________________
कथा विभाग-३. महासती श्री चन्दनवालाजी [ २०७
वसुमति को यह देखकर बहत प्रसन्नता हुई। वह १. पिता का विरह, २. घर का छूटना, ३ माता की मृत्यु और ४. अपना बिकना, सब-कुछ भूल-सी गई। उसे सन्तोष हुआ कि 'अब मै कुलोन वराने में हैं। यहाँ मेरे धर्म की समुचित रक्षा होगी तथा मैं धर्म-ध्यान कर सकूँगी।'
नया नाम--चन्दनबाला
धनावह सेठ ने वसुमति को पूछा-'बेटी । तुम्हारा नाम क्या है ?' पर उसने कोई उत्तर नही दिया। उसकी मधुर और ऊँची बोली, सबसे विनय-व्यवहार तथा सुशीलता ने सब लोगो को वश कर लिया था। इसलिए लोग उसे चन्दन के समान अनेक गुणवाली देखकर 'चन्दना' (चन्दनबाला) कहने लगे। उसका यही दूसरा नाम आगे चलकर अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ।
सेवा और कृतज्ञता उन्हाले के दिन थे। धनावह सेठ बाहर से चलकर थके हुए घर पर आये थे। उस समय उनके हाथ-पैर धुलाने के लिए वहाँ कोई सेवक उपस्थित न था। इसलिए चन्दनबाला ही पात्र में पानी लेकर सेठ के पास पहुँच गई। सेठ ने उसे बहुत निषेध किया कि 'बेटी । तुम रहने दो। मुझे कोई शीघ्रता नही है। अभी कुछ समय मे कोई सेवक आ जायगा। 'तुम मेरे पैर धोनो'--यह ठीक नहीं है।'
चन्दना ने कहा-'पिताजी। यदि पुत्री पिता की सेवा करे, तो उचित कैसे नही ? आपने तो मुझे मातो दूसरा जीवन ही दिया है। आपदा की घडियो में आपने अपार धन देकर मुझे खरोदा और मेरे कुल-शील की रक्षा की। ऐसे महारक्षक