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तत्त्व विभाग-श्रावकजी के चार विश्राम [ १४६ १८. स्थिरकारक : जिन-शासन से डिगते हुए पुरुषो को जिन-शासन मे स्थिर करे।
१६. प्रतिक्रमणकारी : उभयकाल दैवसिक, रात्रिक प्रतिक्रमण करे।
२०. सर्वजीव हितैषी : सब जीवो का हित चाहे । २१. तपस्वी : यथाशक्ति तपश्चर्या करे।
-अनेक सूत्रो से ।
श्रावकजी के चार विश्राम
जैसे १ भार ढोने वाला भार को एक कन्धे से दूसरे कंधे पर रक्खे और पहले कन्वे को विश्राम दे—यह पहला विश्राम है। २ भार को चबूतरे आदि पर रख कर मल-मूत्र की बाधा दूर करे, खा-पीकर भूख-प्यास की बाधा दूर करे-यह दूसरा विश्राम है। ३. रात्री को धर्मशाला, मन्दिर प्रादि मे रात भर रहे, सो कर दिन भर का श्रम दूर करे-यह तीसरा विश्राम है। ४ जहाँ पर भार पहुँचाना है, ठेठ वहाँ भार पहुँचा दे और निश्चिन्त हो जाय-यह चौथा विश्राम है।
इसी प्रकार १.बारह व्रत और नमस्कार सहित (नवकारसी) श्रादि का प्रत्याख्यान धारण करे, वह श्रावक का पहला विश्राम है। २ प्रतिदिन सामायिक और दिशावकाशिक व्रत सम्यक् पाले, वह श्रावक का दूसरा विश्राम है। ३. महीने मे छह दिन प्रतिपूर्ण पोषध सम्यक् पाले, वह श्रावक का तीसरा