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जैन सुबोध पाठमाला - भाग १
गर्भ संहरण
जब देवानन्दा को गर्भ धारण किये ८२ बयासी दिन श्रीर ८२ रात्रियाँ बीत गयी - ८३वी रात्रि चल रही थी, तब को बात है । पहले देवलोक के 'श' नामक इन्द्र अपने अवधि ज्ञान से भरत क्षेत्र को देख रहे थे । उस समय उन्होंने भगवान् को देवानदा दाह्मणी के गर्भ मे आये हुए देखा। देखते ही पहले उन्होंने सिद्धो को नमोत्युरण दिया फिर भगवान् महावीर स्वामी को नमोत्थुरण देकर नमस्कार किया ।
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पीछे उन्हे विचार हुआ कि तीर्थकर यदि उत्तम पुरुष, शूद्र कुल में, अधम कुल मे, अल्प परिवार वाले कुल दरिद्र कुल मे, कृपरण (ग्रदातार) कुल मे, भिखारी कुल मे या ब्राह्मण श्रादि के कुल मे नही प्राते, परन्तु क्षत्रिय कुन मे हो प्राते है । कभी-कभी ग्रनन्तकाल मे कोई उत्तम पुरुष अपने पुराने कमाये हुए अशुभ नाम - गोत्र-कर्म क्षय न होने पर यदि शूद्रादि कुल में ग्रा भी जायँ, तो वे उस योनि से बाहर नही निकलते, प्रत. मेरा कर्त्तव्य है कि- मै 'गर्भ महरण' (परिवर्तन) करूँ ।
यह विचार कर उन्होने अपने हरिनेगसैपो नामक देव को आदेश दिया कि तुम देवानन्दा नामक वाह्मणी के गर्भ मे रहे हुए चरम (अन्तिम) तोर्थंकर भगवान् महावीर को क्षत्रियकुण्ड नगर के महाराजा सिद्धार्थ की महारानी त्रिशलादेवी के गर्भ मे पहुँचाओ और त्रिशलादेवी के गर्भ मे जो कन्या है, उसे देवानन्दा के गर्भ मे पहुँचाओ । हरिनेगमपी ने चक्र इन्द्र की ग्राज्ञा का पालन किया ।
त्रिशला की कुक्षि में थाने पर
जिस समय भगवान् का गर्भ सहरण हुआ, उस समय देवानन्दा को ऐसा स्वप्न ग्राया कि 'मेरे वे