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२२६ ] जैन सुवोध पाठमाला---भाग १ अनुकम्पा (प्राणी-दया) की भावना उत्पन्न हुई और उस से तुमने उसकी रक्षा के लिए पैर को वीच मे रोक लिया। हे मेघ ! उस समय उस जीव-अनुकम्पा की भावना और क्रिया से तुम्हारा ससार परित्त (कम) हुआ।
(जिससे ससार घटे, ऐसी उत्कृष्ट अनुकम्पा आदि की भावनाएँ वहुत श्रेष्ठ और विशुद्ध होती हैं। यदि उनमे से किसी उत्कृष्ट, श्रेष्ठ, विशुद्ध भावना मे श्रायु का बध हो, तो वह जीव वैमानिक बनता है (विमान से देवता बनता है)। परन्तु हायी को उस समय प्रायु का वन्ध नही हुआ। पीछे जव कुछ समय के लिए उसमे मिथ्यात्व उदय मे आ गया, तब हे मेघ ! तुम्हे मनुष्य-आयु का वध हुआ।
अढाई रात-दिन के पश्चात् जव उस नावानल के बुझ जाने पर, सभी पशु आग के भय से मुक्त हो गये, तव वे भूख-प्यास के मारे चारे-पानी आदि के लिए सभी दिशायो मे इधर-उधर बिखर गये। शग भी वहाँ से चला गया। तव तुमने भी वहाँ से चले जाने के लिए वह उठाया हया पैर नीचे रखना प्रारम्भ किया। पर अढाई दिन-रात तक एक सरोखा ऊँचा रहने से वह अकड गया था। अत वह पर तो टिका नहीं, पर तुम पर्वत की भांति 'घडाम' शब्द करते हुए सारे अगो से नीचे गिर पडे। वहाँ तुम्हे तीव्र वेदना हुई और पित्तज्वर हो गया। उससे तुम्हारी तीन दिन-रात मे मृत्यु हो गई।
वहाँ से मर कर तुम महाराजा श्रेणिक की धारिणी गनी के यहाँ हाथी-स्वप्न के साथ जन्मे और क्रमश बडे होने के बाद वैराग्य आने पर मेरे पास दोक्षित हए।'