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तत्त्व-विभाग-दूसरा बोल : 'सम्यक्त्व के तीन लिंग' [ १३३
२. सुदृष्ट परमार्थ सेवन : परमार्थ के अच्छे जानकार अर्थात् नव तत्वो के अच्छे जानकर पुरुषो की सेवा करे।
३. व्यापन्न वर्जन : जिन्होने सम्यक्त्व का वमन कर दिया (छोड दिया)- ऐसे १. निह्नवो की २ अन्य मत धारण कर लेने वालो की तथा ३. नास्तिको की सगति न करे।
४. कुदर्शन वर्जन : अन्य मतावलम्बी कुतीथियो की सगति से दूर रहे।
-उत्तराध्ययन सूत्र-अध्ययन २८, गाथा २८ से ।
दूसरा बोल : 'सम्यक्त्व के तीन लिंग'
लिंग (जैसे आम के बाहरी पोले रंग से उसमे रहे हुए मधुर
रस का अनुमान होता है, वैसे ही) जिस (सहचर) बाहरी गुरगो से 'इस पुरुष मे सम्यक्त्व है-इसका अनुमान हो, उसे 'सम्यक्त्व का लिंग' कहते है।
१. श्रुनानुराग . जैसे तरुण पुरुष राग-रग (सगीत) मे अनुराग (रुचि) रखता है, उसी प्रकार केवली प्रपित अहिंसामय वाणी सुनने मे अनुराग रक्खे ।
२. धर्मानुराग : जैसे तीन दिन का भूखा पुरुष खीरखाड का भोजन करने मे अनुराग (रुचि) रखता है, उसी प्रकार केवली प्ररुपित अहिंसामय धर्म-पालन मे अनुराग रखे।।
३. देवगुरु वैयावृत्य : जैसे अनपढ (अपठित) पुरुष विद्या गुरु को पाकर हर्षित होता है और विद्या-प्राप्ति के लिए उनकी वैयावृत्य (सेवा) करता है उसी प्रकार देवगुरु के दर्शन पाकर हर्षित हो और धर्म-प्राप्ति के लिए उनकी वैयावृत्य करे।
~अनेक सूत्र से तथा प्रवचन सारोद्धार से ।