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६२] जैन मुबोध पाठमाला--भाग १
आज आप नये अध्यापकजी आये हैं, अत प्रदर्शन के
लिए ले आया हूँ। श्रा० : उपकारनाथ | तुम्हे जैनशाला से पुस्तके इसलिए
नही दी जाती कि तुम उसे पाले में ले जाकर रख दो। पुस्तक पढने के लिए है। उनको पढने के काम मे लाना चाहिए। 'मेरी पुस्तक अच्छी रहे, इसलिए दूसरो की पुस्तको से काम चला लूं। यदि दूसरो की पुस्तक बिगडे, तो इससे मुझे क्या ?' ऐसी भावना अच्छी नहीं है। इस भावना से आपस मे मैत्री और एकता नहीं बढती। बहुत वार दूसरो की पुस्तको से काम चलाने से या तो दूसरो के अध्ययन मे वाधा पडती है या अपने स्वय के अध्ययन मे बाधा पडती है। अत. अपनी पुस्तक का उपयोग करना चाहिए। अपनी पुस्तक की रक्षा के लिए भी किसी दूसरे की वस्तु लेना चोरी है। यह अच्छे छात्र का लक्षण नही है। कभी किसी की चोरी न करो। '(तटस्थकुमार की ओर मुंह करके हाथ लम्बा करते हुए) अच्छा, तटस्थकुमार! तुम अपनी पुस्तक
बताओ। तटस्थ : श्रीमान्जी। मैं पुस्तक के झगडे मे नही पडता ।
यदि अच्छो रखो, तो प्रशसा होती है और यदि बुरी रखो, तो निन्दा होती है। मैं निन्दा-प्रशसा से दूर रहना चाहता हूँ, इसलिए मैंने यहाँ से पुस्तक ही नही ली।