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१८० ] जन सुबोध पाठमाला--भाग १ मैं कृतार्थ हो जाऊँ।' परन्तु चार मास हुए, उनकी पागा नहीं फली। चातुर्मास समाप्ति के दिन जीर्ण सेठ ने स्वय भी इस अागा मे पारणा नही किया कि 'भगवान् आज तो पारणा करेंगे ही। क्या ही अच्छा हो, यदि भगवान् मेरे हाथ से कुछ ग्रहण करे और फिर मैं खाऊँ" वे इस मनोरथ मे अपने द्वार पर ही खडे रहे, परन्तु भिक्षा के समय भगवान् ने वहाँ के एक दूसरे पूर्ग नामक सेठ के यहाँ पधार कर पारणा कर लिया। उस समय वजी हुई देव-दुन्दुभि सुन कर जीर्ण सेठ अपने आपको मन्द-भाग्य समझ कर वहुत पश्चात्ताप करने लगे। भगवान् को दान देने के लिए जीर्ण सेठ के परिणाम इतने उत्कृष्ट (बढकर) थे कि 'यदि जीर्ण सेठ को दुन्दुभिनाद एक घडी भर और न सुनाई देता और उनके उत्कृष्ट परिणामो का वह प्रवाह वर्धमान (वढता) रहता, तो उन्हे उस समय केवल-ज्ञान प्राप्त हो जाता।'
कठिन अभिग्रह का चन्दनबाला द्वारा पारणा
पूरण सेठ के यहाँ पारणा करके भगवान् वैगाली से विचरते हुए 'कौशाम्बी' पधारे। वहाँ भगवान ने कठिन अभिग्रह किया। वह 'चन्दनबाला' के हाथो से फला। (इसके विस्तृत वर्णन के लिए ३. चन्दनवाला की कथा देखो।)
ग्वाले का उपसर्ग
कौशाम्बी से विचरते हुए भगवान् 'षण्मानि' नामक गाँव के वाहर पधार कर कायोत्सर्गपूर्वक खडे रहे। वहाँ एक ग्वाला भगवान् के पास बैलो को छोड कर गाये दुहने के लिए गया। इधर बैल भी चरने के लिए वहाँ से चले गये। ग्वाले ने लौटने पर बैलो को न देख कर भगवान् से उनके विपय मे