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________________ २५६ 1 जैन सुवोध पाठमाला-भाग १ - भगवान द्वारा प्रशंसा 'चम्पानगरी' की बात है। भगवान महावीरस्वामी वहाँ विराज रहे थे। वहाँ 'अम्बड़' नामक एक श्रावक आया । वह विद्याधर (विद्यायो का जानकार) था। उसने भगवान् महावीरस्वामी की वाणी सुनकर उन्हें वदन-नमस्कार करक कहा-'भन्ते । आपके उपदेश सुनकर मेरा जन्म सफल हो गया। अब मैं राजगृह नगरी जा रहा हूँ।' 7. भगवान् ने कहा 'अम्बड | तुम जिस नगरी मे जा रहे हो, वहाँ सुलसा श्राविका रहती है। वह सम्यक्त्व में बहुत दृढ है।' अम्बड़ विद्याधर द्वारा परीक्षा अम्बड ने सोचा- 'भगवान्, जो कुछ कह रहे हैं, वह सत्य ही है, क्योकि वीतराग भगवान् किसी की असत्य प्रशसा नहीं करते। किन्तु मैं परीक्षा करके प्रत्यक्ष देखू तो सही कि 'वह सम्यक्त्व मे किस प्रकार दृढ है ?' राजगृह पहुँचकर विद्या के वल से उसने सन्यासी का रूप बनाया और सुलसा के घर जाकर कहा-'आयुष्मति ! (लम्बी आयुष्यवालो) मुझे भोजन दो। इससे तुम्हे धर्म होगा, मोक्ष की प्राप्ति होगी।' । सुलसा ने उत्तर दिया-'सन्यासीजी | अनूकपा के लिए मैं प्रत्येक को भोजन दे सकती हैं और लो आपको भी देती है, पर निर्दोष धर्म और मोक्ष तो जिन्हे देने से होता है, उन्हें ही देने से होगा, आपको देने से नही हो सकता। किन्हें देने से निर्दोष धर्म और मोक्ष होता है' ?...यह आपको बताने की आवश्यकता नहीं। क्योकि मैं उन्हे जानती हूँ। ता हूँ।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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