________________
तत्त्व-विभाग-पांचवां बोल सम्यक्वत्व के पात्र लक्षण [ १३५
चौथा बोल : 'सम्यक्त्व को तीन शुद्धि'
शुद्धि : (जैसे आँख मे पीलिया, मोतिया-बिन्द आदि का न होना
दृष्टि की शुद्धि है, वैसे ही) सम्यक्त्वी की दृष्टि मे देव, गुरु व धर्म के सम्बन्ध मे अशुद्धि न होना सम्यक्त्व को शुद्धि है।
१. देव शुद्वि : चार कर्म या अट्ठारह दोष रहित तथा बारह गुण सहित अरिहत देव को ही सुदेव माने, अन्य देवो को सुदेव न माने। (वचन से अरिहत देव का हो गुण-ग्राम करे, कुदेवो का न करे, काया से अरिहत देव को ही नमस्कार करे, अन्य देवो को न करे।)
२ गुरु शुद्धि : पाँच महाव्रत, पॉच समिति, तीन गुप्ति के धारक अथवा २७ गुण धारक जैन-साधुप्रो को ही सुगुरु माने, अन्य साधुनो को सुगुरु न माने। (वचन से जन-साधुओ का ही गुण-ग्राम करे, कुगुरुयो का न कर। काया से जैन-साधुओ को ही नमस्कार करे, कुगुरुयो को न करे ।)
३. धर्म शुद्धि : केवली (अरिहन्त) प्ररुपित अहिंसामय स्याद्वाद सहित जन-धर्म को ही सुधर्म माने, अन्य धर्मो को सुधर्म न माने। (वचन से जेन-धर्म का ही गुरण-ग्राम करे, कुधर्मा को न करे। काया से जन-धर्म को ही नमस्कार करे, कुधर्मों को न करे।
-'अरिहंतो महदेवो' प्रतिक्रमण सूत्र से ।
पाँचवाँ बोल : 'सम्यक्त्व के पाँच लक्षण'
लक्षरण : (जैसे ऊष्णता से अग्नि की पहिचान होती है, वैसे ही)
जिस (असाधारण) अन्तरग गुण से सम्यक्त्व को