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पाठ १५---विवेक
[५३ विजय : यह धार्मिक पुस्तक है। १. इसमे कई तत्व-ज्ञान की
बाते है, जिससे ज्ञान बढता है। २ कई तीर्थकर आदि महापुरुषो की कहानियाँ है, जिससे अनुकरण की भावना जगती है। ३. कई अच्छी-अच्छी स्तुतियाँ है। जिससे मन पवित्र बनता है और ४. कई
सुन्दर-सुन्दर उपदेश है, जिससे आत्मा सुधरती है । जयन्त : ये सब धार्मिक उपकरण तुम कहाँ से लाये ? विजय : मैं जिस नगर मे पढता हूँ, वहाँ की जैनशाला से । जयन्त : ये सब क्यो लाये ? विजय : इसलिए कि तुम भी धर्म करो और धार्मिक बनकर
मेरे सच्चे धर्म-भाई बनो। बोलो, धर्म करोगे ?
मेरे सच्चे भाई बनोगे ? जयन्त : अवश्य ।
पाठ १५ पन्द्रहवाँ
विवेक
आज जैनशाला मे नये शिक्षक श्रावकजी की नियुक्ति हुई थी। वे समय से पहले जैनशाला मे पहुँचे, पर शाला मे कोई छात्र उपस्थित न था।
जैनशाला प्रारम्भ होने के समय से लगभग १५ मिनिट से भी पीछे निर्दोषचन्द्र, तटस्थकुमार और उपकारनाथ जैनशाला मे आते दिखाई दिये। वे तीनो ही जैनशाला के नामाङ्कित छात्र थे।
तीनो मुंह मे कुछ खाते चले आ रहे थे। निर्दोषचन्द्र