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जैन सुबोध पाठमाला - भाग १
सबसे ग्रागे था । उसकी ग्रांखें कभी ऊपर और कभी तिरछी देख रही थी । अचानक उसे पत्थर की ठोकर लगी और वह मुँह के वल नीचे गिर पडा ।
तटस्थकुमार और उपकारनाथ दोनो एक दूसरे के गले मे हाथ डाले पीछे चले आ रहे थे । उपकारनाथ ने निर्दोपचन्द्र को नीचे गिरते देखा, तो बहुत हँमा । उसने कहा धन्यवाद, निर्दोष | वडा अच्छा उपकार का काम किया। वेचारी कीड़ियाँ इस योनि मे बहुत दुःख पा रही थी, तुमने उन्हे इस दुखभरी योनि से छुड़ाकर उन पर बहुत ही उपकार किया है ।
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तटस्यकुमार ने उपकारनाथ से कहा : उपकार ! देखो, कर्म कितने न्यायवान हैं। कल उसने तुम्हे गिराया, तो आज वह ठोकर खाकर स्वयं गिर गया । कर्म न्याय करने मे देर करते हैं, अन्धेर नही ।
उसने ग्रपने मुँह की
निर्दोषचन्द्र किसी तरह सँभला । धूल झाड़ी, कपडे ठीक किये और शाला मे प्रवेश किया । श्रध्यापकजी देख रहे थे कि ये पीछे आनेवाले छात्र ग्रपने साथी की इस दशा को देखकर क्या करते हैं ? परन्तु उन्होने जो कुछ देखा-सुना, उससे उन्हे बहुत दुःख हुग्रा । वे निर्दोषचन्द्र के पास पहुँचे। जहाँ उसे लगी थी, उसे दवाया । जहाँ-कही चोट आई थी, उस पर ग्रौपधि की । -
पीछे उससे प्रेमपूर्वक मधुर शब्दो मे कहा देखो, सदा नीचे देखकर चला करो । १ इससे कीड़ी प्रादि जीवो की रक्षा होती है, २. हम भी ठोकर से वचते हैं औौर ३. कोई वस्तु पड़ी हुई हो, तो वह मिल भी जाती है । '
निर्दोष : ( अपने को निर्दोष बताते हुए) श्रीमान्जी । मैं तो अपने पाठ को दुहराता चला ग्रा रहा था । मेरा