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कथा - विभाग - ७. श्री सुलसा श्राविका [ २५५
हाथों से दान नही हो सका । सन्त मेरे यहाँ कष्ट करके पधारे, परन्तु उन्हे श्रावश्यक वस्तु नही मिल सकी। जो इनके वृद्ध गुरु सन्त है, उनकी पीडा कैसे दूर होगी ? आह । वे मुनिराज कितना कष्ट पाते होगे? मुझ प्रभागिन ने ध्यानपूर्वक शीशियों नही उतारी। ऐसे समय मे मुझ से सावधानी क्यो नहीं रही ? धिक्कार है मुझे " यह सोचते-सोचते उसका मुँह कुम्हला गया। आँखे डबडबा आई ।
देवता यह सारा दृग्य देख रहा था । अवधि (ग्रज्ञान) से सुलसा के मन के विचार को भी देख रहा था । उसे प्रत्यक्ष हो गया कि, शक्रेन्द्र जो कह रहे थे, वह सर्वथा सत्य था । सचमुच यह सम्यक्त्व मे बहुत दृढ है । देवता ने सुलसा 'के सामने अपना वास्तविक रूप प्रकट किया और सुलसा से कहा'श्राविके । खेद न करो, यह तो मेरी देव - विकुर्व्वरणा ( देवमाया) थी, जो मैंने तुम्हारी सम्यक्त्व - दृढता की परीक्षा के लिए की थी । धन्य है । तुम्हे 'कि तुम ऐसी दृढ हो । जिस कारण इन्द्र भी तुम्हारी प्रशसा करते हैं ।'
पुत्र- प्राप्ति
'सुलसे । मैं तुम पर प्रसन्न हुआ । (मागो) जो तुम्हारी इच्छा हो, वही मागो । मैं उसकी पूर्ति करूंगा ।' सुलसा ने कहा - 'देव | मेरी तो यही इच्छा है कि मेरी सम्यक्त्व पर दृढता बनी रहे । मेरा सम्यक्त्व - रत्न सुरक्षित रहे । पर यदि श्राप कुछ देना चाहते हैं, तो मेरे पति को पुत्र की अभिलाषा है, वह आप पूरी करें ।'
देवता ने उसे पुत्र उत्पत्ति मे सहायक ३२ गोलियाँ दी और समय पडने पर 'मुझे स्मरण करना' - यह कहकर वह देवलोक मे लौट गया। समय से सुलसा को इच्छित पुत्र उत्पन्न हुए ।