मे जन्मे हए मनुष्य हो। २ तुम्हारे मे नई धर्म-श्रद्धा नहीं है, परन्तु पुरानी श्रद्धा के साथ जान-वैराग्ययुक्त दीक्षा-अवस्था भी है। फिर भी तुम साधुनो के द्वारा सावधानी रखते हुए भी पहुँचे हुए कष्ट को सहन न कर सके ? ३. कहाँ तो उस दशा मे तुमने अपनी ओर से पशु के लिए महान् कष्ट सहा, कहाँ आज साधुओ की ओर से आये सामान्य कष्ट न सह सके ? फिर ४. पूर्व जन्म मे तुमने कहाँ तो अढाई रात दित तक कष्ट सहा
और कहाँ इस समय तुम एक रात्रि मे ही अन्य विचार कर बैठे ? सोचो, मेघ | आज तुम्हारे मे कितने उच्च विचार होने चाहिएँ ? कितनी अधिक कष्ट-सहिष्णुता होनी चाहिए ?'
__मेघकुमार मुनि को अपना पूर्व भव सुनकर जाति-स्मरणजान द्वारा अपना पूर्व भव स्मरण मे पा गया। भगवान् की अत्यन्त मधुर और कुशलतापूर्वक ज्ञान-वैराग्य की ज्योति को, पुन दुगुनी चमकाने वाली शिक्षा को सोचते-सोचते मेघकुमार मुनि की आँखो मे भगवान् के प्रति प्रेम के ऑसुनो को धारा बह चली। उन्हे अपने रात्रि को किये गये अयोग्य निर्णय पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। उन्होने भगवान् से कहा-'भन्ते !
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२२८ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ अब मैं अपनी दो अॉखे छोडकर शेप सारा शरीर सन्तो की सेवा मे समर्पित करता है।'
पुनः स्थिरता इस निर्णय को मेघकुमार ने जीवन भर निभाया। बीच मे थोडे समय के लिए हुई चचलता उनके जीवन मे एक कहानी मात्र वन गई। वे फिर कभी विचलित नही हुए। वरन् उन्होने सन्तो की सेवा के साथ ही साथ वडी-वडी उग्र (कठोर) तपश्चर्याएँ भी की। अन्तिम समय मे उन्होने भगवान् की अाज्ञा लेकर सथारा सलेखना भी किया और समाधिपूर्वक काल किया। वे काल करके अनुत्तर (सवसे बढकर) देवलोक मे उत्पन्न हुए। आगे वे मनुष्य बनकर, दीक्षा लेकर और कर्म क्षय करके सिद्ध बनेगे।
धन्य है, भगवान महावीर जैसे कुशल धर्माचार्य ! और धन्य हैं, मेघकुमार जैसे विनीत अन्तेवासी !
॥ इति ४. श्री मेघ-कुमार (मुनि) की कथा समाप्त ॥
-श्री ज्ञातासूत्र, प्रथम अध्ययन के आधार पर ।
शिक्षाएँ १ स्वय कष्ट सहकर भी अनुकम्पा-भाव से दूसरो की रक्षा करो।
२. अनुकपा (दया) धर्म का मूल है। ३ उत्कृष्ट वैरागी के भाव भी गिर जाते है। ४. गिरे हुए को और मत गिरायो, न उसका दृष्टात दो।
५. उसे मधुरता और कुशलतापूर्वक शिक्षा देकर पुन. ऊपर उठाओ।
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कथा-विभाग- श्री अर्जुन - माली (अनगार)
प्रश्न
९. मेघकुमार का परिचय दो।
२. मेघकुमार की दीक्षा से एक दिन पहले और एक दिन पीछे
की स्थिति बताओ ।
[ २२६
३. मेघमुनि के पूर्व जन्म बतलाओ ।
४ भगवान् ने उन्हें कैसी शिक्षा देकर स्थिर किया ?
५ मेघमुनि के जीवन से तुम्हे क्या शिक्षाएँ मिलती हैं ?
५. श्री अर्जुन माली (अनगार)
I
परिचय
।
'राजगृह' नामक नगर मे 'अर्जुन' नामक एक माली रहता था । माली जाति मे वह धनवान, दैदीप्यमान और बहुत प्रतिष्ठित था । उसकी 'बन्धुमती' नामक स्त्री थी। वह बहुत ही सुरूपवती और सुन्दरी थी ।
यक्ष - पूजक
राजगृह के बाहर अर्जुनमाली का फूलो का एक बडा बगीचा था । उस बगीचे से कुछ दूरी पर 'मुद्रपारि' नामक यक्ष का मन्दिर था । उस यक्ष के पारिण (हाथ) मे हजारपल ' (३ डे मन ) का एक भारी लौह मुद्गर था । इसलिए उसे लोग 'मुद्रपारि' कहते थे ।
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२३० ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
अर्जुनमाली की सातो पीढियाँ और दूसरे भी सहस्रो लोग उसे वर्षों से पूजते चले आ रहे थे। अर्जुनमाली भो वचपन से ही उसे पूजता चला पा रहा था। उसकी मुद्रपाणि यक्ष पर बहुत श्रद्धा-भक्ति थी। वह उसे भगवान् मानता था। नित्य प्रात काल वह सुन्दर-सुन्दर बडे-बडे बहुत सुगन्धित फूनो के ढेर से पहले उसको पूजा करता और फिर वाजार मे फूलो को वेचने जाता था।
उत्सव का दिन ___ एक बार जव अगले दिन राजगृह मे उत्सव होनेवाला था, तब अर्जुनमाली को लगा कि 'कल फूलो की बहुत विक्री होगी।' इसलिए वह दूसरे दिन सूर्य उदय से पहले अंधेरा रहते-रहते वगाचे मे पहुँचा। फूल अधिक-से-अधिक चूंटे जा सके-इसलिए वह अपना स्त्री बन्धुमनी को भी साथ ले गया। पहले वह यक्ष-पूजा के योग्य फूल चूंटकर यक्ष की पूजा करने चला। वन्धुमती भी उसके साथ हो गई।
ललितागोष्ठी का दुर्व्यवहार उस राजगृह नगरी मे ललिता नामक एक मित्रमण्डली रहती थी। उस मण्डली के सदस्य नाग जैसे दुष्ट स्वभाववाले बहुत हो क्रोधी, भयावने और विपैले थे। उनके माता-पिता और राजगृही की जनता भी उनसे बहुत भय खाती थी। कोई उन्हे कुछ कह-सुन भी नही पाता था। वे जो कुछ करते, सब उसे सुकृत (अच्छा किया, यो ही) मानते थे। कुछ लोग कहते है कि, उन्हे बचपन मे राजा से वरदान मिला था कि 'तुम जो कुछ करोगे, वह अच्छा माना जायगा।' इस वरदान के बाद वे बिगड गए थे।
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कथा-विभाग-५ श्री अर्जुन-माली (अनगार) [२३१
उस मण्डली के छ पुरुष उस दिन मुद्रपाणि यक्ष के मन्दिर के पास हास्य-विनोद आदि कर रहे थे। उन्होंने अर्जुन के साथ वन्धुमती को आते देखा। उसके सौंदर्य और रूप के लोभी बनकर उन्होंने परस्पर यह निर्णय किया कि 'हम अर्जुनमाली को बाँधकर इस सून्दरी को अवश्य भोगेंगे।' पापी लोग सदा ही जहाँ-कही कुछ ऐसा देखते हैं, पाप का निश्चय कर लेते है। वे छहो अपने निर्णय की पूर्ति के लिए मन्दिर के कपाटो के पीछे लुक-छिपकर चुपचाप खडे हो गए ।
अर्जुनमाली को इसकी कुछ भी जानकारी नही हुई। उसके हृदय मे एकमात्र मुद्रपाणि यक्ष की पूजा का ही विचार चल रहा था। जब वह मन्दिर मे प्रवेश करने लगा, तब वे छहो एक साथ बडी शीघ्रता से कपाटो से बाहर निकल पाए और सबने मिलकर अर्जुनमालो को पूरा पक्ड लिया। फिर उन्होने अर्जनमाली के हाथ-पैर तथा सिर को उल्टा घुमाकर बाँधा और उसे एक ओर डाल दिया। पीछे वे छहो बन्धुमती को भोगने लगे। अपने पति को कष्ट मे और अपने शील को भग होता देखकर बन्धुमती चिल्लाई नही, जिससे कि दूसरे लोग सहायता के लिए आकर अर्जुनमाली को और उसे छुड़ा सके। वह स्वय अपनो. शील-रक्षा के लिए भागी भी नही, परन्तु वह व्यभिचारिणी उन व्यभिचारियो के साय व्यभिचार मे लग गई।
अर्जुनमालो को क्रोध
अर्जुनमालो को यह देखकर बहुत क्रोध आया। 'अरे ! ये दुष्ट कितने पापी है कि, छहो ने मिलकर मुझे पकडकर, बाँधकर एक ओर डाल दिया और मेरी ही ऑखो के सामने इस
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२३२ ] जैन मुबोध पाठमाला--भाग १ प्रकार सब मिलकर नग्न व्यभिचार कर रहे है । उसे अपनी स्त्री पर भी बहुत क्रोध आया। 'परी । यह कैसी कुलटा है, मैं जो इसका पति हूँ, मेरे कष्ट का इसे कुछ भो दुख नही ? इसे अपने गील का भी विचार नहीं ? कितनो निर्लज्ज है कि 'मेरी ही श्रॉखो के सामने व्यभिचार-सेवन करते हुए इसकी प्रॉखो मे भी कुछ लज्जा नही ?'
उसे सबसे अधिक क्रोध उस मुद्रपाणि यक्ष पर आया । "अरे । जिस मूर्ति की मेरी सात पीढियाँ श्रद्धा-भक्तिपूर्वक पूजा करती चली आई है, मैं भी बचपन से जिसकी श्रद्वा-भक्तिपूर्वक पूजा करता चला आया हूँ, वह मदरपाणि अपने ही मन्दिर मे अपनी ही मूर्ति के सामने मेरी यह दुरवस्था देख रहा है ? और वह मेरी महायता, मेरो रक्षा नहीं करता ? लगता है, मचमच यह केवल लकड़ा है । (मूर्ति लकडे को बनी हुई थी।) परन्तु इसमे मुद्रपाणि भगवान् निवास नही कन्ते ।"
छह पुरुष और पत्नी को हत्या
मुद्रपाणि यक्ष ने अर्जन के ये विचार जाने। वह अर्जुनमाली के शरीर मे घुमा और उसके सारे वन्धन तडातड करके उसी समय तोड डाले। अर्जुन वन्धनमुक्त हया, उसकी आपत्ति-अवस्या दूर हुई। अब जिन पर अर्जुनमाली को क्रोध था, उन्हे नाश करना था। इसलिए मुद्रपाणि यक्ष ने मूर्ति के हाथ मे रहा ३३ मन का लौह मुदर उठाया और उन छहो मित्रो और वन्धुमति पर चलाकर उन्हे मार डाला।
गक्ति या वरदान का दुरुपयोग करने के कारण उन छहो । पुरुषो की मृत्यु हुई तथा शील भङ्ग करने के कारण बन्धुमति की हत्या हुई। इसलिए कभी भी अधर्म का सेवन नही करना
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कथा-विभाग-५ श्री अर्जुन-माली (अनगार) [ २३३ चाहिए तथा धर्म को नही छोडना चाहिए। जो अधर्म-सेवन करते हैं और धर्म को छोड़ देते हैं, उन्हे परभव मे तो कष्ट मिलता ही है, कभी-कभी इस भव मे भी मृत्यु तक का कष्ट उठाना पडता है।
नित्य का हत्यारा
अर्जुनमाली ने जिस काम के लिए यक्ष को बुलाया था, वह काम समाप्त हो चुका था, परन्तु फिर भी यक्ष अर्जुनमाली के शरीर मे पैठा हा राजगृह नगरी के चारों ओर घूमने लगा और नित्य छह पुरुषो और एक स्त्री की हत्या करने लगा।
श्रेणिक को इस बात की सूचना मिली। उन्होने सारे नगर मे घोषणा करवाई कि 'कोई भी विना सावधानी रक्खे वार-वार नगर के बाहर जाना-माना नही करें।' तथा नगर के बडे-बड़े द्वार भी बन्द करवा दिए। नगर में अर्जुनमाली की इस नित्य हत्या-क्रिया का बहुत भय छा गया। कोई भी नगरी के बाहर जाता नहीं था। यदि कोई बिना इच्छा भी किमी काम आदि के लिए बाहर चला जाता और अर्जुनमाली की आँखो मे या जाता, तो वह मारा जाता था।
इस प्रकार दिन बीतते-बीतते पाँच महीने और तेरह दिन हो गये। इतने दिनों मे १७८ पुरुषो (१६३४६=६७८) और १६३ स्त्रियो (१६३ ४१=१६३) की हत्याएं हुई। सब हत्याएँ ११४१ (९७८+१६३= ११४१) हुई।
कुदेव और सुदेव को श्रद्धा का अन्तर
इनमे पहले की सात हत्याएँ मुख्य रूप से अर्जुनमाली के कारण हुई तथा पिछली ११३४ हत्याएँ मुख्य रूप से मुद्गरपाणि
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२३४ ] जन सुबोध पाठमाला--भाग १ यक्ष के कारण हुई। मुद्रपाणि यक्ष लौकिक देव था। वह अज्ञानी, अवती, मिथ्यात्वी, रागी और द्वेपी था। निर्दोप अरिहतदेव को छोडकर ऐसे सदोष अन्य देव-देवियो की श्रद्धा करने का, भक्ति करने का व पूजा करने का कई बार ऐसा दुष्फल होता है। ये देव वस्तुत. हमारी कोई सहायता नहीं करते। यदि पूर्व मे हमारे ही कुछ शुभ पुण्य कर्म कमाये हुए हो, तो ये कुछ सहायता करते है। परन्तु दुख देने वाले मूल कारण जो कर्म है, उन्हे ये नष्ट नहीं कर सकते तथा नये अानेवाले कर्मो को ये रोक भी नही सकते । वरन् कई बार ये नये पापों मे डालकर अधिक पापी बना देते हैं, जैसा कि अर्जुनमाली के लिए हुआ। यदि अर्जुन ली मुद्रपाणि यक्ष की पूजा न करता, तो उसे हत्यारा वनना नहीं पड़ता।
एक अरिहत ही ऐसे देव है- 'जिनकी श्रद्धा, भक्ति व पूजा हमारे पुराने कर्मों का क्षय करती है और नये पाते हुए पाप-कर्मों को रोकती है।' जब पूराने कर्मो का धीरे-धीरे क्षय हो जाता है और नये पाप-कर्मो का वध नही होता, तो आत्मा निर्मल वन जाती है, और उस पर कभी कष्ट नही पाता। सामान्य मनुष्य तो क्या देव-शक्ति भी उस पर वार नही कर पाती। यहो आगे इस दृष्टान्त मे बतलाया जायेगा।
अर्जुनमाली के द्वारा हत्या चलते-चलते जब १६३ दिन हो गये, तव राजगृही मे अरिहंतदेव श्री भगवान् महावीर स्वामी का पधारना हुना। वे गुगशील नामक चैत्य (व्यन्तरायतन) मे विराजे। राजगृह मे ये समाचार पहुँचे, पर कोई अरिहत दर्शन का साहस नही कर सका। सभो अर्जुनमाली के मुद्दर से डरते थे। सभी को धर्म से अपने प्राण अधिक प्यारे थे।
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कथा-विभाग-५. श्री अर्जुन-म ली (अनगार) [ २३५
अरिहंत-भक्त 'सुदर्शन' उसी राजगुह मे सेठ 'सुदर्शन' नामक एक अरिहत के श्रावक रहते थे। उन्हें प्राण से धर्म अधिक प्यारा था। वे जानते थे कि-'प्रारण तो अनन्त वार लुट चुके हैं। प्राणो की रक्षा करते-करते कभी प्राणो की रक्षा नही हुई। अन्त मे मृत्यु आ ही जाती है। धर्म ही हमारी वस्तुत रक्षा कर सकता है और मोक्ष पहुँचाकर पूर्ण अमरता दे सकता है।' उन्होने माता-पिता से हाथ जोडकर कहा-"माता-पिता भगवान् महावीरस्वामी अपने नगर के बाहर ही पधार गये है। मैं उनके दर्शन करने जाना चाहता हैं।" माता-पिता बोले- "बेटा तुम्हारी भावना बहुत उत्तम है, हम भी भगवान् का दर्शन करना चाहते हैं, पर बाहर हत्यारा अर्जुनमाली घूमता है। तुम दर्शन के लिए बाहर जाते हुए कही उससे मारे न जानो, अतः तुम यही से भगवान् को वदन-नमस्कार कर लो।"
सुदर्शन ने कहा-'माता-पिता ! भगवान् तो अपनी नगरी मे पधारे और मैं घर ही बैठा रहूँ ? यही से वन्दन करूँ? यह कैसे हो सकता है ? आप मुझे आज्ञा दीजिए, जिससे मैं भगवान् की सेवा मे साक्षात् पहुँच कर दर्शनामृत को
आँखो से पीऊँ और चरणो मे मस्तक झुका कर विधि सहित वन्दना करूँ।'
माता पिता ने उन्हे बहुतेरा समझाया, पर सुदर्शन दृढ रहे, कायर न बने। तब विवेकी माता-पिता ने उन्हे इच्छा न होते हुए भी जाने की आज्ञा दे दी।
सुदर्शन की श्रद्धा-दृढ़ता माता-पिता की आज्ञा पाकर विनयी सुदर्शन भगवान् के सु-दर्शन करने चले। कुछ लोग उनकी प्रभु के प्रति श्रद्धा-भक्ति
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२३६ 1 जैन मुबोध पाठमाला-भाग १ और धर्म के प्रति दृढ-श्रद्धा की सराहना करने लगे-'धन्य है सुदर्शन | - कि, मृत्यु का भय छोड कर भगवान के दर्शन के लिए जा रहा है। हम कायरो को धिक्कार है कि, हम घर मे ही स्त्री की भाँति छूपे बैठे हैं।' कुछ लोग सुदर्शन की हँसी करने लगे-"देखो। इस धर्म के धोरी को। दर्शन करने जा रहा है। पर वाहर निकलते ही ज्यो ही शिर पर अर्जुनमाली का मुद्गर पडेगा, सारा धर्म-कर्म विसर जायगा।' पर सुदर्शन ने किसी भी ओर ध्यान नही दिया। उनके हृदय मे एकमात्र अरिहत-दर्शन की भावना थी।
सुदर्शन नगरी के बाहर निकले। गुरणशील बगीचे का मार्ग मुद्रपाणि यक्ष के मन्दिर के पास से होकर जाता था। वे निर्भय होकर बढे जा रहे थे। दूर से अर्जुनमाली के शरीर मे रहे हुए यक्ष ने उन्हे आते हुए देखा। देखते ही वह क्रुद्ध हुआ और मुद्गर उछालता-घुमाता हुआ उनकी ओर बढा।
सुदर्शन ने भी अर्जुन को आते देख लिया, पर उनका हृदय दृढ था। वे न इधर-उधर भागे, न पीछे मुडे। जहाँ थे, वही खडे रह गये। नीचे की भूमि का प्रतिलेखन किया ( 'जीव आदि हैं या नही " यह देखा)। सिद्धो की और अरिहतदेव श्री भगवान् महावीरस्वामी की स्तुति की (दो नमोत्थुण दिये)। फिर अट्ठारह पाप त्याग कर सागारी ('बच जाऊँ, तो खुला हूँ यह श्रागार सहित) यावज्जीवन (जीवन भर के लिए) अनशन कर लिया।
कुदेव को हार मुद्गरपाणि यक्ष ने सुदर्शन के पास पहुँच कर उन पर मुदर-प्रहार करना चाहा, पर उसे अरिहंत-भक्त सुदर्शन श्रावक
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कथा-विभाग---५ श्री अर्जुन-माली (अनगार) [ २३७ का तेज सहन नही हुआ। तब उसने उनके चारो ओर मुद्र घुमाते हुए तीन चक्कर लगाये, फिर भी वह सुदर्शन पर आक्रमण करने का साहस नही कर सका। तब उसने सुदर्शन को टकटकी लगाकर बहुत देर तक देखा, पर सुदर्शन की ऑखो मे कोई अन्तर न आया। तब अन्त मे वह मुद्गरपाणि यक्ष निराश होकर अर्जुनमाली के शरीर को छोड़ कर चला गया। साथ मे अपना मुद्गर भी लेता गया।
यह हुआ अरिहतदेव पर श्रद्धा का फल । जन्म-जन्म और भव-भव तक अरिहतदेव पर क्षद्धा रखने के फल मे आज सुदर्शन की शक्ति कितनी बढ़ गई ?. जिसे अर्जुनमाली भगवान् मानता था, आपत्ति से छुडाने वाला मानता था, जिसने सैकडो की हत्याएँ की, वह यक्ष भी अरिहत-भक्त सूदर्शन श्रावक के सामने हाथ चलाना तो दूर रहा, ठहर भी न सका। उसे अपना मुद्गर लेकर लौट जाना पड़ा।
सुदर्शन का सुयोग अर्जनमाली का शरीर अब तक यक्ष की शक्ति से चलता था। उसकी निजी शक्ति निष्क्रिय थी। अत यक्ष के चले जाते ही अर्जुनमाली धडाम करता हुआ सारे अगो से नीचे गिर पडा।
यह देखकर सुदर्शन ने सोचा कि अब 'उपसर्ग (सकट) दूर हो गया है। इसलिए उन्होने अनशन पार लिया। कुछ समय मे अर्जुनमाली स्वस्थ हुआ। उसने खडे होकर सुदर्शन से पूछा- 'तुम कौन हो? कहाँ जा रहे हो ?' सुदर्शन बोले'मैं अरिहतदेव · भगवान महावीर का श्रावक हूँ और उन्ही के दर्शन के लिए तथा वारणी सुनने के लिए जा रहा हूँ।' अर्जन
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२३८ ] जन मुत्रोव पाठमाला-भाग १ ने कहा- 'मैं भी तुम्हारे साथ भगवान के दर्शन के लिए चलना चाहता हूँ।' सुदर्शन ने कहा- 'वहुत सुन्दर विचार है तुम्हारा चलो, साथ चलो, बहुत प्रसन्नता की बात है। भगवान् के चरणो मे पहुँच कर तुम्हारा उद्धार हो जायगा। भगवान् सभी को तारने वाले हैं। वे वीतराग है। उन्हे किसी के प्रति राग-द्वेप नहीं होता।'
सुदर्शन ने अर्जनमाली के प्रति घृरणा नहीं की। घृणा की भी क्यो जाय ? कौन ऐसा है, जो किसी भी भव मे हत्यारा न रह चुका हो ? फिर अर्जुनमाली तो स्वय इस भव का हत्यारा भी न था। जो ७ हत्याएँ अर्जुनमाली करना चाहता था, वे तो अर्जुनमाली के अपराधी ही थे। अपराधी की हत्या करने वाला हत्यारा नहीं माना जाता। शेप हत्याएं तो मुख्य करके यक्ष के कारण ही हुई थीं। साथ ही अर्जनमाली के सुधार की सम्भावना भी थी। जिसके मुधार की सम्भावना हो, उसके प्रति घृणा करने से वह सुधरता हया भी रुक जाता है। 'मैं पाप करता हूँ, इसलिए ये मुझ पर वृणा करते है'-इस प्रकार पापी के हृदय मे पाप के प्रति घृणा उत्पन्न करने के लिए कदाचित् पापी पर घृणा की जाय, तो वह कार्य किसी अपेक्षा उचित भी. है, परन्तु जो सुधर ही रहा हो, उस पर घृणा करना तो व्यर्थ ही है। यह बात सुदर्शन भली भॉति जानते थे। इसलिए उन्होने अर्जुनमाली से घृणा नहीं की। वे प्रेम से अर्जुनमाली को साथ मे लिए भगवान महावीरस्वामी के चरणो मे पहुँचे।
दीक्षा : जीवन-परिवर्तन
भगवान् महावीरस्वामी केवल-जानी थे, घट-घट के । अन्तर्यामी थे। उन्हे अर्जुनमाली के उद्धार के योग्य ही हिंसा
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कथा-विभाग-५ श्री अर्जुन-माली (अनगार) [ २३६ अहिसा, बन्ध-निर्जरा आदि पर मार्मिक उपदेश सुनाया। सुनकर अर्जुनमाली को अपने पापो पर बहुत पश्चात्ताप हुआ। उसे वैराग्य आ गया। उसने भगवान् से प्रार्थना की कि 'भगवन् | आप मुझे दीक्षा दे। मुके पापो से उबारे।' भगवान् ने उसे दीक्षा दे दी।
प्रादर्श क्षमा
अब अर्जुनमाली अर्जुन अनगार (मुनि) बन गये। उन्हे अपने बँधे हुए कर्मों को क्षय कर डालने की बहुत लगन लगी। उन्होने इसके लिए दीक्षा के ही दिन भगवान से अभिग्रह लिया कि-'भगवन् । मै आजीवन बेले-बेले पारणा करूँगा।' भगवान् की आज्ञा पाकर वे अभिग्रह के अनुसार बेले-बेले पारणा करने भी लग गये।
अर्जुनमुनि गोचरी लेने स्वय नगर मे जाते। कुछ अनसमझ लोग मुनि बन जाने के बाद भी उनसे घृणा करते । कोई कहता 'अरे | इस हत्यारे ने मेरे बाप को मार डाला ।' कोई चिल्लाती-'अरे । इस निदय ने मेरी माँ मार डाली ।' इस प्रकार पृथक-पृथक् लोग भाई, बहन, बेटी, वह आदि के विषय मे कहते। कोई उन्हे अपशब्द कहता (गाली भी देता)। कोई उन पर थूक भी देता। कोई उन पर ककर-पत्थर आदि भी फेक देता । कोई मार्ग मे चलते उन्हे मार भी देता था। पर अर्जुनमुनि आँख उठाकर भी उन्हे नहीं देखते थे, मन मे भी उनके प्रति द्वेष नही लाते थे। जो-कुछ होता, सब सह लेते थे ।
कही उन्हे कुछ रोटो का भाग मिल जाता, तो पानी नही मिलता। कही किसी घर कुछ पानी मिल जाता, तो आहार नहीं मिलता। पर वे उदास नही होते थे। वे सोचते-'मुझ
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२४० ]
जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ पर- पहले यक्ष चढा था, इसलिए घोर हत्यारा बनकर मैंने बहुत पाप किये। इन पर अज्ञान का भूत चढा है, इसलिए ये ऐसा करते है। जव अपना आपा नही रहता, तब ऐसा ही हुआ करता है। इसलिये मुझे खेद नही होना चाहिए। मुझे तो मेरा अपना पाप देखना चाहिए। मैं १.४१ स्त्री-पुरुपो की हत्या का निमित्त बना। यदि मैं मिथ्यादेव की श्रद्धा-भक्ति-पूजा न करता, तो इतनी हत्याएँ क्यो होती? इत्यादि विचारो के साथ मुझे समता रखनी चाहिये। इसमे मेरे कर्मों की निर्जरा
होगी।'
मोक्ष इस प्रकार निर्जरा की भावना करते हए और उन उपसर्गो को सहन करते हुए अर्जुनमुनिजी को साढे पाँच महीने हो गये। उन्होने जितने दिनो मे पाप कमाये, प्राय उतने ही दिनो में उनकी निर्जरा भी कर डाली। जब उनका शरीर थक गया, तो उन्होने भगवान् की अनुमति लेकर सथारा कर लिया। सथारा १५ दिन चला। अन्तिम श्वासोच्छवासो मे उन्हे केवलज्ञान उत्पन्न हया, बाठ। कर्म क्षय हुए। अन्तिम समय मे काल करके अर्जुनमुनि मोक्ष पधार गये।
कहाँ सदोषी सरागी मुद्गरपाणि यक्ष | जिसने स्वयं व्यर्थ ११३४ हत्याएं की और निष्पाप अर्जुन को भी पापो बनाया
और कहाँ निर्दोप वीतराग अरिहत देव | जिनके उपदेश ने पापी अर्जुन को नाप से उबारा।
धन्य है, ऐसे अरिहतदेव भगवान् महावीर । धन्य है, ऐसे अरिहत-उपदेशानुसार चलने वाले अर्जुनमुनि ! और धन्य है, ऐसे अरिहत पर श्रद्धा रखने वाले सुदर्शन श्रावक ||| ॥ इति ५. श्री अर्जुन-माली (अनगार) को कथा समाप्त ॥
-श्री प्रतकृत सूत्र, वर्ग ६, अध्ययन ३ के प्राधार से ।
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कथा विभाग-६ श्री काभदेव श्रावक [२४१
शिक्षाएँ १. सच्चे भगवान् (देव) अरिहत ही हैं। २. अरिहंत के भक्त को किसी से भय नहीं । ३. घृरणा मत करो, उद्धार में सहायक बनो। ४, पश्चात्ताप और तप से पापी भी मोक्ष पाते हैं । ५. अधर्मों अौर धर्म-त्यागी इस लोक में भी दुःख पाता है।
प्रश्न
१ कुदेव-श्रद्धा और सुदेव-श्रद्धा के फल में अन्तर बतायो । २. कुदेव-श्रद्धा से अर्जुनमाली का पतन कैसे हुमा ?
३. सुदेव-श्रद्धा से सुदर्शन को रक्षा और अर्जुनमाली कर उज्यान कैसे हुमा
४: सिद्ध कसे कि 'अर्जुनमाली आदर्श क्षमावातू थे।' ५. पापी से घरमा करें या नहीं ?
६.श्री कामदेव श्रावक
परिचय
चम्पानगरी मे 'कामदेव' नामक बहुत प्रतिष्ठित सर्वमान्य सेठ रहते थे। उनकी 'भद्रा' नामक सुरूपा भार्या (पत्नी) थी। उनके कई छोटे-बड़े संयोग्य पुत्र भी थे। पत्नी और पुत्र सभी
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२४२ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ कामदेव के अनुकूल थे। कामदेव के पास १८ करोड म्वर्णमद्रायो का धन था। उनमे से छह करोड कोष मे, ६ करोड वृद्धि (व्याज, व्यापार) मे तथा छह करोड स्वर्ण-मुद्राएँ घरविस्तार मे लगी थी। कामदेव के छह गोकुल थे। प्रति गोकुल मे १०,००० दस सहस्र पशु थे।
इस प्रकार कामदेव गृहस्थ परिवार, सपत्ति, सुख, प्रतिष्ठा, मान्यता आदि सबसे सपन्न थे।
धर्म-ग्रहरण एक वार भगवान् महावीरस्वामी उस नगरी के बाहर पूर्णभद्र नामक चैत्य (व्यन्तरायतन) मे पधारे । ये समाचार पाकर कामदेव गृहस्थ भगवान् के दर्शन करने तथा बाणी सुनने गये। भगवान् की वाणी सुनकर उनकी जैन धर्म पर श्रद्धा हुई। उन्हे लगा कि 'परिवार, धन, प्रतिटा आदि की यह मेरी सारी सम्पन्नता वास्तविक सुखदायी नही है, न यह परभव मे साथ ही चलेगी। विश्व मे प्राणी के लिए केवल एक धर्म ही सच्चा सुखदायो है और भव-भव का साथी है । इसलिए मुझे संसार त्याग करके दीक्षा ग्रहण करना उचित है। पर अभी मुझ मे वैसी तीव्र भावना नहीं है, अत. दोक्षा नही तो मुझे श्रावक-व्रत तो ग्रहण करना ही चाहिए।' यह सोच कर उन्होने भगवान् से सम्यक्त्व और श्रावक के १२ व्रत अगीकार किये। पीछे नवतत्व की जानकारी आदि करके वे २१ गुण-सम्पन्न श्रेष्ठ श्रावक बन गये। यहाँ तक कि 'भगवान् के श्रावको मे वे नामाकित मुख्य श्रावको में गिने जाने लगे।'
चौदह वर्ष तक उन्होने गृहस्थ व्यवहार चलाते हुए श्रावकत्व का पालन किया। फिर उन्हें लगा कि 'गृहस्थी के
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कथा-विभाग-६ श्री कामदेव श्रावक [ २४३ झंझटो से धर्म-चिन्तन और धर्म-करणी मे बहुत बाधा पडती है।' तब उन्होने गृहस्थी का सारा भार अपने बड़े पुत्र पर डाल कर निवृत्ति ले ली। वे अपनी पौषधशाला मे ही जाकर रहने लगे। वही वे पोषध आदि धर्म-ध्यान करते और जातोय कुलो से भिक्षा माग कर अपना काम चलाते थे।
पिशाच का पहला उपसर्ग एक बार की बात है। उन्होने पौषध किया था। दिन तो बीत गया, पर जब आधी रात का समय हुआ, तब उनकी पौषधशाला के बाहर एक 'मिथ्यादृष्टि देव' आया । उसने भयकर पिशाच का रूप बनाया। टोपले-सा शिर, बाहर निकली हुई लाल-लाल आँखे, सूपडे-से कान, भेड का सा नाक, घोडे को पूंछ-सी मूंछे, ऊँट के जसे लम्वे-लम्बे ओठ, फावड़े से दाँत, लपलपाती जोभ-इस प्रकार पिशाच का रूप बहुत ही विकृत था। ताड़-सा लम्बा, कपाट-सा चौडा, काँख मे सर्प लपेटे, वह पिशाच हाथ मे चमचमाता नोला, खड्ग (तलवार) लेकर भयावना शब्द करता हुआ पौषधशाला मे कामदेव के पास आया और बोला-'अरे । कामदेव । मृत्यु के चाहने वाले ! कुलक्षण ! अशुभ दिन के जन्मे । लज्जादि रहित ! धर्म-मोक्ष के चाहने वाले ! धर्म-मोक्ष के प्यासे । तुझे पौषध अादि व्रत से डिंगना उचित नहीं है। परन्तु आज यदि तू धर्म से नहीं डिगता है, उसे नहीं छोड़ता है, तो मैं आज इस खड्ग से तेरे खण्ड-खण्ड कर दूगा, जिससे तू अकाल मे ही बहुत दुःख पाता हुआ मर जायगा।'
पिशाच-रूपी देव के ऐसा कहने पर कामदेव भयभीत नही हुए, क्षुब्ध नहीं हुए, भागे भी नहो, परन्तु उपसर्ग समझ कर
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२४४ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १ सागारी सथारा (अनशन) ग्रहण कर लिया और चुपचाप धर्मध्यान करते रहे। ऐसा देख कर उस देव ने कामदेव को अपनी उपर्युक्त बात दूसरी और तीसरी बार भी कही, परन्तु कामदेव के तन-मन मे कोई अन्तर नही आया । तब देव ने ऋद्ध होकर, भौहे बढाकर सचमुच ही खड्ग से कामदेव के खण्ड-खण्ड कर दिये। उससे कामदेव को बहुत कष्ट पहुँचा। सुख का लेश भी नहीं रहा। ऐसी उस वेदना को सहन करना बहुत कठिन था, फिर भी कामदेव बहुत ही शान्ति से उस वेदना को सहन करते रहे।
हाथी का दूसरा उपसर्ग यह देखकर उस देव को कुछ निराशा हुई। वह पौषधशाला से बाहर निकला। इस दूसरी बार मे उसने अपना पर्वत-सा लम्बा-चौडा, तीखे-तीखे दाँत वाला, लम्बी-सी संडवाला, मेघ-सा काला और मदमाते भयकर हाथी का रूप बनाया तथा पौपधशाला में प्राकर कहा-'अरे । कामदेव ! मृत्यु के चाहने वाले !-इत्यादि । यदि तू धर्म से नहीं डिगता, व्रतों को नहीं छोडता, तो मैं अभी तुके सूंड से पकडकर पौषधशाला से बाहर ले जाऊँगा। वहाँ तुझे आकाश में उछाल कर फिर तीखे दाँतो पर झेलूंगा। फिर भूमि पर डालकर पैरो तले तीन बार रोदूंगा। जिससे तू अकाल मे ही बहुत दुख पाता हुआ मर जायगा।'
कामदेव, हाथी के इन वचनो को सुनकर भी न डरे, वरन् पहले के समान ही निर्भय निश्चल चुपचाप धर्म-ध्यान करते रहे। यह देखकर उस हाथीरूप-धारी देव ने कामदेव को अपनी उपर्युक्त वात दूसरी और तीसरी बार भी कही। परन्तु कामदेव के तन-मन मे कोई अन्तर नही आया । तब देव ने क्रूद्ध
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कथा-विभाग-६ श्रो कामदेव श्रावक [ २४५ होकर सचमुच ही कामदेव को संड से पक्ड वर पोपधशाला से बाहर निकाला, आकाश में उछाला, तीखे-तीखे दांतो पर भेला और भूमि पर डालकर तीन बार परो से बहुत रौदा । उमसे भी कामदेव को वहुत कष्ट पहुँचा। फिर भी कामदेव उस कठिन वेदना को बहुत शाति से ही सहन करते रहे।
सप का तीसरा उपसर्ग
यह देख कर उस देव को बहुत निराशा हुई। उसका दूसरा उपसर्ग भी कामदेव को डिगा नही सका। तब वह पौषधशाला से बाहर निकला। तीसरी बार उसने मसी (स्याही) सा काला, चोटी-सा लम्बा, लपलपाती दो जोभ वाला, लोही-सी आँखो वाला, बहत बडी फण वाला, आँखो मे भी विषवाला, महा फूंकार करता, भयकर सर्प का रूप बनाया और पौषधशाला मे आकर कहा-'अरे । कामदेव । मृत्यु के चाहने वाले 1-इत्यादि। यदि तू धम से नही डिगता, व्रतो को नही छोडता, तो मैं अभी सर-सर करता तेरी काया पर चढ जाऊँगा। पिछली अोर से फॉसी के समान तीन बार तेरी ग्रीवा (गले) को लपेट्रगा। फिर विष वाली तीखी दाढो से तेरे हृदय पर ही कई दश दूंगा। जिससे तूं अकाल मे ही बहुत दुख पाता हुआ मर जायगा।
कामदेव सर्प के इन वचनो को सुनकर भी पहले के समान ही निर्भय और निश्चल हो चुपचाप धर्म-ध्यान करते रहे। यह देखकर उस सर्प-रूपधारी देव ने अपनी उपयुक्त बात दूसरी और तीसरी बार भी कही, परन्तु कामदेव के तन-मन मे कोई अन्तर नही आया। तब देव क्रुद्ध होकर सचमुच ही सर-सर करता कामदेव की काया पर चढा। पिछली ओर से फांसी के समान ग्रीवा को तीन बार लपेटा, फिर विष वाली तीखी दाढो से हृदय
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२४६ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ पर कई दश दिये। उससे भी कामदेव को वहुत कष्ट पहुंचा, फिर भी कामदेव उस कठिन वेदना को बहुत शाति से ही सहन करते रहे।
यह देखकर देव पूरा निराश हो गया। वह पिशाच, हाथी और सर्प के तीन-तीन बडे-बडे उपसर्ग करके भी कामदेव __ को धर्म और व्रत से डिगा नहीं सका। तब वह पौषधगाला
से बाहर निकला। इस बार उस देव ने अपना वास्तविक देव का ही रूप बनाया। चमकता सुनहग गरीर, उज्ज्वल वहुमूल्य वस्त्र, भाँति-भाँति के उत्कृष्ट कोटि के हार आदि प्राभूपणयुक्त तथा दसो दिशामो को प्रकाशित करनेवाला दिव्य वह देव-रूप था। फिर उसने पौषवशाला मे पाकर कहा
देव-प्रशंसा
'हे कामदेव । श्रमणोपासक । (माधु की उपासना करने वाले । ) तुम धन्य हो। तुम बडे पुण्यवान हो, तुम कृतार्थ हो, तुम सुलक्षण हो, तुम्हारा जन्मना और जोना सफल है, क्योकि तुम्हारी निग्रन्थ प्रवचन (जनधर्म) मे ऐसी दृढ श्रद्धा है कि, देवता भी तुम्हे डिगा नहा सकते।
'हे देवानुप्रिय । (यह आर्य सम्बोधन है) पहले देवलोक के इन्द्र ने अपनी लम्बी-चौडी सभा के बीच तुम्हारी प्रशसा करते हुए कहा था कि, कामदेव श्रमणोपासक निर्ग्रन्थ प्रवचन मे इतने दृढ हैं कि, उन्हे देव-दानव कोई भी धर्म से डिगा नहीं सकता।' परन्तु मुझे उस बात पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए मै तुम्हारी धर्म-दृढता की परीक्षा लेने के लिये यहाँ आया था। तीन वडे-बडे उपसर्ग देकर अव मैंने आज प्रत्यक्ष ही देख लिया ह कि, अापकी निर्गन्थ प्रवचन (जैनधर्म) मे अचल श्रद्धा है। हे
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कथा-विभाग -६ श्री कामदेव श्रावक [२४७ देवानुप्रिय | मैंने जो पापको उपसर्ग दिये, उसके लिये मैं आपसे बार-बार क्षमा चाहता हूँ। आप क्षमा करे। पाप क्षमा करने योग्य है। अब मैं पुन इस प्रकार कभी आपको उपसर्ग नही दूंगा।'
इस प्रकार उस देव ने कामदेव की स्वय प्रशसा की और उन्हे इन्द्र द्वारा की गई प्रशसा सुनाई। (उनको अपने यहॉर आने का और उपसर्ग देने का कारण बताया) तथा उनको उपसर्गों में भी धर्म-दृढ रहनेवाला बताकर उनके पैरो मे पडकर उनसे वार-बार क्षमा-याचना की। फिर वह देवता जहाँ से आया था, उधर ही चला गया।
समवसरण में
कामदेव ने अपने को निरुपसर्ग (उपसर्ग रहित) जानकर अपना सागारी मथारा पार लिया। दिन उगने पर उन्होने अपनी नगरी में भगवान् को पधारे हुए जाना। इसलिए वे पौषध पालने के पहले ही भगवान के दर्शन करने तथा वाणी सुनने के लिए गये। । भगवान् ने सबको पहले धर्म-कथा सुनाई। फिर धर्मकथा समाप्त होने पर सबके सामने कामदेव से कहा-'क्यो कामदेव । क्या इस पिछली रात को तुम्हे देवता के द्वारा पिशाच, हाथी और सर्प-रूप से तीन-तीन बार भयकर उपसर्ग हुए ?' इत्यादि देवता के आने से लेकर चले जाने तक का बीतक सुना कर भगवान् ने कहा-'कामदेव । क्या यह सच है ?' कामदेव ने कहा-हाँ, सच है।'
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२४८ ]
जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
साधु-साध्वियों को शिक्षा
__ कामदेव के द्वारा हाँ भरने पर भगवान् ने वहत-से साधुसाध्वियो को सबोधन करके कहा-आर्यो । गृहस्थ श्रमणोपासक, गृहस्थवास मे रहता हुया भी जव देवादि के उपसर्गो को भली-भाँति सहन कर सकता है, तो जिन्होने घरवार त्याग दिया, जो सदा अरिहतो की वाणी सुनते रहते है, उनके लिए देवादि उपसर्ग सहना शक्य है, अगक्य नही है। अत. पापको भी कामदेव का अादर्श दृष्टान्त ध्यान में रखते हुए सभी उपसर्गों को दृढतापूर्वक सहना चाहिए।
सभी साधु-साध्वियो ने अपने से छोटे गृहस्थ के दृष्टान्त से दी गई, भगवान् की उस शिक्षा को बहुत ही विनय के साथ स्वीकार की।
देवलोकगमन तथा मोक्ष
उसके पश्चात् कामदेव श्रावक ने भगवान से कुछ प्रश्न किये और उत्तर प्राप्तकर अपनी शकाएँ दूर की तथा जिज्ञासाएँ पूर्ण की। पश्चात् वे वन्दन-नमस्कार करके अपने घर को लौट गये।
कामदेव श्रावक ने उसके पश्चात् और भी अधिक धर्मध्यान किया । (श्रावक की ११ प्रतिज्ञाएँ पाली ।) । उन्होने सव २० वर्ष तक श्रावकत्व का पालन किया। अन्त मे उन्होने अपने जीवन में जो कोई दोष लगा, उसका अालोचन प्रतिक्रमण करके संथारा ग्रहण किया। एक मास का अनशन होने पर वे मृत्यु के अवसर पर काल करके पहले
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कथा - विभाग - ६ श्री कामदेव श्रावक
देवलोक मे देव-रूप से उत्पन्न हुए । वहाँ से वे मनुष्य बनकर तथा दीक्षा लेकर सिद्ध बनेगे ।
॥ इति ६. श्री कामदेव की कथा समाप्त ॥
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:
२४६
- श्री उपासकदशांग सूत्र, श्रध्ययन २ के आधार से ।
-
शिक्षाएँ
१ साधु नही तो श्रावक तो अवश्य बनो ।
२ स्वय गृहस्थी, चलाते हुए धर्म ग्रधिकंन ही हो सकता । ३. देवादि उपसर्ग आने पर भी धर्म मे दृढ रहो । ४ धर्म मे दृढ रहनेवाले की देव, इन्द्र व भगवान् भी प्रशसा करते हैं ।
५ छोटे के उदाहरण से भी शिक्षा लेनी चाहिए ।
प्रश्न
१ कामदेव की लौकिक सम्पन्नता का परिचय दो । २ कामदेव को प्राये हुए उपसर्गों का वर्णन करो । ३ कामदेव को देव उपसर्ग देने क्यो प्राया ?
?
- पश्चात् क्या-क्या हुआ
४ उपसर्ग समाप्ति के ५ कामदेव के कथानक से प्रापको क्या शिक्षाएं मिलती है ?
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२५० ]
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
७. श्री सुलसा श्राविका
परिचय
{
'राजगृह' मे 'नाग' नामक सारथी रहता था । उसकी पत्नी का नाम था 'सुलसा' । वह श्राविका थी । भगवान् महावीरस्वामी की ३ तीन लाख १८ अट्ठारह हजार श्राविकाओं मे उसका नाम पहला था । क्योकि वह सम्यक्त्व में दृढ थी तथा उसमे दान आदि कई विशिष्ट गुण 'थे }
पुत्र के प्रभाव में
सुलसा को कोई पुत्र उत्पन्न नही हुआ था । पर उसने sari कोई विचार नही किया । प्राय स्त्रियाँ पुत्र न होने पर देव - देवियो की शरण लेती है, उनकी मनौती करता है । मत्रतत्र करवाती हैं। पर उसने देव-देवी की शरण लेने का या मत्र-तत्र करने का मन मे भी विचार नहीं किया। उनकी यह दृढता थी कि - 'पुत्र चाहे हो, चाहे न हो, परन्तु मैं अरिहनदेव के अतिरिक्त अन्य किसी देव को मस्तक नहीं झुकाऊँगी । नमस्कार मंत्र के अतिरिक्त दूसरा मत्र कभी स्मरण नही करूँगी ।'
.
मुलसा के पति नाग को पुत्र की बहुत अभिलाषा थी । उसने पुत्र प्राप्ति के लिए अन्य देव-देवियो को पूजना आरम्भ किया व अन्य मत्र-तत्रो का स्मरण चालू किया ।
सुलसा - नाग की चर्चा
जब सुलसा को यह जानकारी हुई, तो उसने अपने पति को समझाया - 'पतिदेव । इन देव देवियो की पूजा छोड़ो ।
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कथा-विभाग-७ श्री सुलसा श्राविका [२५१ मंत्र-तत्र का स्मरण छोड़ो। हमे एक मात्र परिहतदेव और नमस्कार-मत्र पर ही श्रद्धा रखनी चाहिए। अरिहत को ही झुकना चाहिए। नम-कार-मत्र का ही स्मरण करना चाहिए। अन्य देव-देवियो और अन्य मत्र-तत्रो पर श्रद्धा रखना मिथ्यात्व है।'
नाग ने कहा-'मुलसे ! मैं अरिहतदेव और नमस्कार-मत्र पर ही श्रद्धा रखता है। मुझे अन्य देव-देवियो और अन्य मत्रों पर श्रद्धा नहीं है। मैं उन्हे ससार-तारक या मोक्ष देने वाला नही मानता। पर ये लौकिक देव और लौकिक मत्र है। पुत्र की आशा लौकिक प्राशा है। ये 'लौकिक प्रागा पूर्ण करने मे सहायता दे सकते है, इसलिए मैं इन्हे पूजता हूँ और स्मरण करता हूँ।'
सुलसा ने कहा-'स्वामी । यदि अन्य देवो और मत्रों पर हमारी श्रद्धा नहीं है, तो हमारे हृदय मे भले सम्यक्त्व रहे, पर उन्हे पूजने और उनके स्मरण करने की प्रवृत्ति तो मिथ्यात्व की ही है। हमे मिथ्यात्व की प्रवृत्ति से भी बचना ही अच्छा है।
दूसरी बात यह है कि, यदि पूर्व जन्म मे हमने पुण्य नही, कमाये है, तो ये अन्य देव-देवियों और मन्त्र-तन्त्र हमे कुछ भी नही दे सकते। हमारी कुछ भी सहायता नही कर सकते।'
नाग ने कहा-'सुलसे ! तुम्हारा कहना सत्य है। पर मान लो कि, हमने पूर्व जन्म मे कुछ पुण्य कमाये हो और वे अभी उदय मे न आये हो तथा पाप हो उदय मे आये हो, तब तो ये देवता और मत्र हमारी सहायता कर सकते है। क्योकि वे वर्तमान पाप को दवा सकते हैं और दबे हुए पुण्य को खीचकर शीघ्र बाहर ला सकते है। यह भी हो सकता है कि हमे पुत्र प्राप्ति का पुण्य उदय मे आने वाला हो और उसके लिए देव
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२५२ ] जैन सुवोध पाठमाला-भाग १ देवी या मत्र-तत्र के निमित्त की भी आवश्यकता हो। यह, सोचकर भी मैं अन्य देवो को नमस्कार करता हैं और अन्य मत्रो का स्मरण करता हूँ। पुत्र होने से तुम पर चढा हुया बाँझ का कलक भो धुल जायगा।'
सुलसा ने कहा-'नाथ' आपका यह कहना असत्य नही है, पर मैं इसके लिए मिथ्यात्व की प्रवृत्ति अपनाना नही चाहती। यदि मान लो कि, पूर्व मे हमारे कमाये हुए पुण्य नही है, तो दोनो
ओर हमारी हानि ही है। पुत्र की प्राप्ति भी नही होगी और मिथ्यात्व-प्रवृत्ति का पाप भी पल्ले बँध जायगा।
यदि आपको पुत्र की ही अधिक अभिलाषा हो, तो आप अन्य स्त्री से लग्न कर लीजिए, पर मिथ्यात्व की प्रवृत्ति का सेवन मत कीजिए। लोग जो मुझे बॉझ कहते है, इसका आप कोई विचार मत कीजिए। जो सम्यक्त्व-दृढता का महत्व जानते है, वे तो हमारी प्रशसा ही करेगे, निन्दा नही करेगे तथा जो. सम्यक्त्व-दृढता का महत्व नही जानते, उनकी वात हमे सुनना ही क्यो चाहिए ?
नाग ने कहा-'सुलसे । मैं तुम्हारा कहा मानकर मिथ्यात्व की प्रवृत्ति छोड देता हूँ, पर मैं तुम्हारे लिए सौक लाऊँ—यह कभी नही हो सकता। मैं पुत्र चाहता हूँ, पर तुम्हारी कुंख से उत्पन्न पुत्र चाहता हूँ। मेरा तुम्ही पर प्रेम है। मैं तुम्हे अपने जीवन से भिन्न नही कर सकता।'
सुलसा ने कहा-'धन्य है, आर्यपुत्र ! आपने मिथ्यात्वप्रवृत्ति छोडने का अच्छा निश्चय किया। धर्म पर दृढ रहने से , अशुभ कर्मो का क्षय होता है, वे शुभकर्म के रूप मे बदलते हैं. और नये पुण्यो की महान् वृद्धि होती है। कभी शोघ्र, तो कभी विलम्ब से अनिष्ट का विनाश होता है, और इष्ट-प्राप्ति होती है।
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कथा-विभाग--७ श्री सुलसा श्राविका [.२५३ कई बार देवता तक आकर हाथ जोडकर प्रार्थना करते है कि, __'धन्य हैं, आप मुझे कुछ सेवा का अवसर दीजिए।' ऐसे
अवसर पर उनसे सहायता मागी जा सकती है। इससे पूजा आदि को पाप भी नही लगता और कार्य-पूर्ति भा हो जाती है।' नाग ने इस कथन को सहर्ष स्वीकार किया।
. धन्य है, सुलसा ! जिसने बॉझ रहना स्त्रोकार किया, _ अपने ऊपर सौक का आना स्वीकार किया, पर मिथ्यात्व को प्रवृत्ति करना स्वीकार नहीं किया। स्वय ने मिथ्यात्व त्यागा और पति को भी मिथ्यात्व से दूर हटाया।
+ शक्रेन्द्र द्वारा प्रशंसा ,
सुलसा की इस दृढ़ता और तत्वज्ञान की देवलोक मे भी प्रशसा हुई। शक्रं नामक पहेले देवलोक के इन्द्र ने देवतायो की भरी सभा के बीच कहा-'राजगृई नगर के नाग सारथी की पत्नी 'सुलसा श्राविका धन्य है | क्योकि' उसकी सम्यक्त्व बहुत ही दृढ है। कोई देव-दानव भी उसे सम्यक्त्व से नही डिगा सकता।
"वह अरिहतदेव, निर्ग्रन्य गुरु और केवलि-त्ररूपित धर्म : मे इतनी दृढ है कि, वह ससार का सुख छोड देती है, पर। मिथ्यात्व की प्रवृत्ति कभी नही अपनाती। । । ।
• अरिहत को ही देव, 'निर्ग्रन्थ कों ही गुरु तथा' केवलीप्ररूपित तत्त्व को ही धर्म मानते हुए यदि उसे कितनी भी हानि पहुँचे, कितना भी कष्ट - पहुँचे, फिर भी वह श्रद्धा से नही डिगती। उसके मन मे थोडी भी चचलता नही आती। 3 ऐसी सुलसा श्राविका को बारम्बार नमस्कार है।'
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- २५४ ]
जन सुबोध पाठमाला-भाग १
देव द्वारा परीक्षा
एक मिथ्यादृष्टि देव को यह बात सहन नही हुई। वह सुलसा की परीक्षा के लिए साधु का रूप बनाकर सुलसा के घर पहुँचा। सुलसा ने उसको साधु समझकर वदन-नमस्कार करके पूछा-'भन्ते । इस समय आपका मेरे यहाँ कैसे पधारना हुया ? देव ने कहा-'श्राविके | मेरे वृद्ध गुरुदेव के शरीर मे बहुत पीडा है। उनकी औपधि के लिए विद्यो ने मझे लक्षपाक तेल बतलाया है। इसलिए मुझे उस तेल की आवश्यकता है। यदि वह तुम्हारे घर शुद्ध (सूझता) हो, तो बहरायो ।' सुलसा ने कहा-'भन्ते । अवश्य कृपा कोजिए। आज का दिन धन्य है कि, मेरे पदार्थ सन्तो की सेवा मे काम आयेगे।'
यह कहकर वह लक्षपाक तेल लेने गई। लक्षपाक तैल लाख वस्तुएँ, लाख बार तपाने पर बनता है। उसके वनने मे लाख रुपये व्यय होते है। लक्षपाक तेल की उसके घर मे तीन गीशियाँ थी। वे जहाँ थी, वहाँ पहुँचकर वह पहली शीशी, उतारने लगी कि, शीशी फिसलकर नीचे गिर गई और फूट गई। दूसरी और तीसरी गीगी की भी यही स्थिति हुई। तीसरी बार मे उसके पैर मे काँच का टुकड़ा भी चुभ गया।
इस प्रकार उसके लाखो रुपये मिट्टी से मिल गये। शीशी, के कांच का टुकड़ा पैर मे लग गया, सो अलग। पर उसके मन मे इन दोनो बातो का कोई खेद नहीं हुआ। उसे यह , विचार ही नही पाया कि 'ये कैसे साधु है, जिन्हें दान देते हुए, मेरे मूल्यवान पदार्थ नष्ट हो। यह कैसा 'दान-धर्म है ? जिसे करते हुए शरीर मे पीडा हो।' वरन् उसे इस बात का खेद हया कि-'मेरी ये वस्तुएँ सन्तो के काम नहीं आ सकी। मेरे
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कथा - विभाग - ७. श्री सुलसा श्राविका [ २५५
हाथों से दान नही हो सका । सन्त मेरे यहाँ कष्ट करके पधारे, परन्तु उन्हे श्रावश्यक वस्तु नही मिल सकी। जो इनके वृद्ध गुरु सन्त है, उनकी पीडा कैसे दूर होगी ? आह । वे मुनिराज कितना कष्ट पाते होगे? मुझ प्रभागिन ने ध्यानपूर्वक शीशियों नही उतारी। ऐसे समय मे मुझ से सावधानी क्यो नहीं रही ? धिक्कार है मुझे " यह सोचते-सोचते उसका मुँह कुम्हला गया। आँखे डबडबा आई ।
देवता यह सारा दृग्य देख रहा था । अवधि (ग्रज्ञान) से सुलसा के मन के विचार को भी देख रहा था । उसे प्रत्यक्ष हो गया कि, शक्रेन्द्र जो कह रहे थे, वह सर्वथा सत्य था । सचमुच यह सम्यक्त्व मे बहुत दृढ है । देवता ने सुलसा 'के सामने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और सुलसा से कहा'श्राविके । खेद न करो, यह तो मेरी देव - विकुर्व्वरणा ( देवमाया) थी, जो मैंने तुम्हारी सम्यक्त्व - दृढता की परीक्षा के लिए की थी । धन्य है । तुम्हे 'कि तुम ऐसी दृढ हो । जिस कारण इन्द्र भी तुम्हारी प्रशसा करते हैं ।'
पुत्र- प्राप्ति
'सुलसे । मैं तुम पर प्रसन्न हुआ । (मागो) जो तुम्हारी इच्छा हो, वही मागो । मैं उसकी पूर्ति करूंगा ।' सुलसा ने कहा - 'देव | मेरी तो यही इच्छा है कि मेरी सम्यक्त्व पर दृढता बनी रहे । मेरा सम्यक्त्व - रत्न सुरक्षित रहे । पर यदि श्राप कुछ देना चाहते हैं, तो मेरे पति को पुत्र की अभिलाषा है, वह आप पूरी करें ।'
देवता ने उसे पुत्र उत्पत्ति मे सहायक ३२ गोलियाँ दी और समय पडने पर 'मुझे स्मरण करना' - यह कहकर वह देवलोक मे लौट गया। समय से सुलसा को इच्छित पुत्र उत्पन्न हुए ।
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२५६ 1
जैन सुवोध पाठमाला-भाग १
- भगवान द्वारा प्रशंसा
'चम्पानगरी' की बात है। भगवान महावीरस्वामी वहाँ विराज रहे थे। वहाँ 'अम्बड़' नामक एक श्रावक आया । वह विद्याधर (विद्यायो का जानकार) था। उसने भगवान् महावीरस्वामी की वाणी सुनकर उन्हें वदन-नमस्कार करक कहा-'भन्ते । आपके उपदेश सुनकर मेरा जन्म सफल हो गया। अब मैं राजगृह नगरी जा रहा हूँ।'
7. भगवान् ने कहा 'अम्बड | तुम जिस नगरी मे जा रहे हो, वहाँ सुलसा श्राविका रहती है। वह सम्यक्त्व में बहुत दृढ है।'
अम्बड़ विद्याधर द्वारा परीक्षा
अम्बड ने सोचा- 'भगवान्, जो कुछ कह रहे हैं, वह सत्य ही है, क्योकि वीतराग भगवान् किसी की असत्य प्रशसा नहीं करते। किन्तु मैं परीक्षा करके प्रत्यक्ष देखू तो सही कि 'वह सम्यक्त्व मे किस प्रकार दृढ है ?'
राजगृह पहुँचकर विद्या के वल से उसने सन्यासी का रूप बनाया और सुलसा के घर जाकर कहा-'आयुष्मति ! (लम्बी आयुष्यवालो) मुझे भोजन दो। इससे तुम्हे धर्म होगा, मोक्ष की प्राप्ति होगी।'
। सुलसा ने उत्तर दिया-'सन्यासीजी | अनूकपा के लिए मैं प्रत्येक को भोजन दे सकती हैं और लो आपको भी देती है, पर निर्दोष धर्म और मोक्ष तो जिन्हे देने से होता है, उन्हें ही देने से होगा, आपको देने से नही हो सकता। किन्हें देने से निर्दोष धर्म और मोक्ष होता है' ?...यह आपको बताने की आवश्यकता नहीं। क्योकि मैं उन्हे जानती हूँ।
ता हूँ।
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कथा-विभाग-७ श्री सुलसा श्राविका [ २५७
यह उत्तर सुनकर अबड उसके घर से बिना भिक्षा लिए • लौट गया और नगर के बाहर आया। वहाँ उसने आकाश मे
अधर कमल का आसन लगाया और उसके ऊपर बैठकर वह तपश्चर्या करने का दिखावा करने लगा। लोग उसे अधर कमल के आसन पर तपश्चर्या करते देखकर चकित होने लगे।
सैकडो-सहस्रो लोग उसके दर्शन के लिए आने-जाने लगे। उसकी पूजा-भक्ति होने लगी और पारणे के लिए निमन्त्रण पर निमन्त्रण आने लगे। परन्तु वह सबको निषेध करता रहा।
लोगो ने पूछा-'योगीराज | आप श्री पारणे के लिए किसी का भी निमन्त्रण स्वीकार नही करते, तो क्या हमारा गाँव अभागा है ? आप जैसे महान् अतिशय वाले तपस्वी, हमारे यहाँ से आहार लिए बिना भूखे ही पधार जाएंगे? नही, नही, ऐसा नही हो सकता। हमारे गाँव मे कोई न कोई तो ऐसा पुण्यशाली अवश्य ही होगा, जो आपको पारणा कराकर कृतार्थ बनेगा। आप कृपया उस भाग्यशाली का नाम बतावे, हम अभी उसे सूचित करते हैं।'
दिव्य योगी-रूपधारी अबड ने कहा 'पुरजनो | आपके यहाँ सुलसा नामक नागपत्ती है। वह यदि पारणा करावेगी तो मैं उसके यहाँ पारणा करूँगा।' यह सुनकर लोग सुलसा के घर पहुंचे।
कुछ स्त्रियाँ, जो उस अंबड को देखकर लौटती थीं, वे सुलसा के पास अवड के अधर कमलासन, उसकी तपश्चर्या और निमन्त्रण के प्रति उपेक्षा भाव की प्रशसा करती। उसके अतिशय का बखान करती, और सुलसा को उसके दर्शन की प्रेरणा करती, पर वह इन ग्राडबरो के चक्कर मे नही आयी।
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२५८ ] जैन मुबोध पाठमाला--भाग १
जव इस समय सब लोगो ने आकर सुलसा से कहा'बधाई है, सुलसा | वधाई है । वे अपूर्व योगिराज तुम्हारे यहाँ पारणा करना चाहते हैं। उन्हे पारणा करायो और भाग्यशाली बनो।' तो उसने अवड की उस विकुर्वणा को जानकर उत्तर दिया-'पुरजनो | मै अरिहत को ही देव, निग्रंथ को ही गुरु और केवली प्ररूपित तत्त्व को हो धर्म मानती हूँ। मुझे इन जैसे साधुनो पर कोई श्रद्धा नहीं है। सच्चे साधु लोग अपने अतिशय का दिखावा और तप की प्रसिद्धि नही करते। 'मै उस घर पारणा करूँगा'-ऐसा नही कहते। एक घर पर भोजन नहीं करते। वे अपनी लब्धियो (ऋद्धियो) को गुप्त रखते हैं, तपश्चर्या को अप्रकट रखते है। विना सूचना दिये घर में प्रवेश करते है और नाना घरो से गोचरी लेकर सयमयात्रा, चलाते हैं । उन्हे पारणा कराने से हो पात्मा सच्ची भाग्यशाली बनती है। ऐसे मिथ्या साधुनो को पारणा कराने से नही वनती। यह उत्तर सुनकर वहुत-से पुरजन बहुत खिन्न हुए। कुछ ने यह उत्तर उस दिव्य-योगीरूपधारी अवड को ले जाकर सुनाया। उस उत्तर को सुनकर अवड को प्रत्यक्ष हा गया कि 'सुलसा सम्यक्त्व मे कितनी दृढ हे ? वह आडम्बर और लोकमत से किस प्रकार अप्रभावित रहती ह ।'
उसने अपना वेप बदला और उन सभी लोगों के साथ नमस्कार-मत्र का उच्चारण करते हुए मुलसा के घर पर पाकर सुलसा के घर मे प्रवेश किया। मुलसा ने उस समय अम्वड को स्वधर्मी समझकर उठकर उसे सत्कार सम्मान दिया। अम्बड ने भी भगवान् द्वारा की गई प्रशसा सुलसा को सुनाई और अपने द्वारा की गई परीक्षा बताकर उसकी स्वय भी बहुत प्रगसा की।
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कथा-विभाग-७ श्री सुलसा श्राविका [२५६ लोगो ने भी यह सब देखकर सुलसा की सम्यक्त्व-दृढता की भूरि-भूरि प्रशसा की और जो पुरजन सुलसा पर खिन्न हुए थे, वे पुनः सुलसा पर प्रसन्न हो गये ।
॥ इति ७ श्री सुलसा श्राविका को कथा समाप्त ॥
शिक्षाएँ
१. दृढ सम्यक्त्वी की देव तो क्या, भगवान् भी प्रशसा करते हैं।
२ दृढ सम्यक्त्वियो की कसौटियाँ भी होती रहती है। ३. मिथ्यादृष्टि के साथ मिथ्यात्व-प्रवृत्ति भी छोडो। ४ दृढ सम्यक्त्वी दूसरो को भी दृढ बनाता है। ५. दृढ सम्यक्त्वी की भी लौकिक आशाएँ पूर्ण होती हैं।
प्रश्न
१. सुलसा श्राविका का परिचय दो । २. सुलसा और नाग की पारस्परिक चर्चा वतायो। ३. सुलसा की किस-किसने प्रशसा को ? ४ सुलसा की किस-किसने कैसी-कैसी परीक्षा ली ? ५ सुलसा श्राविका से क्या शिक्षाएं मिलती हैं ?
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२६० ]
जैन सुवोध पाठमाला - भाग १
८. श्री सुबाहु-कुमार (मुनि)
परिचय
'हस्तिशीर्ष' नामक नगर मे 'प्रदोनशत्रु' नामक राजा राज्य करते थे । उनको 'धारिणी' नामक रानी थी। उस रानी को रात्रि मे 'सिंह स्वप्न' आया । ६ मास र साढे सात ( कुछ अधिक सात ) रात के पश्चात् एक पुत्र जन्मा । उसका नाम 'सुबाहुकुमार' रक्खा गया । राजा-रानी ने क्रमश उसे ७२ कलाएँ सिखाई और उसका ५०० राजकन्याग्रो से लग्न किया । वह रानियो के साथ राजप्रासाद मे मुखपूर्वक रहने लगा ।
समवसरण में
एक बार उस नगर के ईशान कोण मे रहे 'पुष्पकरंडक' नामक उद्यान मे भगवान् महावीरस्वामी पधारे। लोगो को उनके दर्शनार्थ वडे समूह से जाते देखकर सुवाहुकुमार ने कचुकी (अंतपुर के सेवक ) को बुलाकर पूछा कि - 'ये लोग आज इतने बडे समूह से कहाँ जा रहे हैं ?' कचुकी ने उत्तर में कहा'भगवान् पधारे हैं, इसलिए लोग बडे समूह से उनके दर्शन करने, उन्हे वन्दन करने व उनकी वाणी सुनने के लिए जा रहे हैं ।' सुवाहु भी इस समाचार को पाकर भगवान् के दर्शन आदि के लिए भगवान् के समवसरण मे पहुँचे ।
-
धर्म-कथा
भगवान् ने सुवाहुकुमार यादि वहुत बडी सभा को विस्तार से धर्म - कथा सुनाई। सबसे पहले भगवान् ने १ ग्रास्तिकता का
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कथा-विभाग-८ श्री सुबाहु-कुमार (मुनि) [ २६१ उपदेश दिया। २ दूसरे मे 'जीव जो भी पुण्य या पाप-कर्म करता है, उसका फल अवश्य भोगना पडता है'--यह बताया। ३ तीसरे मे 'जैन धर्म का स्वरूप और उसके पालन का फल' बताया। ४ चौथे मे 'जीव चार गति मे कैसे भटकता है और सिद्ध कैसे बनता है' यह बताया। ५ पाँचवे मे 'साधु-धर्म
और 'श्रावक-धर्म' बतलाया। भगवान ने बहुत ही मधुर, मनोहर, प्रभावशाली शैली से देशना दी।
श्रावक व्रत धारण
सुबाहकुमार ने ऐसी उस देशना को सुनकर देशना समाप्त होने के पश्चात् भगवान् को वदन-नमस्कार करके कहाभगवन् । मैं आपकी वाणी पर श्रद्धा करता हूँ। मुझे आपकी वाणी बहुत रुचिकर लगी। आपने जो देशना दी, वह सत्य है। धन्य है, वे राजा-महाराजा आदि जो आपकी वाणी आदि सुनकर ऋद्धि, वैभव, परिवार आदि सब छोडकर दीक्षित बनते हैं, पर मैं उस प्रकार दीक्षा लेने में असमर्थ हूँ। इसलिए मैं आपके पास श्रावक व्रत धारण करना चाहता हूँ।' भगवान् ने कहा- 'जैसा सुख हो, वैसा करो, पर इसमे प्रतिबन्ध मत करो। तब सुबाहुकुमार ने भगवान् को वन्दन-नमस्कार करके श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किये । उसके पश्चात् पुन वन्दननमस्कार करके वे अपने राजभवन को लौट गये।
पूर्व भव विषयक प्रश्न उनके लौट जाने पर श्री गौतमस्वामी ने भगवान् को वन्दन-नमस्कार करके पूछा कि-'भन्ते । यह सुबाहुकुमार बहुत लोगो को बहुत ही प्रिय लगता है। यहाँ तक कि, यह
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२६२ ] जैन सुवोध पाठमाला -भाग १ वहत-से साधुओ को भी प्रिय लगता है, इसका क्या कारण है ? १ यह पूर्व भव मे कौन था ? २ इसका पूर्व भव मे क्या नामगोत्र था ? ३ तव इसने कौन-सा अभयदान, अनुकपादान या सुपात्र दान दिया ? ४ इसने कौन-सा पायम्बिलादि मे नीग्स आहारादि भोगा? ५ इसने कौनसे गील या उपवासादि तप का आचरण किया ? ६ अथवा इसने ऐसा
कौन-सा एक भी आर्यवचन (धर्मवचन) सुना और सुनकर उस __ पर श्रद्धा की, जिससे इसने ऐसी ऋद्धि और प्रियता ग्रादि प्राप्त
की ?"
पूर्व भव कथन भगवान् ने कहा- 'गौतम । कुछ वर्षों पहले की बात है। 'हस्तिनापुर' नामक नगर मे २ 'सुमुख' नामक १ एक धनवान्, सुखी और प्रतिष्ठित गृहस्थ रहता था। उस नगर मे 'धर्मघोष' नामक प्राचार्य पधारे। उनके 'सूदत्त' नामक एक मुनि वडे ही तपस्वी थे। वे एक मास तक उपवास करते, फिर एक दिन पारणा करते और फिर एक मास तक उपवास करते, फिर एक दिन पारणा करते। इस प्रकार वे लगातार मास-क्षमण (तप) करते थे।
___ एकवार जिस दिन उनके मास-क्ष मण का पारणा था, उस दिन उन्होने पहले प्रहर (दिन के पहले चौथाई भाग) मे स्वाध्याय किया (शास्त्र-वाचन किया),दूसरे प्रहर मे ध्यान (गास्त्र-चिन्तन) किया और तीसरे प्रहर मे गुरुदेव की आज्ञा लेकर गोचरी के लिए (जैसे गाय उगे हुए घास का थोडा-थोडा भाग चरती है, वैसे प्रत्येक घर से थोडी-थोडी भिक्षा लेने के लिए) निकले । धनवान्-निर्धन सभी कुलो मे गोचरी लेते हुए वे मुनिराज, सुमुग्व गृहस्थ के यहाँ पधारे ।
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कथा-विभाग-८ श्री सुबाहु-कुमार (मुनि)
[२६३
अहोदान
१ सुमुख गृहस्थ मुनिराज को अपने घर गोचरी पधारे हुए देखकर बहुत ही हर्षित हुआ। २. वह आसन छोडकर नीचे उतरा। ३ पगरखी छोडी। ४ मुंह पर उत्तरासग लगाया और ५ मुनिराज का स्वागत करने के लिए सात-पाठ पैर (कुछ पैर) सामने गया। ६ तीन बार प्रदक्षिणा करके वदन-नमस्कार किया। ७ फिर अपने रसोईघर मे वहुमान सहित ले गया और ८ अपने हाथो से अपने घर मे जो मुनियो के योग्य निर्दोष भोजन के उत्तम से उत्तम पदार्थ थे, वे मुनिराज को बहुत मात्रा मे बहराये (दान मे दिये)।
सुमुख को १ दान देने के पहले 'मैं मुनिराज को दान दंगा'-~-इस विचार से वहुत प्रसन्नता थी। २ दान देते हुए 'मुनिराज को दान दे रहा हूँ'-इस विचार से भी वहुत प्रसन्नता थी तथा ३ दान देने के पश्चात् 'मुनिराज को दान दिया'इस विचार से भी बहुत प्रसन्नता थी।
दान का फल
सुवाह ने १ निर्दोष दान दिया था, २ शुद्ध भाव से दिया था तथा ३ महातपस्वी जैसे शुद्ध पात्र को दान दिया था। इस प्रकार १ दान, २ दाता और ३ पात्र तीनो उत्तम थे और दान के समय सुबाहु के १ मन २ वचन और ३. काया ये तीनो भी शुद्ध थे। इस कारण सुबाहु ने सम्यक्त्व प्राप्त की व ससार घटाया (मोक्ष को निकट बनाया)।
मुमुख के इस दान से प्रसन्न होकर देवताओ ने ये पाँच दिव्य बाते प्रकट की-१ सुवर्ण (सोना) बरसाया । २ पाँचो रग
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२६४ ] जैन सुबोध पाठमाला भाग १ वाले फूल वरसाये । ३. ध्वजाएँ फहराई (अथवा वस्त्र बरसाये)। ४. दुन्दुभियाँ (एक प्रकार का उत्तम वाजा) वजाई। और ५. अहोदान ! अहोदान || इस प्रकार घोपणा की। (अर्थात् 'यह दान प्रगसनाय है' ऐसी वार-वार प्रगसा की।)
हस्तिनापुरवासी भी यह देखकर परस्पर मे सुमुख की प्रगसा करने लगे कि-'धन्य है | धन्य है || देवानुप्रियो ! मुमुख गृहस्थ धन्य है | जिसने ऐसा देव-प्रगसित सुपात्र दान दिया।
कालान्तर से उसे मिथ्यात्व मे मनुष्य प्रायु का वध हुआ। वह आयुष्य समाप्त होने पर काल करके अदीनशत्रु की महारानी धारिणी के कुक्षि मे पाया और क्रमग आज मेरे पास आया।
हे गौतम ! इस सुवाहुकुमार ने पूर्व भव मे ३. उन महातपस्वी को, जो निर्दोप, उत्तम भाव से महान् सुपात्र दान दिया, उसके प्रभाव से यह सुवाहु ऐमा ऋद्धि-वेभवादि-सपन्न तथा बहुत लोगो को और साधुअो को भी प्रिय वना है।
दोक्षा
तव गौतमस्वामी ने पूछा-क्या भगवन् । यह मुवाहकुमार आपके पास दीक्षा लेगा ? भगवान् ने कहा-'हाँ'।
कुछ दिनो वाद भगवान् का वहाँ से विहार हो गया। उसके पश्चात् की बात है-एक बार सुवाहकुमार को तीन दिन का पौपध करते हुए रात्रि को विचार आया कि-'भगवान यदि यहाँ पधारे, तो मैं दीक्षित वनँ ।' अतर्यामी भगवान् सुबाहुकुमार के इन विचारों को जानकर वहाँ पधारे । सुवाहुकुमार भगवान् का उपदेश सुनकर दीक्षित वने । उन्होने दीक्षित वनकर कई सूत्रो का अभ्यास किया और वहुत तपश्चर्याये की। अन्त मे
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कथा - विभाग - ७ श्री सुबाहु कुमार (मुनि)
[ २६५
सथारापूर्वक काल करके वे पहले देवलोक मे गये । वहाँ से वे १४ भव तक क्रमश मनुष्य श्रौर देव बनते हुए १५ पन्द्रहवें भव मे मनुष्य बनकर तथा दीक्षा लेकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होंगे ।
॥ इति ८. श्री सुबाहु कुमार ( मुनि) की कथा समाप्त ॥
- श्री सुखविपाक सूत्र, अध्ययन १ के प्राधार से
शिक्षाएँ
१ पात्र का योग मिलने पर भावपूर्वक अपने हाथो से निर्दोष दान दो ।
२. सुपात्र दान से ससार घटता है ( मुक्ति निकट बनती है) ।
किये
रहती है ।
४. सुपात्र दानी को लौकिक सुख भी मिलता है 1 ५ सुपात्र दानी लोगो का व साधुओ का भी प्रिय बनता है ।
हुए
•
?
३ सुपात्र दान से आत्मा की क्रमश उन्नति होती
प्रश्न
१. भगवान् ने धर्म-कथा में कितनी मुख्य बातें बतलाई ?
२ श्री गौतमस्वामी ने सुबाहु के सम्बन्ध मे क्या क्या प्रश्न
३. सुपात्र दान देने श्रादि की विधि बताश्रो ।
४. सुमुख गृहस्थ के सुपात्र दान से क्रमशः क्या-क्या फल
५. सुबाहुकुमार से आपको क्या शिक्षाएँ मिलती है ?
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२६६ ]
जैन सुबोध पाठमाला--भाग १
१. छोटी बहू : रोहिणी
परिचय
पुराने समय की बात है। 'राजगृह' नामक नगर में 'धन्य' (धन्ना) नामक सार्थवाह (परदेश मे व्यापार के लिए जाते हुए साथ मे चलने वाले लोगो को पालने वाला) रहता था। उसके १. धनपाल, २ धनदेव, ३ धनगोप और ४.धनरक्ष-ये चार पुत्र थे । उन चारो पुत्रो की क्रमगं ये चार पुत्र-वधुएँ थी१. उज्झिता ( फेकने वाली ), २ भोगवती ( भागने वाली ), ३. रक्षिता ( रक्षा करने वाली ) और ४ रोहिणी ( बढाने वाली)।
परीक्षा-विचार
धन्ना सार्थवाह को एक बार पिछली रात्रि को कुटुम्ब के विषय मे सोचते हुए यह विचार आया कि-'(मेरे ये चारो पुत्र अयोग्य है, इनसे मेरे कुल का काम नहीं चल सकेगा, अत) इन चारो पुत्र-वधुओ की परीक्षा लं, जिससे जानकारी हो जाय कि, मेरे यहाँ न रहने पर या असमर्थ हो जाने पर या काल कर जाने पर मेरे कुल का काम कौन चला सकेगी ?'
पाँच शालि का प्रदान
दूसरे दिन उन्होने अपने परिवार को, जातिवालो को, मित्रों को और बहनो के पीहरवालो को निमन्त्रण दिया। उनको भोजन देने के पश्चात् जब वे कुछ विश्राम कर चुके तक उन सभी के सामने १. सबसे बडी बहू उज्झिता को बुलाया
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कथा-विभाग-६ छोटी बहू रोहिणी [ २६७ और उसे पाँच शालि अक्षत (चावल के बीज) देते हुए कहा'पुत्री ! मेरे हाथ से इन पाँचो चावल के बीजो को लो और इनका सरक्षण करते हुए (हानि से बचाते हुए) तथा सगोपन करते हुए (हानि न हो, ऐसे गुप्त स्थान में रखते हुए) इन्हे अपने पास रक्खो।' यह कहकर धन्ना ने उसके हाथो मे वे पांचो बीज दे दिये और उसे स्वस्थान पर भेज दिया।
उज्झिता ने उन बीजो को एकात मे ले जाकर सोचा'मेरे ससुर के बहुत-से कोठार, शालि (चावलो के बीजो) से ही भरे पडे है। जब ससुरजी पाँच शालि मागेंगे, तब मैं उन कोठारो मे से पाँच शालि ले जाकर उन्हे दे दूंगी। इन शालियो का सरक्षण-सगोपन करना वृथा है।' यह सोचकर उसने वे बीज एक ओर फेक दिये और अपने काम मे लग गयी। उसका जैसा नाम था, वैसा हो उसने काम किया।
धन्य ने २ दूसरी बहू भोगवती को भी बुलाकर पाँच शालि दिये। उसने भी एकात मे जाकर बडी बहू के समान सोचा। पर उसने बाज फेंके नही, किन्तु उनके छिलके उतार कर उन्हे खा लिए। उसने भी अपने नाम के अर्थ के अनुसार काम किया।
धन्य ने ३ तीसरी बहू रक्षिता को भी बुलाकर पाँच शालि दिये। उसने एकात मे जाकर सोचा-'ससुरजी ने आज परिवार, जाति, मित्र, पीहर वाले आदि सबके सामने ये शालि के बीज दिये हैं, इसलिए अवश्य ही इसमे कोई कारण होना चाहिए।' यह विचार कर उसने एक नये स्वच्छ वस्त्र मे उन्हे बाँधा और अपने आभूषण। की पेटी मे रख दिया । और नित्य १. प्रात , २ मध्याह्न और ३ संध्या तीनो समय उनको
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२६८ ]
जैन सुवोध पाठमाला- -भाग १
देखती रहती और पुन सभाल कर रख देती । इसने भी अपने नाम के अर्थ के अनुसार काम किया । रोहिणी द्वारा वृद्धि
धन्य ने अन्त मे ४. सबसे छोटी बहू को भी बुलाकर पाँच गालि दिये । उसने भी एकात मे जाकर तीसरी बहू के समान सोचा । परन्तु उसने सरक्षरण - सगोपन के साथ सवर्द्धन (वढाना ) भी सोचा । यह सोचकर उसने अपने पीहर वालो को बुलाकर कहा - 'इन पाँचो गालि के बीजो का सरक्षरण संगोपन करना और प्रतिवर्ष वर्षा ऋतु मे इन्हे वो कर इनकी वृद्धि करते रहना ।' इस प्रकार चौथी ने भी अपने नाम के अर्थ के अनुसार किया ।
पहली
पीहरवालो ने रोहिरणी की बात स्वीकार कर ली । प्रथम वर्ष की वर्षा ऋतु मे उन्होने उन पाँचो शालियो के लिए एक स्वतन्त्र छोटा-सा क्यारा बनाकर उन्हे वो दिये। बार मे ही वे पाँच शालि सैकडो शालि वन गये । पक जाने पर उन्हें काटकर हाथ से मलकर फिर साफ किया । फिर उन्हे घडे मे डालकर और उन पर छाप आदि लगाकर उन्हे सुरक्षित कर दिया गया ।
दूसरी वर्षा मे उन्हे वोने पर वे इतने बन गये कि उन्हे पैरो से मल कर साफ करना पड़ा | तीसरी वर्षा मे वे कई घडे जितने और चौथी वर्षा मे वे कई सैकडो घडे जितने बन
गये ।
पाँचवाँ वर्ष
धन्ना सार्थवाह को पाँचवे वर्ष की एक पिछली रात्रि मे विचार आया- 'अब देखना चाहिए कि, उन शालियो का किस
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कथा-विभाग- ६ छोटी बहू रोहिणी [ २६६ बह ने क्या किया। किसने उनकी रक्षा की ? किसने उनको गुप्त रक्खा ? किसने उनकी वृद्धि की ?'
दूसरे दिन उन्होने पहले के समान सबको इकट्ठे करके भोजन जिमाकर विश्राम के समय सब के सामने बडी बहू
उज्झिता को बुलाकर कहा-'वेटी | पिछले पाँचवे वर्ष में मैंने __ जो तुम्हे पाँच शालि दिये थे, वे मुझे लाकर दो।'
१ तब उस बडी बहू ने कोठार मे से पाँच बीज निकाल कर उन्हे ससुर को लाकर दिये। तब धन्ना ने शपथ दिलाकर उसे पूछा-'बेटी । सच-सच बता, क्या ये वे ही बोज है, जिन्हे मैंने पाँचवे वर्ष तुम्हे दिये थे ?' तब उसने सब बात सच-सच कह दी। बीजो के फेकने की बात सुनकर धन्ना को बहुत क्रोध पाया। उन्होने सबके सामने उस उमिता को घर की दासी का काम सौप दिया। इससे उज्झिता को बहुत पश्चात्ताप हुआ।
२. दूसरी बहू भोगवती की भी यही स्थिति हुई। पर उसने बीज फेंके नहीं थे, परन्तु खाकर काम मे ही लिये थे। इसलिए धन्ना ने भोगवती को दासी न बनाकर रसोईन का काम सौंपा।
३. तीसरी बह रक्षिता से बीज मागने पर उसने अपनी आभूषणो की पेटी मे रक्खे हुए रक्षित व गुप्त पाँच शालि लाकर दिये। धन्ना द्वारा शपथपूर्वक सच-सच बात पूछने पर रक्षिता ने 'ससुर द्वारा शालि मिलने पर उसे क्या विचार हुए ? तथा उसने किस प्रकार उनका सरक्षण सगोपन किया'- ये सारी बाते ससुर को बताई और कहा - 'पिताजी | इसलिए ये बीज वे ही है, जो आपने मुझे दिये थे।'
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२७० ] जैन मुबोध पाठमाला-भाग १
धन्ना यह सब सुनकर रक्षिता पर प्रसन्न हुए। रक्षिता मे सरक्षण और संगोपन की योग्यता देखकर उन्होंने उसको घर की स्वामिनी बना दी।
रोहिरणी का उत्तर ४ सबसे छोटी वह रोहिणी से वीज मागने पर उसने कहा-'पिताजी आप मुझे गाडियाँ दीजिए ताकि, मैं आपके पाँच गालि आपको लौटा सकू।' धन्ना ने पूछा-'बेटी | पाँच वीज लौटाने के लिए गाडियो की क्या आवश्यक्ता है ? तब रोहिणी ने 'वे पाँच गालि गाडियो-जितने कैसे बने ?' इसकी कहानी सुनाई। यह सुनकर धन्ना ने उसे गाडिया दी। रोहिणी उन गाडियो को लेकर पीहर गई और जो पांच गालि सैकडो घडे जितने बन गए थे, उनको उन गाडियो मे भरा। गाडियाँ भरकर वह उन्हे समुराल लाई और लाकर ससुर को दे दिए। धन्ना यह देवकर वहुत प्रसन्न हुए। उन्होने रोहिणी मे सरक्षण-सगोपन के साथ सवर्द्धन की भी योग्यता देखकर उसे घर की सचालिका बना दी।
___ यह देखकर वहाँ पर बैठे हुए सभी परिवार, जाति, मित्र आदि लोग रोहिणी पर प्रसन्न हुए और उन्होने उसकी बुद्धि की प्रशसा की तथा सार्थवाह की भी प्रशमा की कि-'धन्ना सार्थवाह बडे ही चतुर हैं, जिन्होने अपनी वहुयो की परीक्षा करके उन्हे उनकी योग्यता के अनुसार काम सौंप दिया।'
'जव नगर मे यह बात फैली, तो नगरवासियो ने भी रोहिणी और धन्ना सार्थवाह की प्रशसा की। धन्ना भी बहुप्रो को योग्यतानुसार काम सौपकर निश्चिन्त हो गए।
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कथा-विभाग-६ छोटी बहू रोहिणी
[२७१
शिक्षा
बालको | आप कैसे बनना चाहते हो ? उज्झिता के समान ? नही, नही। यह जो ज्ञान पा रहे हो, वह कही फेक न देना, भूल न जाना या आधा स्मरण रक्खा, आधा विसर गए- ऐसा भी मत करना। अथवा जो व्रत धारण करो, उन्हे छोड न देना या उनमे दोष भो मत लगाना । क्योकि जो ऐसा करता है, वह निन्दनीय बनता है। इसलिए चाहे ज्ञान हो या चाहे व्रत, उन्हे स्थिर रखना।।
बालको। ज्ञान या व्रत को लज्जा से या भय से भोगवती के समान टिकाना भी कुछ प्रशसनीय नही है या इच्छा के साथ भी टिकाया, पर केवल सासारिक (लौकिक) सुख के लिए टिकाया, तो भी प्रशसनीय नही है। धार्मिक ज्ञान या धार्मिक व्रतो का उद्देश्य लौकिक नहीं है, किन्तु उनका उद्देश्य मोक्ष प्राप्त करना है।
तो क्या आप तीसरी बह रक्षिता के समान बनोगे ? हॉ, उसके समान बनना अच्छा है। ऐसा पुरुष धन्यवाद व प्रशसा का पात्र बनता है। जो सीखा, वह स्मरण रक्खा, जो व्रत लिया, वह निभाया। पर आप उद्यम करो और चौथी बहू रोहिणी के समान बनो।
जब चौथो बहू ने पाँच गालि गाडियो से लौटाये, तब तीसरी बह को कितना पश्चात्ताप हा होगा ? 'अरे । मैं भी यदि इसके समान शालि की वृद्धि करती, तो मैं सचालिका बनती !' यदि आप मे योग्यता है, तो आप तीसरी बहू के समान रहकर खेद का अवसर मत आने देना। जो ज्ञान सीखा, वह दूसरो को सिखाना और जो व्रत स्वय ने धारण किये हैं, वे दूसरो को
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२७२ ] जैन सुबोध पाठमाला--भाग १ भी धराना, जिससे आपका व दूसरो का भी जीवन मगलमय बने। ॥ इति ६. छोटी बहू : रोहिणी की कथा समाप्त ॥
-श्री नाता पर्मफ्थाग सूत्र, अध्ययन ७ के प्राधार से।
शिक्षाएं १ वडो के द्वारा दी गई वस्तु छोटी न समझो । २. प्राप्त वस्तु का सरक्षरण, मगोपन और मवर्धन करो। ३. ऐसा करने वाला उन्नति प्राप्त करता है। ८. फल पाने मे घोरज रक्खी ।
प्रश्न
१ रोहिणी प्रादि नाम के अर्थ बतायो । २. रोहिणी सबसे अच्छी बहूँ क्यो कहलाई ? ३ रोहिणी प्रादि को क्या क्या कार्य सौंपे गये ? ४ धन्ना ने सब के सामने परीक्षा क्यो को ? ५. आपको रोहिणी से क्या शिक्षाएँ मिलती हैं ?
कथा-विभाग समाप्त
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काव्य-विभाग
१. श्री पंचपरमेष्ठि-स्तवन [ तर्ज : काहे मचावे शोर, पपोहा ! ] एक सौ आठ चार, परमेष्ठि ' करते हैं नमस्कार ||२|| अरिहन्त कर्म शत्रु विजेता, त्रिजग- पूजित तीर्थप्रणेता, न राग-द्वेष विकार ।। परमेष्ठि । १ । करते हैं सिद्धों के सब कर्म खपे हैं, सारे कारज सिद्ध हुए है । ज्योति मे ज्योति पार || परमेष्ठि । २१ करते है आचार्य आचार पलाते, संघ शिरोमणि सघ दिपाते । सकल संघ रखवार 11 परमे ष्ठ | ३१ करते हैं उपाध्याय अध्ययन कराते, भ्रांति मिटाते ज्ञान बढाते । .. द्वादशांग आधार ॥ परमेष्ठि 1 ४ 1 करते हैं साधु आतमा अपनी साधे, महाव्रत समिति गुप्ति श्राराधे । त्याग दिया ससार ॥ परमेष्ठि । ५ । करते हैं पाँच नमन सव पाप-प्रणाशक, उत्तम मंगल- विघ्न विनाशक । भव भव शांति अपार || परमेष्ठि | ६ | करते है .. हम मे भी तुमसे गुरण जागे, हम भी परमेष्ठि पद पावे 1 "पारस" हों भव पार || परमेष्ठि | ७ | करते हैं
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- नमस्कार महामन्त्र के भावों पर ३
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२७४ 1
जन सुबोध पाठमाला-भाग १
२. श्री चौबीसी-स्तवन
[ तर्ज देख तेरे संसार की हालत .. ..] जय जिनवर ! जय तीर्थंकर ! जय चौवीसी भगवान् ।
साधु-श्रावक करें प्रणाम २ । आप तिरे, औरों को तारे, भरत क्षेत्र भगवान् ।
साधु-श्रावक कर प्रणाम २ ॥टेर ।। १ ऋषभदेव का कीर्तन करते, २. अजितनाथ को वन्दन करते। ३. सभवनाथ का नाम सुमरते, ४ अभिनन्दन को चित्त मे घरते ।। ५ जय सुमति, ६. जय पद्मप्रभ, जय चौवीसी भगवान् ||१||साधु ७ सुपार्श्वनाथ का कीर्तन करते, ८, चन्द्रप्रभ को वन्दन करते। है सुविधिनाथ का नाम सुमरते, १०, शोतलप्रभु को चित्त में धरते ।। ११. जय श्रेयांस, जय वासुपूज्य, १२. जय चौबीसी भगवान् ।।शासाधु १३.विमलनाथ का कीर्तन करते, १४. अनन्तनाथ को वंदन करते। १५ धर्मनाथ का नाम सुमरते, १६. गातिनाथ को चित्त मे धरते ।। १७ जय कुन्थु, १८. जय अरनाथ, जय चौबीसी भगवान् ।।३॥साधु १६ मल्लिनाथ का कीर्तन करते, २०. मुनिसुव्रत को वन्दन करते। २१ नमिनाथ का नाम सुमरते, २२ अरिष्टनेमि चित्त मे धरते ।। २३ जय पारस, २४ जय महावीर, जय चौवीसी भगवान् ।।४।।साधु अनन्त सिद्ध का कीर्तन करते, विहरमान को वन्दन करते। गणधर प्रभु का नाम सुमरते, गुरुदेव को चित्त मे धरते ।। केवल गिण्य विनय करता, जय चौबीसी भगवान् ॥५॥साधु
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[ २७५
काव्य-विभाग-प्रर्हन स्तव
इ. तीर्थंकर स्तव [ तर्ज . घर माया मेरा परदेशी
]
जिनवर ! जग उद्योत करो, भवसागर से पार करो ॥ध्रुवा। ऋषभादिक महावीर सभी, चौबीसी विसरूँ न कभी। मम मुख गुण गण नित उचरो ॥१॥ भवसागर से . तुम हो कर्म अरि जयकर, तुम गम्भीर ज्यो सागर वर। मिथ्या मल मम दूर हो ॥२॥ भवसागर से....... तुमने रजमल धो डाला, जरा मरण का दुख टाला । मुझ पर भाव प्रसन्न धरो ॥३॥ भवसागर से तीनों लोक करे सुमिरन, स्तवन सदा और नित्य नमन । मुझ मे बोधि लाभ भरो ॥४॥ भवसागर से ... तुम चद्रो से भो निर्मल, तुम सूर्यों से भी उज्ज्वल । "पारस' सिद्धि शीघ्र वरो ।।५।। भवसागर से
___-लोगस्स के भावो पर ।
४. अर्हन स्तव [ तर्ज • जन गण मन अधिनायक ] हे अर्हन् । हे भगवन् जय हे । शासन आदि विधाता ॥ध्रुव।। धार्मिक तीरथ चार वत्ताये, बोध स्वयं ही पाये। सब पुरुणे मे उत्तम सिह वरपुण्डरीक पद पाये। गधहस्ति मदवारे, लोकोत्तम रखवारे, हित प्रदीप प्रद्योता। हे अभयद ! हे नयनद ! जय हे | शासन आदि, विधाता। जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे, गासन प्रादि-विधाता ।।
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२७६ ] जैन मुवोध पाठमाला-भाग १
मार्ग दिखाया मोक्ष वताया, सयम विधि सिखलाई।
धर्म बताया, अर्थ सुनाया, आगे कूच कराई। धर्म सारथी भारी, धर्म चक्रकरधारी, ज्ञान न कही रुक पाता। हे अछन । हे जिनवर ! जय हे ! शासन आदि विधाता। जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे,शासन आदि विधाता।।
जयी बनाये, समुद तिराये, वुध दे मुक्त बनाये। तीर्णं स्वय भी, वुद्ध स्वय भी, मुक्ति स्वय भी पाये। तुम सब जाननहारे,तुम सब देखनहारे,शिव थिर अरुज अनता। हे अक्षय | हे सुखमय | जय हे ! शासन आदि विधाता। जय हे, जय हे, जय हे, जय जय जय जय हे,शासन आदि विधाता।।
जन्म नही, अवतार नही, अपुनरावृत्ति पाई। सिद्धि नाम है प्रकट विश्व मे, वह पचम गति पाई। बोधि बीज दाता रे, द्वीप बचावनहारे 'पारस' शरण प्रदाता। हे जित अरि हे जितभय ! जय हे | शासन आदि विधाता। जय हे,जय है,जय हे, जय जय जय जय हे,शासन आदि विधाता ।।
-'नमोत्युरणं' के भावों पर।
५. महावीर नमन [ तर्ज-सुनो सुनो ए दुनियांवालो ! बापू .. ] नमन श्रमण भगवान् ज्ञात-सुत, महावीर स्वामी को। त्रिशला जननी सिद्ध जनक, देवाधि देव नामी को ।।टेर।। जिनके जन्म समय मे नारक, भी अपना दुख भूले ! दिव्य सौख्य तज सब सुरपति भी, धर्म भाव मे झूले!। जन्म पूर्व ही वृद्धि कारक, 'वर्धमान' नामी को नमन....११
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काव्य-विभाग-गुरु वन्दनादि । २७७ जग ममता तज कर्म क्षय हित, जिनने सयम धारा । तोड दिये घनघाति बन्धन, दीर्घ उग्रतप द्वारा ।। हुए स्वय सम्बुद्ध केवली, अत 'श्रमण' नामी को ।। नमन ...।२। नव तत्व पड्द्रव्य आदि, त्रिविध श्रुत धर्म प्ररूपा । अनगार व आगार द्विविध यो चारित्र धर्मनिरूपा ।। करी चतुर्विध सघ प्रतिष्ठा, जैन संघ स्वामी को ।। नमन ..।३। द्वितीय देशना मे ही लखकर अतिशय अपरपारा । गौतमादि ने शीश झुका, सर्वज्ञ तुम्हे स्वीकारा ।। हुए सभी ग्यारह ही गणधर, भविजन अभिरामी को।।नमन ।४। वैदिक बौद्धादिक धर्मों का मिथ्यापन समझाया | जैनधर्म ही सत्य अनुत्तर, अद्वितीय वतलाया ।। गौशालक से सहे परीषह, धन्य क्षमाधामी को ।। नमन...१५॥ धन्ना जैसे श्रमण तुम्हारे, श्रमणी चन्दनबाला । शख पुष्कली से श्रावक, श्राविका जयन्तिबाला ।। श्रेरिणक रेवति लाखो ने ही, धारा शुभकामी को ।। नमन .. १६। दीपावलि को दीप अलौकिक, तुम लोकाग्र पंधारे । ' अब आगम ही है अवलम्बन, भवदधि तारन हारे !! ' 'पारस' मन वच तन से चाहे, मिलं मोक्ष गामी को नमन ::।७।
. . ६.गुरु चन्दनादि . . __ . - [ तर्ज-घर पाया मेरा परदेशी.....] गुरुवर । वन्दन अनुमति दो, चरण कमल मे आश्रय दो ॥ध्रुव पाप क्रियाएँ तजे आये, सचित द्रव्य भी तज आये। यथाशक्ति विधि वन्दनें लो ।। चरण कमल मे ..... ||१]
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२७८ ]
जैन सुबोध पाठमाला
मस्तक चरणो मे धरते, दोनो हाथो से छूते ।
मे
॥२॥
कष्ट हुआ हो क्षमा करो ।। चरण कमल ग्रहो रात्र क्या शुभ वीता ? सयम मे न रही सुख शांता का उत्तर दो || चरण कमल जो अपराध हुए हमसे दूर हरे मनव च निष्फल ग्राशातना करो || चरण कमल
}
- भाग १
-~
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•
वाघा
मे .. 11311
•
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तन से |
मे ॥४॥
७ वीर व उनके शिष्यों की स्मृति
.. [ तर्ज कभी सुख हैं कभी दुख है ]
?
घिरे
मन बच तन के योग बुरे, हम कषाय से झूठ दिखावा मिथ्या हो ॥ चरण कमल हम हैं भूलो के सागर पर हैं ग्राप क्षमासागर | "पारस" का उद्धार करो || चरण
हुए । मे ॥५॥
'
कमल मे ||६|| - 'इच्छामि खमासमरणों' के भावों पर ।
साधु
जिनेश्वर वीर और उनके, शिप्य ग्रव याद आते हैं । - हरप करते भजन गाते, वडो को सर झुकाते है ||र || जिनेश्वर उसा कौशिक अंगूठे मे, वहाई दूध की धारा । क्षमा का वोध दे तारा, प्रभु वे याद आते है ||१|| : गये ग्रानन्द श्रावक घर, भूल तत्क्षण क्षमाने को । जो चौदह-पूर्वी होकर भी, वे 'गौतम' याद आते है ||२|| साध्वी • पिता बिछुडे मिधाई माँ विको श्रीर भोयरे डाली । न फिर भी धैर्य त्यागा, वे 'चन्दना' याद ग्राती हैं ||३|| श्रावक : देव मिथ्यात्वधारी के, कठिन परिषह सहे तीनो । तथापि व्रत न खाखा, वे 'कामदेव' याद आते है ॥४ ॥
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काव्य-विभाग-जैन धर्म के १४ गुण [ २७६ श्राविका ' जो स्त्री जाति होकर भी, विलक्षण प्रश्न करती थी।
ज्ञान-चर्चा की रसिका वे, 'जयन्ती' याद आती है ।।५॥ कहे 'केवल' अरे 'पारस' बना अपना जीवन इन-सा। यही है सार सुनने का, कि हम भी याद बनते हैं ।।६।।
८. जैन धर्म के १४ गुण जय वीर धर्म की बोलो, जय जैन धर्म की बोलो टेर।। १. जैन धर्म ही सत्य पूर्व पर, २. धर्म न इससे कोई बढकर ।
__ श्रद्धा सुदृढ कर लो, जय जैन धर्म की बोलो ।।१।। ३ अरिहन्तो ने इसे बताया, अद्वितीय सव मे कहलाया।
पूरी प्रीति जमा लो, जय जैन धर्म की बोलो । २॥ ४ जैन धर्म मे कमी न कुछ है, ५ स्याद्वाद सिद्धात सहित है।
___ गहरी रुचि बना लो, जय जैन धर्म की बोलो ।।३।। ६ है शत-प्रतिशत शुद्धि वाला, ७ तीनो शल्य मिटाने वाला।
शीघ्र फरसना कर लो, जय जैन धर्म की बोलो ॥४|| ८ अविचल सिद्धि देने वाला, ६ आठो कर्म खपाने वाला।
मन वच तन से पालो, जय जैन धर्म की बोलो ।।५।। १० यही मोक्ष तक पहुँचायेगा, ११ सच्ची गान्ति दिखलायेगा। .
' इसके पीछे हो लो, जय जैन धर्म को बोलो ।।६।। १२ इसमे विकृति कभी न पाती, १३ इसकी सधि टूट न पाती। 'पारस' १४ सब दु.ख टालो, जय जैन धम की बोलो ||७||
-~ोपपातिक, देशनाधिकार के भावो पर ।
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२८० ] जैन मुबोध पाठमाला-भाग १
१. पालो हद आचार
[ तर्ज: वो दिन धन होसी ] पालो दृढ याचार, जैनो सब मिलकर ।। ध्रुव ।। प्रात काल सदा उठ जाओ, पहले धर्म मे चित्त लगायो।
बालम दूर निवार ॥१॥ जैनो सव ... सतो को पचाग नमानो, देव धर्म को मन मे ध्याओ।
जपो मन्त्र नवकार ।।२।। जैनो सव ... सामायिक का लाभ उठावो, प्रभु प्रार्थना विधि से गायो।
करो मधुर उच्चार ||३॥ जैनो सब ... नित नियम चौदह चितारो, व्रत पच्चखाए नया कुछ धारो।
रोको आश्रव हार ॥४॥ जैनो सब.... करो मनोरथ-त्रय का चिन्तन, अरु विश्राम चार का सुमिरन ।
भावो भावना वार ।।५।। जैनो सव ... सुनो सदा मुनियो का भापरण, पूछो प्रश्न करो हल धारण ।
_सीखो जान अपार ||६|| जनो सव ... छाने विना न पानी पियो, अगुद्धं भोगन कभी न खायो।
पालो नित निविहार ||७|| जैनो सब अष्टम पाक्षिक पीपध धागे, प्रतिक्रमण कर दोष निवागे।
प्रायश्चित लो धार |८॥ जैनो सव . सोते समय कगे मगारा, आयुष्य का रखो यागारा ।
उठने पर लो पार ।।8।। जैनो सब . 'महा-मन्त्र' का कभी न भूलो, हर कामो मे पहले बोलो।।
ययवा 'लोगन्स' चार ।।१०।। जैनो सव .. जैन धर्म पर रकवी श्रद्धा, कगे न झूठी पग्मत निन्दा ।
रहो मदा हगियार ||११|| जैनो सव .
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__ काव्य-विभाग-स्थानकजी मे जाएँ । २८१ रहो परस्पर हिलमिल जुलकर, कलक निन्दा चुगली तजकर ।
करो सघ जयकार ॥१२॥ जैनो सब.... जो जिन धर्म लजावे कोई, उनको साथ न देना कोई ।
कर दो बहिष्कार ॥१३॥ जैनो सब ... सात व्यसन को दूर निवारो, बारह श्रावक व्रत स्वीकारो।
__ लो इक्कीस गुण धार ॥१४॥ जैनो सब .. जोवन जोयो ऐसा सुन्दर, लगे सभी को प्यारा सुखकर ।
'पारस' करे पुकार ।।१५।। जैनो सब
स्थानकजी में जाएँ
[ तर्ज • सुबह और शाम की ] बहिन . प्रायो, भया । प्राओ देरी न लगायो,
__स्थानकजी मे जाएँ ।टे। भाई . प्रायो, बहिन । आओ, देरी न लगायो,
स्थानकजी मे जाएँ ।टेर। व० मुनिराजो के होगे दर्शन, मगलिक हमे सुनाएँगे। कुछ-कुछ ज्ञान नया सीखेंगे, पच्चखागो को धारेंगे।
उत्तरासग ले आओ, या मुंहपत्ति ले आयो । स्थानकजी । भा० विनय बढेगा मन वच तन मे, श्रद्धा दृढ हो जाएगी।
आँख ज्ञान की खुल जाएगो, पाप क्रिया छूट जाएगी।
आसन लेकर आओ, पूंजणी लेकर आओ । स्थानकजी १२। व० मिलेगे ज्ञानी श्रावकजी भी, सामायिक सिखलायेंगे।
प्रतिक्रमण पच्चीस बोल, नवतत्वादिक रटवायेगे । माला लेकर आओ, पोथो लेकर प्रायो । स्थानकजी ।।
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२८२ ] जन सुबोध पाठमाला-भाग १ भा० मीठी मीठी अच्छी अच्छी, धर्म कथा सुन पाएँगे।
जीवन अपना उठेगा ऊँचा, हम महान बन जाएंगे।
झटपट झटपट आयो, जल्दी जल्दी आयो । स्थानकजी ।४। ब० मुनि बनेगे एवन्ता से, महासति चन्दनबाला ।
या फिर आनन्द कामदेव से, चेल्लना जयन्तीवाला ॥
सतुष्ट हो पायो, हर्षित होकर पायो । स्थानकजी ॥५॥ दोनो.-भाई बहन वे भी जाते है, हम भी सग हो जाएँ। __ सब मिलकर हम जैन धर्म की, ध्वजा सदा फहराएं।
खेल छोडकर आओ, कूद छोडकर आयो । स्थानकजी ।। . दोनो केवल पत्थर नही रहेगे, 'पारस' हम बन जायेंगे।
बालक भी मिल पाली का चौमासा सफल बनायेंगे ।। (ज्ञान क्रिया का आराधन कर सच्चे जैन कहायेगे।।) आओ सहेली आओ, आओ साथी अायो । स्थानकजी ७।
सामायिक कीजिय
[ तर्ज : दिल लूटने वाले जादूगर ..... ] यदि आत्मोन्नति अभिलाषा हो, तो सामायिक आराधन हो । टेर।। यदि देह बढे परिवार बढे, धन धान्य बढे सुख भोग वढे । इनसे ससारोन्नति होती, पर आत्मा का उत्थान न हो ||१| ससार स्वर्ग-सा देख चुके, साक्षात् स्वर्ग भी भोग चुके । अब अमर मोक्ष सुख पाना हो तो, धर्म प्रति आकर्षण हो ।।२।। सव लोक मे धर्म ही ऐसा है, जो आत्मोन्नति कर सकता है। यदि साधु धर्म सामर्थ्य नही, तो. गृहस्थ धर्म अनुपालन हो ॥३॥ श्रावक के कुल वारह व्रत हैं, उनमे सामायिक नववाँ है। यदि पूरे वारह बन न सके, तो नववाँ व्रत ही धारण हो ॥४॥
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काव्य - विभाग - बारह भावना
[ २८३
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हिसादिक पाप अठारह है, सावद्य योग कहलाते है । सावद्य योग तज सवर धर शुभ योगो का सचालन हो ॥५॥ हिसा असत्य चोरी मैथुन, अरु परिग्रह ये दुर्गत कारण । यदि जीवन भर छोड न पान तो, एक घडी भी वारण हो ||६|| पाप' न करना, 'न कराना है, मन जो करें, न उनका 'वचनो से, या प्रात. सध्या सामायिक हो, व्याख्यान मे भी सामायिक हो । कम से कम एक मुहूर्त समय, का, नियम सदा ही धारण हो ||८|| कुछ ज्ञान बढे, श्रद्धान बढे, चारित्र बढे तप 'वीर्य बढे । स्वाध्याय प्रमुख तब ऐसी करो, जिससे सामायिक पावन हो || ६ || सामायिक 'सबका भय हरती, सबके प्रति अनुकम्पा भरती ।
वच काया शुद्ध रखना है । काया से अनुमोदन हो ||७||
उनतीस शेष घडियो मे भी, अति तीव्र भाव से पाप न हो ॥१०॥
वे धन्य धन्य मुनि महासती है, जो यावज्जीवन दीक्षित है । यदि आजीवन दीक्षा न बने तो, एक घडी साधुपन हो ||११||
'केवल' कहते 'पारस' सुन रे, सब मे सामायिक रस भर रे । जिससे सब गुरण की रक्षक, इस, सामायिक का सरक्षरण हो ||१२||
तोन मनोरथ
दोहा
१ आरम्भ परिग्रह अल्प हो,
२ महाव्रत हो स्वीकार ।
३ सथारा हो अन्त मे तीन मनोरथ सार ॥१॥
1
बारह भावना
१ तन धन कोई नित्य नहीं है, २ दुख मे देव भी शररण नहीं है । ३ यह संसार चक्र है भारी, ४ यहाँ अकेले सब नर नारी ॥
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२८४ ] जन सुवाष पाठमाला-भाग १ ५ देह भी अपना नहीं है जग मे, ६ तथा अशुचि ही भरी है इसमे। ७ पाश्रव सवको सदा रुलाता, ८ संवर उस पर रोक लगाता ।। ह एक निर्जरा से ही सुख है, १० और लोक मे कहीं न सुख है। ११ अति दुर्लभ सम्यक्त्व रत्न है, १२ जहाँ अहिसा वही धर्म है ।। 'केवल' कहते 'पारस' सुन रे, सदा भावना वारह भा रे। भरतादिक ने इनको भाई, भा कर गीघ्र ही मुक्ति पाई ।।
चार भावना १ सब जीवो से रखू मित्रता, २ दृष्टो की मैं करूँ उपेक्षा । ३ दुखियो के प्रति अनुकपा हो, ४ अधिक गुणी मे हर्प सदा हो ।
अट्ठारह पाप-त्याग १ कभी न प्राणी हिसा करना, २ कभी न भूठी वाते कहना। ३ नही किमी की वस्तु अंगना, ४ कभी न गाली गुप्ता करना। ५ इच्छायो को नही बढाना, ६ कभी न आँखे लाल वनाना। ७ नही किसी मे अकडे रहना, ८ कभी न मन मे जाल बिछाना। ६ कभी किसी का लोभ न करना, १० राग मोह मे कभी न पड़ना। ११ नही किसी से वैर वसाना, १२ नही लडाई झगडा करना। १३ झूठ कलक न कभी चढाना, १४ नही वैरी को चुगली खाना । १५ निता से बचते ही रहना, १६ विषयो मे रति अरति न करना। १७ माया रखकर भूठ न कहना, १८ झूठे मत मे कभी न पडना । 'केवल' कहते 'पारस' सुनना, यो तूं पाप अठारह तजना। पिछोड़ निष्पापी बनना, यदि तूं चाहता दु ख न पाना ।।
काव्य विभाग समाप्त
जैन सुवोध पोठमाला-भाग १ समाप्त
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________________ मुद्रागत भावनाएं 1. है वीर ! मैसे स्वस्तिक पौद्गलिक-मंगलों में श्रेष्ठ है, वैसे ही प्राप मात्मिक मंगलो मे श्रेष्ठ हैं। प्रतः हम अापकी शरण से 'प्रात्म-मंगल' प्राप्त करें। 2. हे वीर! जैसे सूर्य पौद्गलिक प्रकाशकों में श्रेष्ठ है, वैसे ही आप प्रात्म-ज्ञान-प्रकाशकों मे श्रेष्ठ हैं। प्रत हम अापकी शरण से 'प्रात्म-प्रकाश प्राप्त करें। 3. हे वीर ! जैसे सूर्य की किरणे अगणित वस्तुओं को प्रकाशित करती हैं, वैसे ही आपकी द्वादशागी वाणी अनत भावों को प्रकाशित करती है। अतः हम अापके अर्थागम को समझे। 4. हे वीर ! प्रापके उस विशाल अर्थागम को प्रार्य सुधर्मा ने थोडे मे प्रथित कर शन्दागम (ग्रथ) बनाया; अतः हम उस शब्दागम को कठस्थ करें। 5. हे वीर! उन अर्थागम और शब्दागम से प्राचार्य स्वयं ज्योतिमान दीप बनते हैं और शिष्यों को भी ज्योतिमान दीप बनाते हैं। प्रत हम प्राचार्य के शिष्य बनें। 6. हे वीर ! हम प्रापकी वाणी के कुभ वत् पूर्ण पात्र बनें / 7. हे वीर ! प्रापको दूध समान वागी मे कोई अन्य जल समान वारणी मिलाकर दे, तो हम वहां हस-वत् विवेकी बनें। 8. हे वीर ! प्रापको वाणी से वैराग्य प्राप्त कर हम कामभोग के / कीच से कमल-वत् ऊपर उठे। 6 हे वीर ! ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य के पांचों प्राचार हममे कमल को विकसित पाँच पखुरिमो के समान विकसित बनें।