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___११६ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १
दसवाँ बोल : 'पाठ कर्म' कर्म : मिथ्यात्वादि पाश्रवो के कारण से आकर प्रात्मा के साथ
बँधे हुए शुभ-अशुभ पुद्गल-विगेप।
१. ज्ञानावरणीय : प्रात्मा के ज्ञान गुण को ढकने वाला कर्म, सूर्य के प्रकाश को ढकने वाले 'मेघ' (वादल) के समान ।
२. दर्शनावरणीय : प्रात्मा के दर्शन गुण को ढकने वाला कर्म, राजा के दर्शन को रोकने वाले 'द्वारपाल' के समान ।
३. वेदनीय : आत्मा को साता असाता वेदन कराने वाला कम, जीभ को सुख अनुभव कराने वालो 'मधु' (गहद) और दुख अनुभव कराने वाली 'असि' (तलवार) के समान ।
४. मोहनीय : प्रात्मा के श्रद्धा और चारित्र गुण को मोहित (विकृत) करने वाला कर्म, मनुष्य के विवेक और शील को मोहित (विकृत) करने वाले 'मद्य' (मदिरा, शराब) के समान ।
५. आयुष्य : प्रात्मा को नरकादि गति मे रोके रखने वाला कर्म, अपराधी को कारागृह मे रोके रखने वाली 'हथकडी-बेडी' के समान ।
६. नामकर्म : आत्मा के अमूर्त गुरण (वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श रहित होना) को ढककर आत्मा को नाना वर्णादि सहित वनाने वाला कर्म। स्वच्छ वस्त्र पर नाना चित्र बनाने वाले 'चित्रकार' के समान ।
७. गोत्रकर्म : आत्मा के अगुरु लघु गुरण (हलका-भारी न होना, ऊँच-नीच न होना) को ढक कर ऊँच-नीच का भेद बनाने वाला कर्म । मिट्टी के छोटे-बडे पात्र बनाने वाले 'कुम्भकार' के समान ।