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पाठ १५ - विवेक
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श्रध्या० : देखो. निर्दोष । अपना दोष होते हुए भी दोष न स्वीकारने से सुधार नही होता । बच्चे को खेलने के लिए खिलौना दिया जाता है, पुस्तक कोई खिलौना नही है | बच्चो को पुस्तक देने से पुस्तक फटने का भय रहता है, इसलिए उन्हे पुस्तक नही देनी चाहिए | तुमने घर के द्वार पर पुस्तक रखने की असावधानी क्यो की ? वहाँ तो कचरा इकट्ठा किया ही जाता है । सेवक को भले ध्यान न पहुँचा हो, पर तुम्हारा कर्त्तव्य था कि 'तुम अपनी पुस्तक को कही ऊँचे और सुरक्षित स्थान पर रखते ।' मिठाई देने वाले तुम्हारा उत्साह बढाने के लिए और तुम्हारे प्रति अपना प्रेम प्रकट करने के लिए मिठाई देते है, परन्तु तुम उल्टे उन्हे दोपी बना रहे हो ! मिठाई आदि खाते समय अपनी पुस्तक को एक ओर रखकर फिर मिठाई आदि को शान्ति से और धीरे खानी चाहिए, जिससे पुस्तक न बिगडे ।
( उपकारनाथ की ओर मुंह करके ) अच्छा, उपकारनाथ ! तुम अपनी पुस्तक बताओ । उपकार : ( अपनी पुस्तक श्रावकजी को देते हुए ) देखिये, श्रीमान् । मेरी पुस्तक नई सी है । मैंने किसी दूसरे की पुस्तक का अच्छा जाडा-सा पुट्ठा उतारकर इस पर चढा दिया है । मैं इसकी प्रारण से भी अधिक रक्षा करता हूँ । एक दिन भी इसे खोलकर नही पढता । इसे अपने घर के आले मे कपडे में लपेट कर रखा करता हूँ । प्रायः इसे जैनशाला मे भी नही लाता ।