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________________ तत्त्व विभाग-बाईसवाँ बोल · श्रावकजी के १२ व्रत [ १२६ ४. शुक्ल ध्यान • जीवादि के विषय मे बहत विशुद्ध चिन्तन करना, मेरु के समान काया को अडोल बनाना। आर्त-ध्यान पहले से छठे गुण-स्थान तक और रौद्र-ध्यान पहले से पाँचवे गुण स्थान तक होता है। धर्म-ध्यान चौथे से सातवें तक तथा शुक्ल ध्यान पाठवे से चौदहवे गुरण-स्थान तक होता है। बाईसवाँ बोल : 'श्रावकजी के १२ व्रत' द्रत : प्रत्याख्यान, नियम, मर्यादा । । १. पहला स्थूल प्रारणातिपात विरमरण व्रत : इसमें श्रावकजी निरपराध त्रस जोवो को मारने की बुद्धि से मारने का प्रत्याख्यान करते हैं। २. दूसरा स्थूल मृषावाद विरमण व्रत : इसमे श्रावकजी दुष्ट विचारों से कन्या, गौ, भूमि आदि बडी-बड़ी वस्तुप्रो के सम्बन्ध में झूठ बोलने का प्रत्याख्यान करते हैं। ३. तीसरा स्थूल अदत्तादान विरमरण व्रत : इसमें श्रावकजी दुष्ट विचारपूर्वक बड़ो-बड़ो वस्तुएँ चुराने का प्रत्याख्यान करते हैं। ४ चौथा स्थूल स्वदार सतोष परदार विवर्जन व्रत : इसमें श्रावकजी पर-स्त्री-सेवन का प्रत्याख्यान करते हैं और स्व-स्त्री की मर्यादा करते हैं। ५. स्थूल परिग्रह परिमारण व्रत : इसमें श्रावकजी १ भूमि, २ घर, ३ सोना, ४ चाँदी, ५ धन, ६ धान्य, ७ दोपद, ८ चौपद और ६ कुविय (सोना चांदो से भिन्न) धातु-इन नव बोलो का परिमारा करते हैं।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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