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जैन सुवोध पाठमाला - भाग १ तटस्थकुमार! किसी की चुगली खाना भी एक पाप है। इससे आपस मे वैर-विरोध वढता है। अपने समान साथी की सव के सामने निन्दा करना और भी ठीक नहीं। सव से अच्छा यह है कि उसे एकान्त में चेता दो। यदि इससे वह न सुधरे, तो एकान्त में वडो से कह दो। (निर्दोपकुमार की ओर देख कर) अच्छा, अव निर्दोष । अपनी पुस्तक लायो। अब तक तुम्हारे
कितने पाठ हुए है ? निर्दोष : (श्रावकजी को पुस्तक देते हुए) अव तक चौदह
पाठ हुए हैं। श्रा० : (पुस्तक देखकर) निर्दोष ! देखो, पुस्तक की क्या
दशा हो गई है ? अव तक पुस्तक आधी भी नहीं हो पाई कि पन्ने फट गये है, इसके चारो ओर कितनी धूल लगी है। इसमे कई स्थानो पर तैल आदि के
कलङ्क (वब्वे) भी लग गये हैं। निर्दोष : श्रीमानजी! पुस्तक की ऐसी दशा वनने मे मेरा
कोई दोष नही है। एक बार मेरा छोटा भाई रो रहा था। मैंने उसे यह पुस्तक खेलने को दी, परन्तु उसने इसके पन्ने फाड़ डाले। एक बार मैंने यह पुस्तक घर के द्वार पर रखी, सेवक ने वही सारे घर का कचरा इकट्ठा कर दिया। एक बार यही जैनगाला मे हमे मिठाई खिलाई गई, उसके करण इस पुस्तक मे चिपक गये। वताइए, इसमे मैं दोषी हूँ या मेरा छोटा भाई, सेवक और हमे मिठाई खिलाने वाले दोपी है ?