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तत्त्व विभाग-नवमां-वोल : 'सम्यक्त्व के छह आकार' [ १३६ - करना पडे, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति मे दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
२ गरगाभियोग : कुटुम्ब, जाति, पचायत, समूह आदि की आज्ञा, दवाव या वलात्कार से इच्छा बिना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्वा या प्राचार से अन्य मती वने हुए जैन-साधुयो से पालापादि करना पडे, तो - सम्यक्त्व की प्रवृत्ति मे दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
३. बलाभियोग : शक्ति, सत्ता आदि से बलवान की आज्ञा, दबाव या वलात्कार से इच्छा विना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेग, श्रद्धा या प्राचार से अन्य मती बने हए जैन साधुग्रो से आलावादि करना पडे, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति में दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
४. देवाभियोग : देव, देवी की आज्ञा, दबाव या बलात्कार से इच्छा विना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार मे अन्य मती बने हुए जैन-साधुओं से पालापादि करना पडे, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति मे दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
५. गुरुनिग्रह : माता-पिता प्रादि बडों की आज्ञा या दबाव से इच्छा बिना अन्य मत के गुरु, अन्य मत के देव तथा वेश, श्रद्धा या प्राचार से अन्य मती वने हए जैन-साधुप्रो से आलापादि करना पड़े, तो सम्यक्त्व की प्रवृत्ति में दोष लगता है, पर सम्यक्त्व भग नहीं होता।
६. वृत्तिकान्तार : आजीविका की रक्षा के लिए स्वामी की आज्ञा या दबाव होने पर या अटवी आदि विषम क्षेत्र काल भाव मे फँस जाने पर इच्छा बिना अन्य मत के गुरु, अन्य मत