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पाठ १५ --विवेक यहाँ सुनते हुए कुछ स्मरण रह जाता है, तो मुझे प्रसन्नता नहीं, यदि कुछ स्मरण नहीं रहता, तो खेद नहीं। मैं प्रसन्नता और खेद को बुरा समझता हूँ। मैं परीक्षा भी इसीलिए नहीं देता। यदि उत्तीर्ण हो जाये, तो अभिमान होता है, यदि अनुत्तीर्ण हो जायँ, तो अपमान होता है। मैं मानापमान मे
पड़ना नहीं चाहता। अध्या० : तटस्थकुमार । तुम्हारी ये बातें ऐसी हैं कि 'मक्खी
न बैठे, इसलिए नाक ही कटवा लो।' परन्तु होना यह चाहिए कि नाक रक्खो, पर उस पर मक्खी बैठने न दो। प्रशसा जैसा कार्य करो, पर 'फूलो नही । उत्तीर्ण बनो, पर अभिमान करो नहीं। धार्मिक कार्यों में जो प्रसन्नता होती है, वह त्यागने योग्य नहीं है तथा ज्ञान का स्मरण न रहना आदि धार्मिक कार्य मे कमी पडने पर खेद होना ही चाहिए, तभी धर्म मे प्रगति होगी। एक बात यह भी तुम ध्यान रखना कि अपनी भूल को वड़ो, के सामने प्रकट कर देने मे ही लाभ है। मैंने विवरण-पत्र को देख लिया है, उसके अनुसार तुमने यहां से पुस्तक ली है और उसमे तुम्हारे हस्ताक्षर भी हैं। ज्ञात होता है कि उसे तुमने कही खो दी है। स्मरण रक्खो, वैद्य या दाई के सामने अपनी सच्ची स्थिति प्रकट कर देने वाला ही अन्त में सुखी बनता है। स्थिति प्रकट न करने वाला कुछ समय के लिए भले सुखी बन जाय, पर अन्त मे सुखी नहीं बन सकता। तुम सच्चे सुखी बनने जैसा काम करो।