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कथा-विभाग-१. भगवान महावीर
देवदूष्य का त्याग चातुर्मास पूर्ण हो जाने पर भगवान् ग्रामानुग्राम (एक गाँव से दूसरे गाँव) विचरने लगे। जब भगवान् दीक्षित हुए, तब इन्द्र ने उनके कन्चे पर एक 'देवदूष्य' नामक लाख स्वर्णमुद्रा मूल्य का वस्त्र रक्खा था। वह तीनो ऋतुओ के अनुकूल सुखदाई था। शीतकाल मे ऊष्ण, ऊष्णकाल मे शीत और वसत ऋतु मे शक्तिप्रद था, परन्तु भगवान् ने कभी उसका उपयोग नहीं किया। दीक्षा लिए जब एक वर्ष और एक महीना पूरा हुआ, तब वह भगवान् के कन्धे से अपने पाप गिर कर कॉटो मे जा पडा। भगवान ने उसे जीवादि रहित स्थान मे गिरा देख कर वोसिरा दिया। भगवान का वह देवदूष्य वस्त्र काँटो मे गिरा, यह इसका प्रदर्शक था कि भगवान् का भावी गासन बहुत कॉटो वाला होगा। अर्थात् १. उसमे बखेडा करने वाले बहुत होगे, २. शासन विभिन्न सप्रदायो मे बँट कर चालनी-सा बन जायेगा और ३ अच्छे साधुओ को सम्मान, वस्त्र, पात्र आदि दुर्लभ होगे।
चण्डकौशिक का उपसर्ग व उसको बोध
, एक समय भगवान् दक्षिणी 'वाचाल' से उत्तरी 'वाचाल' को सीधे मार्ग से जा रहे थे। मार्ग मे ग्वालो ने कहा-'आप इस सीधे मार्ग से न जाइये। इस मार्ग मे दृष्टिविष (जिसे भी क्रोध मे आकर देखे, उसी को विष चढ जाय-ऐसी विषभरी दृष्टिवाला) सर्प रहता है। आप उस दूसरे घुमाव वाले मार्ग से पधारे।' भगवान जान रहे थे कि वह सर्प बोध पाने वाला है, अतः वे उसी मार्ग से गये और उसके विल के निकट कायोत्सर्ग करके नडे हो गये।