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जैन सुबोध पाठमाला-भाग १
६. अनुमोदन करना। इन नव प्रकारों को 'नवकोटि' कहते है। दीक्षा मे १८ पापो का नवकोटि से प्रत्याख्यान करना पड़ता है और सामायिक मे छह कोटि या आठ कोटि से प्रत्याख्यान करना पडता है। छह कोटि मे तीसरी, छठी और नवमी-ये तीन कोटियाँ खुलो रहती हैं तथा आठ कोटि मे मन से अनुमोदन की एक तीसरी कोटि खुली रहती है।। *दीक्षा जीवन भर के लिए ही होती है, जबकि सामायिक
इच्छानुसार 'एक मुहर्त उपरात' आदि के लिए होती है। प्र० • प्रतिक्रमण किसे कहते है ? उ० : अतिचार से या पाप से लौटना, पुनः धर्म मे आना। प्र० निन्दा किसे कहते हैं ? उ० . १. अल्प रूप से निन्दा करना, २. अट्ठारह पापो की एक
साथ निन्दा करना, ३ एक बार निन्दा करना,
४. आत्मसाक्षी से निन्दा करना। प्र० : गर्दा किसे कहते हैं ? उ० : १. विशेप रूप से निन्दा करना, २. एक-एक पाप की
भिन्न-भिन्न निन्दा करना, ३. बारवार निन्दा करना, ४ देव या गुरु साक्षी से निन्दा करना।
*दीक्षापाठ फरेमि भंते ! सामाइयं ॥१॥ सव्वं सावज्जं जोगं पचखामि ॥२॥ जावज्जीवाए ॥३॥ तिविह तिविहेणं मणेरण वायाए काएरणं न फरेमि न फारवेमि फरतपि अण्णं न समणुजारणामि ॥४॥ तस्स भते ! पटिकमामि निदामि गरिहामि अप्पारणं वोसिरामि ॥५॥