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________________ २०० ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १ - रहती थी। उनके अंगूठे मे ऐसा अमृत प्रकट हो गया था। फिर भी वे कभी अपनी ऐसी किसी लब्धि का प्रयोग नही करते थे। इस प्रकार गौतस्मवामी निष्पृह (इच्छारहित) भी थे। निरभिमानी . ऐसे ज्ञानी, तपस्वी, भगवान् के सबसे बडे गिष्य और 'प्रथम गणधर होते हुए भी गौतमस्वामी को अभिमान का लवलेश भी छू नही गया था। वे अपना काम स्वय करते थे । जैसे बेले-वेले के पारणे मे भी वे स्वय गोचरी लाते थे। श्री गौतमस्वामीजो से कभी भूल हो जाती, तो भी वे उसे तत्काल स्वीकार कर लेते थे। वाणिज्यग्राम नगर की बात है . एक बार बेले के पारणे मे श्री गौतमस्वामी प्रानन्द श्रावक के घर पधारे थे। अानन्द श्रावक ने कहा :' 'भन्ते । मुझे वडा अवधिज्ञान हुया है।' तब गौतमस्वामी ने कहा 'श्रावक को अवधिनान हो सकता है, पर इतना वडा नहीं।' __जब भगवान् के पास लौटने पर भगवान् से जाना कि 'पानद श्रावक का कहना ठीक था, पर उपयोग न पहुंचने के कारण मुझ से ही भूल हुई, तो वे विना पारणा किये ही तत्काल प्रानन्द श्रावक को खमाने (क्षमा-याचना करने) गये। .. अहा ! कितने निरहकारी और सरल बन गये थे, गौतमस्वामी। सबसे मधुर श्री गौतमस्वामी छोटो से भी वहत मधुर वर्ताव करते थे। पोलासपुर की बात है। एक वार वे गोचरी गये। वहां छ: वर्ष के वच्चे अतिमुक्त (एवता) कुमार ने जब उन्हे देखा ीर पूछा-- , 'श्राप घर-घर क्यो घूमते है ?' तो स्वय इतने बड़े होते हुए भी
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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