________________
कथा-विभाग-७ श्री सुलसा श्राविका [२५१ मंत्र-तत्र का स्मरण छोड़ो। हमे एक मात्र परिहतदेव और नमस्कार-मत्र पर ही श्रद्धा रखनी चाहिए। अरिहत को ही झुकना चाहिए। नम-कार-मत्र का ही स्मरण करना चाहिए। अन्य देव-देवियो और अन्य मत्र-तत्रो पर श्रद्धा रखना मिथ्यात्व है।'
नाग ने कहा-'मुलसे ! मैं अरिहतदेव और नमस्कार-मत्र पर ही श्रद्धा रखता है। मुझे अन्य देव-देवियो और अन्य मत्रों पर श्रद्धा नहीं है। मैं उन्हे ससार-तारक या मोक्ष देने वाला नही मानता। पर ये लौकिक देव और लौकिक मत्र है। पुत्र की आशा लौकिक प्राशा है। ये 'लौकिक प्रागा पूर्ण करने मे सहायता दे सकते है, इसलिए मैं इन्हे पूजता हूँ और स्मरण करता हूँ।'
सुलसा ने कहा-'स्वामी । यदि अन्य देवो और मत्रों पर हमारी श्रद्धा नहीं है, तो हमारे हृदय मे भले सम्यक्त्व रहे, पर उन्हे पूजने और उनके स्मरण करने की प्रवृत्ति तो मिथ्यात्व की ही है। हमे मिथ्यात्व की प्रवृत्ति से भी बचना ही अच्छा है।
दूसरी बात यह है कि, यदि पूर्व जन्म मे हमने पुण्य नही, कमाये है, तो ये अन्य देव-देवियों और मन्त्र-तन्त्र हमे कुछ भी नही दे सकते। हमारी कुछ भी सहायता नही कर सकते।'
नाग ने कहा-'सुलसे ! तुम्हारा कहना सत्य है। पर मान लो कि, हमने पूर्व जन्म मे कुछ पुण्य कमाये हो और वे अभी उदय मे न आये हो तथा पाप हो उदय मे आये हो, तब तो ये देवता और मत्र हमारी सहायता कर सकते है। क्योकि वे वर्तमान पाप को दवा सकते हैं और दबे हुए पुण्य को खीचकर शीघ्र बाहर ला सकते है। यह भी हो सकता है कि हमे पुत्र प्राप्ति का पुण्य उदय मे आने वाला हो और उसके लिए देव