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. पाठ १५----विवेक ध्यान इधर-उधर नहीं था। परन्तु अन्य छात्र बडे अविवेकी है। उन्होने पत्थर को रास्ते मे ही लाकर रख दिया। फिर ठोकर न लगे, तो और क्या हो ?
उपकारनाथ और तटस्थकुमार दोनो पाकर भूमि पर ही प्रवेश-द्वार पर वैठ गये। टाग पर टाग चढा ली और शाला के बाहर की ओर देखने लगे।
अध्यापकजी ने उन दोनो की ओर देखते हए कहा . देखो, छात्र-अवस्था मे खाते हुए परस्पर गले में हाथ डाले चलना नहीं चाहिए। फिर जैनशाला मे आते समय तक इस प्रकार की प्रवृत्ति वहुत अनुचित है।
जब तुम्हारा साथी ठोकर खाकर गिर पड़ा, तब तुम केवल देखते रहे, हँसते रहे और वाते छॉटते रहे--पर इसकी कोई सेवा न की। करुणा के प्रसग पर सदा ही अनुकपा-भाव सहित सेवा के लिए तत्पर रहना चाहिए।
तुम तीनो जैनशाला मे कितनी देरी से पहुंचे हो? यहाँ समय पर पहुँचना चाहिए। और अब इस प्रकार अभिमान के आसन से बैठ गये हो। अपने से बडो के सामने विनय के आसन से बैठना चाहिए तथा तुम्हारा अपना आसन कहाँ है ? तुम्हारा बैठने का स्थान कौनसा है ? सदा आसन लगाकर अपने स्थान पर बैठना चाहिए। हाँ, अब सामायिक लो और अध्ययन प्रारम्भ करो। उपकारः आपने शिक्षा देकर हम पर बहुत उपकार किया है, पर
श्रीमानजी। आप आज ही पधारे हैं, अत आज तो सामायिक से छुट्टी मिलनी चाहिए। फिर कभी आप कहेगे, तो हम आपको दो-चार सामायिक अधिक कर देगे।