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________________ १९६ ] " जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ श्री इन्द्रभूति आस्तिक थे। उन्हे जीव आदि का ज्ञान था। पर वे वेद पर विश्वास करते थे। और वेद मे पाये हुए एक वाक्य का अर्थ उन्हे ऐसा समझ में आ गया था कि 'जीव नही है, इसलिए उन्हे संशय था कि 'जीव है या नही ?' श्री इन्द्रभूति मन मे- ऐसा- विचार कर हो रहे थे कि, भगवान् ने इन्द्रभूति के विचार को जानकर वहा---'गौतम ! तुम्हे जीव के विपय मे सशय है, पर उसे निकाल डालो। जीव के अस्तिव मे सन्देह न करो।' भगवान् के इन वचनो को सुनते ही गौतम को विश्वास हो गया कि 'सचमुच ये सर्वज्ञ हैं।' नही, तो मेरे मन मे छपा सशय ये कैसे जान पाते? मेरा नाम-गोत्र तो प्रसिद्ध है, पर मेरे मन का सशय कोई नही जानता। क्योकि- मैंने उसे दूसरों को तो क्या? अपने भाइयो को भी नहीं बताया। इसलिए उसे सर्वज्ञ से अन्य कोई नहीं जान सकता। वे प्रभु के चरणो मे नत मस्तक हो गये। फिर जव भगवान् महावीर स्वामी ने वेद के उस वाक्य का वास्तविक अर्थ बताया और जीव के अस्तित्व की सिद्धि करके वताई, तव उन्होने अपने मन मे भगवान् का शिष्य बनने का निर्णय करके अपने साथ पाए हए ५०० छात्रो से कहा- मैं तो भगवान का शिप्य वनता हूँ, वोलो, तुम्हारी क्या भावना है ?'' उन्होने कहा-'हम तो आपके 'गिष्य हैं, जिनको आप गुरु मानेंगे, उनको हम भी गुरु मानेंगे।' - । - प्रथम गणधर : प्रथम शिष्य श्री इन्द्रभूतिजी ने भगवान से प्रार्थना की कि 'पाप मुझे और इनको दीक्षा दे।' भगवान ने उन्हे दीक्षा दी। उसके पश्चात् गौतम को '१. उत्पन्न, २. विगम और ३. ध्रुव'-ये तीन
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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