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२०८ ] जैन सुवोध पाठमाला-भाग १ पिताजी की तो मुझे सेवा अवश्य ही करनी चाहिए।' इस प्रकार कहते हुए चन्दना ने धनावह सेठ के निषेध करते हुए भो उनके पर धोना प्रारम्भ कर दिया।
पैर धोते-धोते उसके केा खुल गये। चन्दना ने उन्हें सम्भालने का विचार किया, तब तक सेठ ने उन केगो को गीली मिट्टी वाली भूमि पर पडते हुए बचा लिए और अपने ही हाथो से उन्हे पकड कर वाँध दिये।
मूला का दुष्ट विचार गवाक्ष (झरोखे) मे वेठी मूला ने सेठ और चन्दना का परस्पर वार्तालाप तो सुना नही, केवल यह केश-बन्धन का दृश्य देखा। उसके हृदय में कुछ दिनो पहले से ही यह सन्देह हो चला था कि 'सेठ इस लडकी पर वहत स्नेह रखते है और यह लडकी रूपवती भी है तथा नवयुवती भी है। इसके सामने मेरा रूप और अवस्था, दोनो ही कुछ नही है। इसके कालेकाले मनोहर लम्बे केश प्रत्येक पुस्प को मोहित कर सकते है । इसलिए कही सेठ इसके साथ लग्न न कर ले । यदि ऐसा हो गया, तो मेरी दासी से भी अधिक दुर्दशा हो जायगी।'
आज जव उसने केवल यह दृश्य देखा, तो उसकी यह असत्य गड्डा पक्की हो गई । उसने सोचा-'अवश्य ही इस लड़की पर सेठ की भावना विगडी हई है। मुंह से तो 'वेटी-बेटी' कहते है, पर मन से भावना कुछ दूसरी ही है। नही, तो 'ये युवावस्था वाली इस लडकी के केगो को क्यो हाथ लगाते और क्यो उन्हे वाँधते ?' ऐसा कार्य करना इनके लिए सर्वथा अनुचित था।
और इस लडकी को भावना भी विगडी हुई ही दिखती है, नही, 'तो 'यह सेठ के द्वारा केगो पर हाथ लगाना और चोटी बाँधना कैसे सहन करती ?' अस्तु, अव तक तो यह रोग छोटा ही है।