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१२८ ] जैन सुवोध पाठमाला भाग १ (ग) योग सत्य, १८-१६, क्षमा वैराग्य २०-२२ तीन समाहरणता --(क) मन समाहरणता, (ख) वचन समाहरणता, (ग) काय समाहरणता, २३-२५ तीन सम्पन्नता --(क) ज्ञान सम्पन्नता, (ख) दर्शन सम्पन्नता, (ग) चारित्र सम्पन्नता, २६-२७ दो सहनता-(क) वेदना सहनता, (ख) मारणातिक (उपसर्ग) सहनता।
२ मिथ्यादृष्टि : अरिहन्त को सुदेव, निर्ग्रन्थ को सुगुरु तथा जैन धर्म को सुधर्म न मानना २. न मानने वाला। अरिहन्त प्ररुपित शास्त्र के एक अक्षर पर भी अरुचि रखना, २ अरुचि रखने वाला। सदोषी सरागी को सुदेव, सग्रन्थ को सुगुरु तथा कुधर्म को सुधर्म मानना, २. मानने वाला।
३. मिश्रष्टि : सुदेव-कुदेव, सुगुरु-कुगुरु, सुधर्म-कुधर्म सवको समान मानने वाला।
एकेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि, विकलेन्द्रिय सम्यग्दृष्टि व मिथ्याहष्टि तथा शेप जीव तीनो दृष्टि वाले होते है।
उन्नीसवाँ बोल : 'चार ध्यान'
ध्यान : एकाग्र शुभ मनोयोग तथा मन-वचन-काया का निरोध ।।
१. आर्त ध्यान • इट वस्तु के सयोग, अनिष्ट वस्तु के वियोग आदि का चिन्तन करना।
२. रौद्र ध्यान · १ हिसा, २. झूठ, ३. चोरी और परिग्रह के विषय मे बहुत दुष्ट चिन्तन करना।
३. धर्म ध्यान : १. भगवान की आज्ञा, २. राग-द्वेप के परिणाम, ३ कर्म के फल और ४ लोक की अमारता का चिन्तन करना।