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________________ १४८ ] जन सुवोध पाठमाला-भाग १ ६. धर्मानुरक्त : अस्थि-मज्जा तक धर्म-प्रेम के अनुराग से रगे हुए हो। ७. परमार्थज्ञ निर्ग्रन्थ प्रवचन (जैनधर्म) को ही परमार्थ समझे और अन्य सभी लौकिक सुख तथा अन्य मतो को अनर्थ समझे। ८. उच्छ्रितस्फटिक : स्फटिक रत्न के समान निर्मल अन्त करण वाले हो। _____. अपावृत्त द्वार : दान के लिए द्वार सदा खुले रखे। १०. प्रतीत : राज अन्त.पुर, राज्य-भण्डार आदि मे प्रतीति-पात्र हो। ११. व्रती : पाँच अणुव्रत, तीन गुरण व्रत पाले, नित्य सामायिक-दिशावकाशिक व्रत अाराधे तथा अष्टमी, चतुदर्शी, अमावस्या, पूर्णिमा यो मास के छह दिन पौषध करे। १२. सम्यक अनुपालक : लिए हुए अहिसादि व्रत तथा नमस्कार सहित (नवकारसी) आदि प्रत्याख्यान सम्यक् (निर्मल) पाले। १३. अतिथि संविभागी : श्रमण निर्ग्रन्थो को १४ प्रकार का प्रासुक (अचित्त) एषणीय (आधा कर्म आदि रहित) दान दे। -औपपातिक सूत्र से। १४. धर्मोपदेशक : निर्ग्रन्थ प्रवचन (जैनधर्म)का उपदेश दे। १५. सुमनोरथी : (१ अल्प परिग्रह २. दीक्षा और ३. पडितमरण इन) तीन मनोरथो का नित्य चिन्तन करे । १६. तीर्थसेवक : चतुर्विध सघ की सेवा करे। १७. उपासक : ज्ञानी की उपासना करते हए नित्य-नयेनये सूत्र सुनकर ज्ञान बढावे ।
SR No.010546
Book TitleSubodh Jain Pathmala Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParasmuni
PublisherSthanakvasi Jain Shikshan Shivir Samiti Jodhpur
Publication Year1964
Total Pages311
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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