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१५६ ] जैन सुबोध पाठमाला-भाग १ अनुकपा-भाव से अगोपाग सकोच लिए और निश्चल हो गये। पर त्रिगला को यह विचार हो गया कि 'मेरा गर्भ या तो किसी ने चुरा लिया है या वह मर गया है, या वह गल गया है. क्योकि पहले वह हिलता-डुलता था, अब वह हिलता-डुलता नहीं।' इस विचार से त्रिशला को वहुत चिता हो गयी। रानी को चिता से सारा राजप्रासाट भी चिन्तित हो गया। उसमे होने वाले गाने-बजाने-नाचने आदि सभी वन्द हो गये। यह उल्टो स्थिति देखकर भगवान् ने गर्भ मे हिलना-डुलना प्रारभ कर दिया। तव त्रिगला को पुन सन्तोष और विश्वास हया। रानी के सन्तोष तथा विश्वास पर राजप्रासाद मे मो हर्प छा गया।
भगवान् को तव यह विचार हुया-जसे मेरा हित के लिए किया गया कार्य अहित के लिए हुग्रा, इसी प्रकार भविष्य मे लोग पराये का हित करेगे, फिर भी उन्हे प्रत्यक्ष (तत्काल) मे प्राय अहित मिलेगा। (कर्म तो शुभ ही बंधेगे।) उसके पश्चात् उन्होने ममतावा यह अभिग्रह (निश्चय) किया कि 'मैं माता-पिता के जीवित रहते दीक्षित नही बनगा ।'
भगवान का जन्म दोनो गर्भ के मिलाकर पापाढ शुक्ल ६ छठ की रात से चैत्र शुक्ला १३ तेरस की रात तक ६ महीने पीर साढे सात (कुछ अधिक सात) रात बीतने पर, जव ग्रह-नक्षत्र उच्च स्थान पर थे, दिशा निर्मल थी, शकुन उत्तम थे, वायु प्रदक्षिणावर्त थी, धान्य निपजा हुआ था और देश मुखी था, तब त्रिगला ने सुखपूर्वक भगवान् को जन्म दिया।
भगवान् का जन्म होते ही कुछ समय के लिए तीनों लोक मे प्रकाश और नारकीय आदि सभी जीवो को शान्ति