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कथा-विभाग-२ गणधर श्री इन्द्रभूतिजी [२०१ उस बालक तक को उत्तर दिया। उसका भी समाधान किया। उसने गौतमस्वामी से कहा-'पायो ! मैं तुम्हें भिक्षा दिलाऊँ'। इस प्रकार कह कर वह गौतमस्वामी की अंगुली पकड कर उन्हें अपने घर ले जाने लगा, तो वे उसका विरोध न करते हुए उसके पीछे-पीछे चले गये । गोचरी लेकर भगवान के पास लौटते समय उसने पूछा- 'आप कहाँ रहते हो ?' तो कहा-'मेरे गुरु भगवान महावीर वाहर बगीचे में पधारे हैं, मैं उनके चरणो में रहता हूँ।' वह चलने को तैयार हुआ, तो श्री गौतमस्वामी उसको चाल चलते हुए लौटे। अतिमुक्त को ऐसे गौतम कितने म.ठे लगे होगे ? (ये अतिमुक्त दीक्षित होकर मोक्ष गये।)
स्वधर्मो-वत्सल
श्री गौतमस्वामी को धर्म-प्रेम बहत था। वे स्वधर्मी बनने वाले का बहुत आदर करते थे। कृतगला नगरी की बात है। एक बार भगवान् महावीरस्वामी ने गौतमस्वामी से कहा: 'गौतम | आज तुम अपने मित्र को देखोगे।'
गौतम-'कौन है वह ?' महावीर-'स्कन्दक सन्यासी।' गौतम "उसे कब, कहॉ, कितने समय से देखेंगा?' महावीर-'बस, वह अभी आ ही रहा है । गौतम-'क्या वह दीक्षित बनेगा ?" महावीर-'हाँ।'
यह सुनकर श्री गौतमस्वामीजी को 'मित्रता के नाते नहीं, पर मेरा मित्र दीक्षित बनेगा'- इस नाते बहुत प्रसन्नता हुई। वे स्वय स्कन्दक के सामने गये और उनका स्वागत किया तथा उन्हें