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कथा-विभाग-१ भगवान् महावीर [ १७६ समाप्त होने पर भगवान् छह-मासी तप के पारणे मे गोकूल मे गये। पर वहाँ भी उस महा पापी ने घर अशुद्ध (असूझता) कर दिया। पर भगवान् तब भी अविचल रहे। अन्न में वह हरा। प्रभु का धैर्य जीता। पैरो मे पड कर उसने भगवान् ने बार-बार क्षमा याचना की। उसने कहा : 'भगवन् । शक ने जो
आपकी प्रशसा की, वह मिथ्या प्रशसा नही थी, पर यथार्थ प्रशमा थी। मेरी प्रतिमा विफल गई और प्रापका धैर्य विजयी रहा। मैं हारा और पाप जीते। अब आप पारणे के लिए पधारिये ।' भगवान् ने उत्तर दिया 'सगम ] मै पारणे के लिए जाऊँ, चाहे न भी जाऊँ, परन्तु तुमने जा मुझे उपसर्ग दिये, उस सम्बन्ध मे किसी से कुछ न कहना, अन्यथा मेरे रागो तुम्हें वहत दुख दो।' अहा । धन्य है, भगवान् की भगवत्ता। कष्ट देने गले के प्रति भी कितनी अनुकम्पा १
परन्तु कष्ट देने वाले का मुंह छुपा नहीं रहता। जब सगम अगवान् को कष्ट देकर देवलोक मे पहुंचा, तो शक्रेन्द्र ने मुंह फेर लिया और उसे देवलोक-निकाला दे दिया। उसके साथ केवल उमकी देवियाँ हो जाने दी। शेष सारा परिवार वह अपने साथ नहीं ले जा सका।
जोर सेठ की आदर्श दान-भावना
भगवान् ग्यारहवे चातुर्मास के लिए चौमासी तपपूर्वक 'विशाला' नगरी के 'बलदेव' के मन्दिर मे बिराजे। वहाँ श्रावक 'जिनदास सेठ' रहते थे। कुछ वेभव कम हो जाने से लोग उन्हे 'जीर्ण सेठ' कहते थे। वे भगवान् की सेवा करते हुए नित्य शिक्षा के समय अपने घर पर भगवान् की प्रतीक्षा करते कि 'भगवान् पारणे के लिए मेरे घर पधारे, तो